ध्वनि-विज्ञान की शाखाएँ
ध्वनि-विज्ञान की शाखाएँ
ध्वनि-विज्ञान की शाखाएँ
भाषा-विज्ञान की अन्य शाखाओं की ही भाँति ध्वनि-विज्ञान की भी कई शाखाएँ हैं। इन्हें भी वर्णनात्मक,
ऐतिहासिक और तुलनात्मक- तीन कोटियों में बाँटा जा सकता है। वास्तव में भाषा-ध्वनि का सर्वांगीण अध्ययन ही
ध्वनि-विज्ञान कहलाता है।
ध्वनि-विज्ञान की मुख्यतः तीन शाखाएँ मानी जाती हैं। ध्वनि के उच्चारण का अध्ययन करने वाला
उच्चारणात्मक ध्वनि-विज्ञान, उसके प्रसरण और ध्वनि तरंग का अध्ययन करनेवाला प्रसरणिक ध्वनि विज्ञान तथा
उसके श्रवण का अध्ययन करने वाला श्रवणात्मक ध्वनि-विज्ञान । स्पष्ट है इनमें पहली शाखा का संबंध बोलने वाले
से, दूसरी का ध्वनियों की वाहिनी तरंगों, उनके स्वरूप तथा गति आदि से और तीसरी का संबंध सुनने वाले से है।
1. उच्चारणात्मक ध्वनि-विज्ञान-इस विज्ञान में ध्वनि के उच्चारण में संलान वाक-पथ के अवयव और
उच्चारण की प्रक्रिया का अध्ययन किया जाता है। जाहिर है इसके दो पक्ष हैं उच्चारण-अवयव और उच्चारण प्रक्रिया।
ये दोनों मिलकर ही उच्चारणात्मक ध्वनि-विज्ञान की विषय-वस्तु को निर्मित करते हैं।
उच्चारणिक अवयव-भाषा-ध्वनि के उच्चारण में संलग्न होने वाले अवयवों में गले में स्थित स्वरतंत्रियाँ,
मुख में स्थित अनेक अवयव तथा नासिका-मार्ग का योगदान रहता है। इन सभी को एक साथ मिलाकर वाक् पथ
कहा जाता है।
गले में स्थित जो अवयव साँस के वाहक हैं, उन्हें साँस नली कहते हैं। साँस नली का सबसे ऊपरी सिरा जो
एक पूर्ण छल्ले के रूप में हैं, स्वर-यंत्र कहलाता है। स्वरयंत्र के अंदर के दो लचकदार तंतु ‘स्वरतंत्रियाँ’ कहलाते
हैं। इनका मुख्य काम साँस लेने के लिये और बाहर निकालने के लिये खुलकर या एक दूसरे से अलग हटकर उसे
रास्ता देना है। हटे हुए मार्ग को स्वरयंत्र-मुख कहते हैं। इन्हीं की विभिन्न अवस्थाएँ ध्वनियों के वैभिन्य का मूल सूत्र हैं।
स्वतंत्रियों की ढीली हुई या कसी हुई स्थितियों के कारण ही स्वरतंत्रियों में हुए कंपन से घोष और अघोष
ध्वनियाँ निर्धारित होती हैं।
स्वरतंत्रियों की दूसरी अवस्था से उच्चरित व्यंजनों को ही अघोष व्यंजन कहते हैं। इस अवस्था में स्वरतंत्रियाँ
ध्वनि के उच्चारण के समय साँस वायु को निकालते हुए एक दूसरे से अपेक्षया दूर रहती हैं तभी घोषत्व नहीं रहता।
स्वरतंत्रियों की तीसरी भूमिका में स्वरयंत्र-मुख को संकरा कर देते हैं। फलतः ध्वनि-उच्चारण के समय एक
तरह का घर्षण सुनाई पड़ता है। यहाँ उत्पन्न ध्वनि को ‘स्वरतंत्रमुखी संघर्षी’ कहते हैं।
स्वरतंत्रियों की अवस्था से उच्चरित चौथे प्रकार की ध्वनि ‘स्वरयंत्र मुखी स्पर्श’ है जिसके उच्चारण के समय
स्वर-तंत्रियाँ एक दूसरे से जुड़ती हैं फिर झटके से अलग से जाती हैं। यहाँ एक हल्का स्फोट सुनाई देता है। इस
प्रक्रिया से उत्पन्न ध्वनि को ‘स्वरयंत्रमुखी स्पर्श’ कहते हैं।
स्वरतंत्रियों की एक अन्य अवस्था से उत्पन्न ध्वनियाँ को मर्मर ध्वनि कहते हैं। यह घोष और अघोष के बीच
की स्थिति है।
स्वरतंत्रियों की एक स्थिति फुसफुसाहट की होती है। यह फुसफुसाहट घोषत्व से अलग होती है। ये ही
स्वरतंत्रियों की विभिन्न अवस्थाएँ होती हैं।
मुख-विवर में स्थित अवयवों का भी इसमें महत्त्व है। मुख-विवर में ऊपर की ओर तालु के सबसे पीछे का
हिस्सा । तालु के तीन भाग किये जाते हैं: कोमल हिस्से वाला, जिसे कोमल तालु कहते हैं। दूसरे और तीसरे भाग
में हड्डी के सख्त हिस्से हैं। इस हिस्से के अंत में स्थित छोटा-सा माँस-पिंड ‘अलिजिह्वा’ कहलाता है।
कोमल तालु की तीन स्थितियाँ है । तालु के हड्डीवाले सख्त भाग को कठोर तालु कहते हैं । यह स्थिर भाग
है। जीभ के अनेक भाग इसे छूकर या इससे अत्यंत निकट आकर ध्वनियों का उच्चारण करते हैं। यहाँ से उच्चारित
ध्वनियों को तालव्य कहते हैं। स्वरों के संदर्भ में इन्हें ही अग्र स्वर कहा जाता है।
तालु का तीसरा भाग वर्क्स है जो पीछे की ओर कठोर तालु से जुड़ा होता है और आगे ऊपरी दाँतों से । यह
भी एक स्थिर अवयव है। यहाँ से उच्चारित व्यंजन ही वर्क्स कहलाते हैं। दोनों होंठ और जीभ भाषा-ध्वनि के
उच्चारण में महत्त्वपूर्ण प्रकार्य करते हैं । जीभ जड़ से नोंक तक पाँच भागों में बँटी है-जिह्वामूल, जिहापश्च, जिह्वाग्र,
वर्क्स के नीचे, और जिह्वारनोंक। जिह्वमध्य भी एक भाग है। जिह्वाभूल को छोड़कर जीभ के सभी हिस्से बड़ी
सहजता से हर ओर आ जा सकते हैं।
उन अवयवों को जो अधिक चंचल हैं उन्हें भाषा-विज्ञान में करण (आर्टिकुलेट) कहते हैं।
2. प्रसारणिक ध्वनि-विज्ञान-यह ध्वनि-तरंग से संबंध रखता है। जब कोई भाषा-ध्वनि उच्चरित होती है
तो यह उच्चारण का व्यापार और उच्चरित होने के पश्चात् सुनने वाले तक पहुँचने का व्यापार भी ऊर्जा की वजह
से संभव हो जाता है। होता यह है कि जब ध्वनि का उच्चारण होता है तो ध्वनि की ऊर्जा वाग्यंत्रों से बाहर होकर
वायुकणों को जो माध्यमों का काम कर रहे होते हैं, धक्का देती है। धक्के के परिणामस्वरूप एक संपीड़न का क्षेत्र
बन जाता है। संपीड़न का क्षेत्र अर्थात् वायुकण अधिक सघन हो जाते हैं। ध्वनि की ऊर्जा इस तरह आगे बढ़ती
है। यहीं एक तरंग बन जाती है। इसीलिये इसे ध्वनि तरंग कहते हैं। इस तरह ध्वनि का बोलनेवाले से सुनने वाले
तक पहुँचना वास्तव में ध्वनि की ऊर्जा की ही मात्रा है। ध्वनि-विज्ञान में ऊर्जा के रूप में ध्वनि की इस यात्रा को
ध्वनि-तरंग कहते हैं। और अध्ययन का यह आयाम ध्वनि-विज्ञान का विषय है।
3. ध्वनियों का तृतीय आयाम ध्वनि के श्रवण से ताल्लुक रखता है। ध्वनि तरंगों के सुनने वालों के कर्णपटल
से टकराने से लेकर प्रतिबोधन तक की प्रक्रिया इसके अध्ययन का विषय हैं। इसे श्रवणात्मक ध्वनि-विज्ञान-नामक
शाखा कहते हैं।
कान के सभी अवयवों को तीन भागों में बाँटा गया है: बाहरी कान, मध्य कान और भीतरी कान । बाहर
दिखाई देने वाला भाग बाहरी कान-कान की नली और नली का सिरा जो एक झिल्ली द्वारा बंद है, जिसे कान का
परदा कहते हैं तक फैला हुआ है। जब ध्वनि कान तक पहुँचती है तो यह कान की नली से होकर परदे से टकराती
है जिससे परदे में कंपन हो जाता है। यह कंपन दूसरी ओर स्थित मध्य कान के अवयवों में एक के बाद दूसरे में
कंपन उत्पन्न करता है। मध्यकान कान के परदे (कर्ण-पटल) के दूसरी ओर से शुरू होकर भीतरी कान के आरंभ
तक जाता है। मध्य कान में तीन छोटी-छोटी हड्डियाँ हैं। इनके नाम क्रमशः हथौड़ी, निहाई और रिकाब हैं। ये
एक ऐसी गुफा में स्थित हैं जिसमें हवा भरी रहती है। इसी गुफा में योस्टेशियम नामक नली खुलती है। हथौड़ी का
एक किनारा कान के परदे से दूसरी ओर जुड़ा है और दूसरा सिरा निहाई से। इसी तरह निहाई का एक सिरा हथौड़ी
से जुड़ा है दूसरा रिकाव से । रिकाव भीतरी कान के झरोखे से जुड़ी है। जब ध्वनि की ऊर्जा कान के परदे पर कंपन
उत्पन्न करती है तो वह कंपन हथौड़ी में संचारित होता है। फिर क्रमशः निहाई और रिकाब से होता हुआ बहुत कुछ
घोंघे के आकार वाले भीतरी कान में पहुँचता है। इसे कोचलिया कहते हैं। इसी कोचलिया की झिल्लियों में संबेदी
अवयव हैं। मस्तिष्क तथा तत्रिकाओं के माध्यम से आपसी संपर्क को कायम करती है। मध्यकाल के रिकाब से
संचरित होने वाले ध्वनि-कंपन से कोचलिया के लगभग 23000 लोमकोषों पर दवाब पड़ता है जिससे दबाब तरंग पैदा
होकर तंत्रिका आवेगों द्वारा मस्तिष्क तक पहुंचती है। मस्तिष्क दो काम करता है। एक तो यह कि वह भाषा-ध्वनियों
को तंत्रिका-आवेगों के रूप में ग्रहण करता है और दूसरा यह कि ध्वनियों के समूहन से बने प्रतीकों को पदार्थो और
भावों के बिंबों से जोड़ता है।
ध्वनि के समस्त व्यापारों को इस तरह तीन आयामों और उनके अंत: संबंधों के संदर्भ में देखा जा सकता है।
जाहिर है ध्वनि विज्ञान की ये ही मुख्य तीन शाखाएँ हैं। इनमें ध्वनि-यंत्र, श्वास-नलिका, स्वर-यंत्र, स्वरयंत्र-मुख
और स्वर-तंत्री, मुख-विवर, नलिका-विवर और कौवा, तालु, जिह्वा, दंत और ओष्ठ तक का अध्ययन होता है।
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