क्षमा वीरस्य भूषणम
क्षमा वीरस्य भूषणम
क्षमा वीरस्य भूषणम
क्षमा धर्म है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा वेद है और शास्त्र है, जो इस प्रकार जानता है
वह सब कुछ क्षमा करने योग्य हो जाता है.
क्षमा दो अक्षरों से बना मात्र शब्द है, लेकिन इसकी शक्ति अनंत है, बहुत ही
विचारणीय बात यह है कि―
परस्याभरणं रूपं, रूपस्याभरणं गुणः।
गुणास्याभरणं ज्ञानं, ज्ञानस्याभरणं क्षमा।।
अर्थात् “मानव का आभूषण रूप है, रूप का आभूषण गुण है. गुण का आभूषण
ज्ञान है और ज्ञान का आभूषण क्षमा है सच में किसी की गलती के लिए उसे
क्षमा करना आसान बात भी है और कठिन भी आसान इस मायने में कही जा सकती
है. क्योंकि क्षमादान से मनुष्यों के बीच तमाम द्वेष-द्वंद मिट जाते हैं, जबकि यह
कार्य कठिन इसलिए है, क्योंकि हर किसी मनुष्य में क्षमा करने का गुण विद्यमान नहीं
होते हैं. क्षमा याचना और क्षमादान से व्यक्ति कमजोर या दुर्बल नहीं होते हैं, बल्कि ऐसा
करने से दोनों ही पक्ष अहंकार रूपी अग्नि में जलने से पूरी तरह बच जाते हैं. फलतः
दोनों पक्षों के बीच आत्मीयता के भाव पहले के अपेक्षा और ही अधिक प्रबल होनी शुरू
हो जाते हैं. सभ्य समाज हेतु क्षमा याचना और क्षमा दान का विशेष महत्व होता है.
क्षमा में बहुत बड़ी शक्ति निहित होती है. क्षमा मनुष्य की मनुष्य के प्रति कृतज्ञता
होती है, इसलिए तो क्षमा दान को वीरों का आभूषण कहा गया है. ठीक इसी तरह क्षमा
याचना से मनुष्य का समस्त अहंकार मिट जाता है. क्षमा याचना हेतु मनुष्यों में अपनी
गलती, असफलता व कमजोरी आदि को स्वीकार करने की क्षमता होनी जरूरी है.
उदाहरणस्वरूप यदि मनुष्य के मुँह से कोई अपशब्द निकल जाए तो उसे वापस नहीं ले
सकता है. चूंकि मनुष्य के मुंह से निकला अपशब्द धनष से निकले तीर के समान होते
है, जो सामने वाले के शरीर में घाव करके ही रहता है. इसलिए जाने अनजाने में भी
अपशब्द बोलने के उपरान्त अगर मनुष्य अपने किए पर शर्मिंदा होता है, तो उसके
लिए उसके पास क्षमा याचना के अलावा और कोई दूसरा विकल्प नहीं शेष बचता है,
वास्तव में प्रत्येक मनुष्य अपने बारे में कि धारणा और विचारधारा बनाए होता है
और वह उसी के अनुसार व्यवहार भी पेश करता है. ऐसे मनुष्य मन-ही-मन में तय कर
लेता है कि लोग हमें किस रूप में देखे, क्या सोचे और क्या कहें ? जब कोई व्यक्ति उस
मनुष्य के स्व-धारणा को ठेस पहुँचाता है तो उसे काफी अप्रिय लगता है. वह यह मानने
लगता है कि उसकी स्व-धारणा को आहत करने वाले को हमसे क्षमा मांगनी चाहिए.
ऐसी स्थिति में यदि सामने वाला क्षमा माँग लेता है तो पुनः उसकी स्व-अवधारणा
स्थापित हो जाती है, वरना वह उस घटना रूपी घाव को एक लम्बे समय तक भूला
नहीं पाता है. ऐसे ही परिस्थिति से निकलने का सटीक सुझाव देते हुए गुरु गोविन्द सिंह
जी का कथन अनुकरणीय है कि-“यदि कोई दुर्बल मनुष्य अपमान करें तो उसे क्षमा
कर दो, क्योंकि क्षमा करना तो वीरों का काम है, लेकिन अपमान करने वाला बलवान
हो, तो उसको अवश्य दंड दो.”
सच ही में मनुष्य की विशेषता होती है कि-स्वयं जीकर दूसरे को भी चैन से जीने
दो प्राणी मात्र में आत्मभावना, दया, क्षमा, सरलता आदि रखना ही धर्म है. मानव धर्म
के सामान्यतः दस लक्षण बताए गए हैं- धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच. इंद्रिय
निरोध, धी (बुद्धि), विद्या, सत्य व अक्रोध, इन तमाम लक्षणों का जो सही रूपेण पालन
करता है वह पूर्णतया मानव बना जाता है. ठीक इसके विपरीत चलने वाला मनुष्य
दानव की श्रेणी में आता है. धर्म-परायण मानव के आगे तो अष्ट सिद्धियाँ भी तुच्छ
होती हैं. ऐस लोगों के साथ किसी भी प्रकार की दुश्मनी नहीं चल सकती है. मानव के
साथ धर्म का वही सम्बन्ध है, जो शरीर के साथ प्राण का है. धर्म ही सबसे प्रेम कराना-
करना, दया करना, क्षमा करना, आत्म, संतोष करना आदि अच्छे गुणों को अपनाने,
हेतु प्रेरित करता है. धर्म वह वस्तु है जिसे सभी जन व समाज, सर्वोत्कृष्ट मानते हैं.
कवि श्री रामधारी सिंह “दिनकर” ने अपने कविता से बिलकुल ही स्पष्ट किया है
कि―
क्षमा शोभती उस भुजग को
जिसके पास गरल हो,
उसको क्या, जो दतहीन
विषहीन, विनीत, सरल हो।
सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है,
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग हो।
क्षमा, दया, करुणा, सहनशीलता. परोपकार, सहयोग, सहानुभूति, अहिंसा,
संवेदना, प्रेम या मानवता के प्रति सच्चा प्रेम आदि सभी ईश्वरीय या दैवीय गुणों को खरा
उतारने से ही सच्चा मानव, महान पुरुष कहा जा सकता है. तिब्बती बौद्ध धर्मगुरु दलाई
लामा का मानना है कि महात्मा बुद्ध को तभी सच्चा ज्ञान मिल पाया था, जब उनमें
दया, क्षमा, करुणा, अहिंसा जैसे भाव चरम पर आए थे. हालाँकि ये सभी भाव एकाएक,
एक दिन अथवा एक रात में ही नहीं जगाए जा सकते इसके लिए निरंतर रूप से प्रयास
करते रहने से, राक्षसी वृतियों को धीरे-धीरे त्यागने से एवं मानव विरोधी प्रवृत्तियाँ दूर
हटाने आदि से ही पूर्णतः सम्भव होता है, इन सारे सद्गुणों का प्रारम्भ व्यक्ति/मानव
के स्वय के भीतर से उपजना चाहिए. खुद अपने त्रुटियों का मूल्यांकन करना एवं स्वयं
भूल सुधार को क्षमा करने से खुद संतापादि से मुक्त होकर हम दूसरों को क्षमा करने
का भाव स्वयमेव ही उत्पन्न कर सकते हैं साथ-ही. प्रतिहिंसा, क्रोध, प्रतिशोध, आक्रोश,
घृणा, आत्मपीड़ा आदि अवगुणों को भी तिलाजलि देकर सरलता से दूर हटा सकते
हैं हमें प्रतिदिन थोडा-सा वक्त निकाल ‘निर्मला पुतुल’ जी के कविता में निहित
बूढी पृथ्वी का दुःख को जरूर स्मरण करके सहनशीलता व क्षमा का भाव बढ़ाना चाहिए.
थोड़ा सा वक्त चुराकर बतियाया है कभी कभी शिकायत न करने वाली
गुमसुम बूढी पृथ्वी से उसका दुःख ? अगर नहीं, तो क्षमा करना ! मुझे तुम्हारे आदमी होने
पर सन्देह है !
ऋग्वेद के मंत्र भी हमें खूब बताता है कि―’मनुर्भव’ यानि हमें मानव बनने की
और प्रेरित करता है. हमें प्रेरणा मिलती है कि तमाम ईश्वरीय गुणों (क्षमा, दया,
सहनशीलता, परोपकार आदि जैसे) को मानव होने के नाते जरूर आत्मसात् करना
ही चाहिए ये सभी गुणों से ही नर, वीर हुए हैं क्षमा करना तो वीरों का काम है
“क्षमाशस्त्रं करे यस्य दुर्जनः किं करिष्यति
अतृणे पतितो यति स्वयंमेयोपशाम्यति।”
“अर्थात् जिस मनुष्य के हाथ में क्षमा रूपी शस्त्र है उसे दुष्ट मानव क्या
बिगाडेगा? जैसे बिना तिनकों वाली भूमि पर गिरी हुई अग्नि स्वय ही बुझ जाती है
समाज में ऐसे ही व्यक्ति को मूर्धन्यता प्रदान करती है, व्यक्ति को मान सम्मान व
पद-प्रतिष्ठा मिलती है, जो स्वय स्वर्ण की भाँति अग्नि परीक्षा के बाद भी मुस्कुरा रहे
होते है, विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी जिसकी भौहों में तनिक भी सिकुड़न न
पड़ती हो. गालियाँ खाने, तमाचा खाने व पिटे जाने के बाद भी जिनके हृदय में
तिलभर भी प्रतिशोध व प्रतिहिंसा की भावना जाग्रत नहीं होती हो ऐसे व्यक्ति सचमुच
इस जगत में महान वीर पुरुषों में गिने जाते हैं. ऐसे लोग स्वयं कितनों ही कष्टों को
हँसते-हँसते सहन कर लेते हैं, भूल जाते हैं व क्षमा कर देते है, परन्तु कष्ट देने वालों
अथवा राक्षसी प्रवृत्तियों वालों के साथ थोड़ा-सा भी उल्टे व्यवहार नहीं करते हैं.
ऐसे महान वीर पुरुषों को इनके जीवनकाल से आज तक भी मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा
ज्यों-की-त्यो बनी है. ऐसे महान आत्मा आज भी हर समाज में श्रद्धा और आदर के साथ
पूज्य बने हुए हैं व जय-जयकार करते हैं इन सभी ने विराट हृदय से समस्त मानव-
जीवों के प्रति असीम प्रेम, दया क्षमा रखें, किसी के साथ कोई अपेक्षा न रखे, दुराव
हटा लगाव बढाए, सबको समभाव व सद्भावमय से गले लगाए सहयोगी बने. ऐसे
वीर सपूत जो क्षमा रूपी जहर भी खुद के शरीर में वरण किए. शत्-शत् नमन है,
जिन्होंने ‘क्षमा रूपी मर्ज की दवा को स्वय ही आजमाएं और पूरी दुनिया में सुख की
अनोखी, खुशबूदार, शीतल. जनकल्याणी व दुःख हरनी बयार चहुँ ओर प्रवाहित किया हो.
सर्वविदित है कि ईसा मसीह को शूली चढ़ाया गया. सुकरात को अपनी प्यारी जान
गंवानी पड़ी. पीर अली को फांसी के फंदे गले लगाने पड़े महावीर, युद्ध, गुरुनानक
ऐसे लोगों को दर-दर की ठोकरे खाए, ढेला खाए. नाना प्रकार के दुष्ट प्रवृति वालों ने
सजा दिए, फिर भी सभी की बातें भूलकर, क्षमा कर, बैर भूलकर सभी को कल्याण की
राह बताकर आज भी श्रद्धेय बने हुए हैं. हिन्दु, मुसलमान, सिख, पारसी, देश-विदेश
के तमाम लोगों ने इनके क्षमा व बलिदान पर आंसू बहाए. ऐसे वीरों को क्षमा जैसी
गुणों की मोती आभूषण बनकर चमाचम- चमचम सुशोभित कर रहा है. अतः सच में
श्री क्षेमेंद जी का कथन सत्य ही है कि-
“ज्ञान का भूषण क्षमा है.”
क्षमा ही प्रेम की सबसे शक्तिशाली सम्प्रेषक है, क्षमा ही प्रेम का सत्य प्रति-
निधित्व करती है, तथा क्षमा ही प्रेम का प्रतीक भी है. वीर इसी गुण को धारण कर
निरन्तर प्रेम प्रवाह की सीमा को और भी विस्तारित करता चलते-चलते सहजभाव से
पूर्णता प्राप्त करता है.
क्षमा तो वैसा शीतल जीवन फुआर की भाँति है, जो बड़े-बड़े दुश्मन के दिलों
दिमाग व आत्मा तक को भी शीतलता प्रदान कर पूर्णतः शीतल कर देती है इस नन्हें
शब्द में अजूबा मानवीय भावनाओं में अद्भुत सिहरन उत्पन्न करने की बेजोड़
क्षमता होती है. जाने जब नेल्सन मंडेला जेल में गए थे, तब वहाँ मौजूद तीन श्वेत
वार्डन उन्हें काफी यंत्रणा दिया करते थे. संयोगवश एक लोकतांत्रिक समारोह में
मंडेला महोदय ने तीनों श्वेत वार्डनों को विशिष्ट अतिथि के रूप में सादर आमंत्रित
किया था. मंडेला महोदय जी ने बड़े सहजभाव से कहा था-“मैंने इन्हें इसलिए
आमंत्रित किया है, ताकि आज की सारी खुशियाँ मैं इनके साथ ही बाँटना चाहता
हूँ.” मंडेला सारी की सारी ज्यादतियों को भूलकर क्षमाशील बन गए. क्षमा खुद का तो
कल्मष नष्ट करती ही है बल्कि दूसरों के भी हृदय को कल्मष मुक्त बना देती है.
क्षमा करने वाले स्वर्ण धातु की तरह बहुमूल्य समझे जाते हैं. ऐसे इन्सान भगवान कहे
जाने लगते हैं. किसी के शत्रु नहीं बल्कि अजातशत्रु हो जाते हैं. इसलिए किसी ने
बहुत ठीक ही लिखा है कि―
“नीच बन जाता है इन्सान सजाएं देकर ।
जीतना ठीक है दुश्मन को दुआएँ देकर ॥”
कवि रहीम ने एक पौराणिक कथा के बारे में बहुत ही एक सुन्दर रचना में लिखा
है―
“छिमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात का रहीम हरिको घट्यो, जो भृगु मारी लात”
निःसंदेह बह्मा-विष्णु-महेश इन तीनों में विष्णु ही महान कहलाए हैं, क्योंकि उनके
अन्तसः भाव में सर्वश्रेष्ठ क्षमा की भावना समाहित होती है. इसी ही भावना से
ओतप्रोत प्रवाहित होकर भगवान विष्णु जी क्षुद्र अथवा अपने से छोटे जनों के उत्पात
(गलती) को अत्यन्त ही सहज भाव से क्षमा करने की क्षमता से विद्यमान होते हैं. अतः
हमें मानव होने के नाते भी हमेशा इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि क्षमा भाव
जरूर रखें, इसे कभी भी न भूलें/भले ही दूसरे की गलती को जरूर भूल जाओ/अपने
भीतर की घृणा और बदले रूपी आग को बुझा दें. हमारा अंतःकरण बिलकुल स्वच्छ
हो ताकि स्वच्छ अंतःकरण से ‘क्षमा’ रूपी पुष्प खिल सकें. ध्यातव्य हो कि मलिन
अंतःकरण में तो जूही जैसे फूल के हार भी जलते-लहलहाते अंगारे की भाँति धू-धू करके
जलाती रहती हैं. अतः वीरों के जीवन हेतु ‘क्षमा’ को आत्मसात् करना ही श्रेष्ठकर एवं
यही सच्चा आभूषण होगा. भगवान महावीर का मंत्र ख्याल से जपते रहें―
“तुम सोने से पहले सबको क्षमा कर दो,
तुम्हारे जागने से पहले मैं तुम्हें क्षमा कर दूँगा।”
अंततः वीर भाव में क्षमा रूपी गहना जरूर शोभायमान होगा.
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