वर्तमान शिक्षा प्रणाली में संस्कृत की आवश्यकता

वर्तमान शिक्षा प्रणाली में संस्कृत की आवश्यकता

          वर्तमान शिक्षा प्रणाली में संस्कृत की आवश्यकता

भारतस्य  प्रतिष्ठे द्वे संस्कृतं संस्कृतिस्तथा’ इस उक्ति से ही भारतवर्ष की
दो प्रतिष्ठाओं संस्कृत तथा संस्कृति के महत्व के विषय में अभिज्ञान हो जाता है. यह
निर्विवाद सत्य भी है कि भारतीय संस्कृति की रक्षा संस्कृत के बिना असम्भव ही है.
वर्तमान संस्कृत साहित्य के लब्ध यश मूर्धन्य विद्वान् संस्कृत कविआचार्य डॉ. हरिनारायण
दीक्षित ने भी अपनी कृति भारत माता बूते’ महाकाव्य में लिखा है कि―
              रक्षितुं न च शक्यन्ते बिना संस्कृतशिक्षणम् ।
              सभ्यतासंस्कृतिलोके भारतस्य च शेवधिः ।।
    संस्कृत की शिक्षा के बिना समाज में भारतीय सभ्यता, भारतीय संस्कृति और
भारतीय धरोहर की रक्षा नहीं की जा सकती है. संस्कृत शब्द पाणिनि व्याकरण
के सम् उपसर्ग पूर्वक, कृ धातु, क्त प्रत्यय के संयोग से सिद्ध होता है, जिसका अर्थ
ही परिनिष्ठित, परिष्कृत, विशुद्ध, शोभन, निर्मल आदि होता है. भाषाएं मानव की स्व
अभिव्यक्ति का साधन हैं, साथ ही यह संस्कृत भाषा मानव के साथ देवों की भाषा
होने के कारण देवभाषा, नाम से भी जानी जाती है, लेकिन समाज के कुछ तथाकथित
लोग इसको देव भाषा कहने से केवल पूजा, कर्मकाण्ड की ही भाषा समझ लेते हैं.
भारतीय भाषा परिवार की अधिकाधिक भाषाओं का प्रतिनिधित्व करने से तथा
अधिकतर भाषाओं में इस भाषा के पर्याप्त शब्द प्राप्त होने से इसे मातृभाषा भी कह
दिया जाता है. इस भाषा के कर्ता, कर्म, क्रिया को आगे पीछे कर देने से भी
व्याकरण की दृष्टि से इसमें दोष नहीं आते हैं, इसीलिए इसको अमरा भी कहा जाता है.
           सर्वविदित ही है कि इस विशाल संस्कृत वाङमय में जो अवर्णनीय अकूत ज्ञान राशि
उपलब्ध होती है, वह अन्यत्र असम्भव ही है, संस्कृत की विशाल और विपुल ज्ञान
राशि में वेद. उपवेद, षड़ वेदाङ्ग, उपनिषद्, ब्राह्मणग्रन्थ, आरण्यक. रामायण, महाभारत,
पुराणादि ही नहीं, अपितु शंकराचार्य रामानुज, माध्व, गौतम, कपिल, जैमिनी जैसे महान्
दार्शनिक, पाणिनि, कात्यायन, भर्तृहरि जैसे वैय्याकरण, पतञ्जलि जैसे योगगुरु,
आर्यभट्ट, भाष्कर, ब्रह्मगुप्त जैसे गणितज्ञ, चरक, सुश्रुत जैसे आयुर्वेदज्ञ, भरत जैसे
नाट्यविद् और वाल्मीकि, व्यास, भास, कालीदास, भवभूति, वाण, दण्डी, हर्ष सहित
अनेक आधुनिक सर्जकों के अनेक विशिष्ट उल्लेखनीय योगदान भी हैं. इस विशाल
संस्कृत वाङमय के ग्रन्थों में वर्णित प्रचुर वैज्ञानिकता, कर्मकुशलता, जीवनोपयोगिता
और अकादमिक मूल्यक्ता देश विदेश के अध्येताओं को सहस्त्रों वर्षों से आकर्षित
करती हुई आयी है. षोडश संस्कार, चार आश्रम, पुरुषार्थ चतुष्टय आदि की कल्पना
इसी संस्कृत वाङमय में वर्णित है. संस्कृत सार्वभौमिक, सार्वकालिक तथा वैज्ञानिक
भाषा है तथा सृष्टि की सबसे प्राचीनतम भाषा भी, संस्कृत के अभिवर्धन एवं विकास
से न केवल आजीविका की प्राप्ति, अपितु मानव का आध्यात्मिक, चारित्रिक, नैतिक,
पारिवारिक सर्वविध विकास भी होता है.
          मानव जीवन में नैतिक मूल्यों की अवधारणा उसी प्रकार अनूभूत होती है,
जिस प्रकार उदर के लिए भोजन की. नैतिक मूल्यों से ही मानव अपनी सभ्यता का
परिचय देता है, और नैतिक मूल्यों एवं सभ्यता की कल्पना संस्कृत को आत्मसात्
किए बिना सम्भव नहीं है. इसी क्रम में जब गत मास में केन्द्र सरकार ने केन्द्रीय
विद्यालयों में जर्मन के स्थान पर संस्कृत को पढ़ाने का आदेश किया तो देश के कुछ
तथाकथित धर्मनिरपेक्ष बन्धुओं ने इस संवृद्ध भाषा का अपने राजनीतिक व्यक्तिगत निहित
स्वार्थों के लिए विरोध करना ही उचित समझा, साथ ही इन्होंने अगस्त 2014 में
संस्कृत सप्ताह के आयोजन का भी विरोध किया था, लेकिन अन्ततः संस्कृत की
अनिवार्यता पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपनी पूर्ण सहमति आदेशित कर दी. साथ
ही स्पष्ट भी कर दिया कि देश की सभ्यता, संस्कृति, परम्परा की रक्षा के लिए तथा
सस्कृत वाङमय में निहित ज्ञान, विज्ञान को जानने के लिए संस्कृत भाषा आवश्यकीय
है. इसी सम्बन्ध में सन् 1994 में भी सर्वोच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा था- सर्वोच्च
न्यायालय के न्यायाधीश दवे ने तो यहाँ तक कह दिया कि मेरे बच्चे यदि संस्कृत का अध्ययन करें तो मुझे प्रचुर हर्ष की अनुभूति होगी, इन्होंने ही कुछ महीने पहले एक व्यक्तिगत समारोह में संस्कृत वाङमय की अमूल्य विरासत श्रीमद्भगवद्गीता को अनिवार्य रूप से पढ़ाने की भी वकालत की थी.
        यह भी अवधेय का विषय है कि भाषा न केवल अक्षर ज्ञान तथा अभिव्यक्ति का
साधन मात्र है अपितु वह उस देश की अस्मिता की पहचान होती है, जिससे वह
देश संसार में जाना जाता है. इसी कारण संस्कृत रूपी विरासत के संरक्षण से ही
भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी सहित अन्यान्य क्षेत्रीय भाषाओं का भी संरक्षण सम्भव है,
क्योंकि सभी भारतीय भाषाओं की उत्पत्ति संस्कृत से ही हुई है, राजभाषा हिन्दी तो
संस्कृत की पुत्री के समान ही है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 351 के तहत् भी
राजभाषा हिन्दी की अभिवृद्धि के लिए संस्कृत को प्रोन्नत करना अनिवार्य बताया
है, और इस संवृद्ध देवभाषा संस्कृत के महत्व का ही प्रभाव परिलक्षित होता है कि
शिक्षा नीति निर्माताओं ने देश की दो महत्वपूर्ण शिक्षा नीतियों सन् 1968 तथा
1986 में संस्कृत को अनिवार्य रूप से रखा था राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने हिन्दुस्तान के
प्रत्येक विद्यार्थी को अनिवार्य रूप से संस्कृत पढ़ने की सलाह दी थी. भारत के प्रथम
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने मुक्त कण्ठ से संस्कृत भाषा और संस्कृत के वाङमय
को देश की विरासत से रूप में घोषित कर दिया था. इस भाषा की वैज्ञानिकता का
अध्ययन करके ही अमरीका में स्थित अन्तरिक्ष अनुसंधान संस्था नासा ने 1987
ई. में ही संस्कृत को कम्प्यूटर के लिए सर्वोत्तम भाषा घोषित कर दिया था. जिस
कारण आज उस संस्था के द्वारा संस्कृत में सतत शोध किए जा रहे हैं. पाश्चात्य भाषा
वैज्ञानिकों ने पाणिनि व्याकरण को ‘Best creation of human intelligence’ कहा
है. संस्कृत भारती के द्वारा प्रकाशित Science in Sanskrit और Pride of India नामक
दो पुस्तकों के सन्दर्भ में देश के यशस्वी भारत रत्न, महान् वैज्ञानिक तथा पूर्व राष्ट्रपति
डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने कहा था कि यदि किसी वैज्ञानिक को समुचित रूप से
विज्ञान को जानना है तो वह इन पुस्तकों का सर्वप्रथम अध्ययन करे.
           आज देश में महिला अपराध, भ्रष्टाचार तथा आतंकवाद ये तीन समस्याएं प्रमुख रूप
से समाज को व्यथित कर रही है, लेकिन संस्कृत साहित्य का तो एक श्लोक ही इन
समस्याओं के निवारण में समर्थ है-
                     मातृवद् परदारेषु परदव्येषु लोळवतु ।
                     आत्मवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः ।।
 
      इसी प्रकार सर्वे भवन्तु सुखिनः, वसुधैव कुटुम्बकम्, असतो मा सद्गमय,
स्वस्ति पन्थामनुचरेम, सा विद्या या विमुक्तये, सत्यमेव जयते, विद्यामृतमनुष्यते
इत्यादि उदात्त भावनाएँ इस संस्कृत साहित्य में हैं, इन्हीं उदात्त भावनाओं की आज राष्ट्र
को आवश्यकता हो रही है.
        अत्यंत विषाद तब होता है जब देश के विविध राजनीतिक दलों के कुछ तथा कथित
धर्मनिरपेक्ष राजनेता अपनी वोट बैंक की राजनीति के चलते इस वैज्ञानिक तथा संवृद्ध
भाषा को एक विशेष वर्ग की भाषा मानकर विरोध करने लग जाते हैं, उनमें कुछ लोगों
का तो कहना यह भी होता है कि यह भाषा लिंक भाषा नहीं है, जबकि उनको यह भी
पता है कि यह भाषा उनके जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त कथञ्चित् युक्त है. एक समय था
कि शिक्षा का उद्देश्य विमुक्ति था, लेकिन आज हमारे उसी देश में शिक्षा का उद्देश्य
केवल उदर पूर्ति तक सीमित हो गया है. जिस ज्ञान, कला, भाषा, दर्शन के कारण यह
देश विश्वगुरु तथा सोने की चिड़िया के नाम से जाना जाता था, आज उसी के मूल
संस्कृत का विरोध करना अपनी भोजन थाली में छिद्र करने के समान प्रतीत होता है.
          वेद, उपनिषद्, ब्राह्मण, आरण्यक, वेदांग, पुराण, महाभारत, स्मृति, काव्य,
महाकाव्यों में जो ज्ञान, विज्ञान तथा सत्शिक्षा वर्णित है, उसको आज पाठ्यक्रम में अनिवार्य
रूप से सम्मिलित करके उसकी शिक्षा प्रदान करना आवश्यक हो गया है. आज सत्
शिक्षा के अभाव होने से ही व्यक्ति अपने नैतिक मूल्यों से पतित हो चुका है. वह
शिक्षा ही क्या है जो देश में रहने वाले लोगों पर देश भक्ति का भाव न जगा सके तथा
करणीय एवं अकरणीय कार्यों में भेद ज्ञापित न कर सके? आज नैतिक शिक्षा और
संस्कृत शिक्षा के अभाव में ही हमारा भारतीय समाज अपनी आध्यात्मिक अवधारणा को
धीरे-धीरे त्यागता जा रहा है, और भौतिक-वाद की ओर तेजी से अग्रसर हो रहा है,
इसी का कारण है कि यहाँ गाँवों में, शहरों में, घरों में, परिवारों में, समाज में, गली-
वीथिकाओं में, कार्यालयों में, विद्यालयों में, चिकित्सालयों में, कचहरियों में यहाँ तक कि
प्रजातन्त्र के मन्दिरों में बहुत कुछ ऐसा होने लग गया है, जो इस देश की सभ्यता,
संस्कृति के अनुकूल नहीं है. फलस्वरूप हमारा यह समाज प्रगति और आधुनिकता के नाम
पर आज धीरे-धीरे अपने सर्वतोमुखी नैतिक पतन की ओर बढ़ रहा है. आज हमारे
समाज में परिव्याप्त कुकर्मों से बचने के लिए विद्यालयीय छात्रों को सर्वप्रथम संस्कृत
शिक्षा की आवश्यकता अनुभूत हो रही है, न केवल संस्कृत की अपितु उस विषय को
पढ़ाने के लिए चरित्रवान, योग्य शिक्षकों की भी, जिससे कि छात्रों में गुणवान मानव
बनने की तथा देश भक्त बनने की जिज्ञासा, एवं संस्कार उत्पन्न हो सकें इस मूल्य प्रदात्री
संस्कृत भाषा के अध्ययन की न केवल आजीविका के लिए अनिवार्यता हो, अपितु
एक नैतिक, मूल्यपरक सच्चा देश भक्त नागरिक बनने के लिए भी अनिवार्यता हो,
जिससे कि समाज में व्याप्त कुरीतियाँ, अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार, दूर हो सके
और हमारा देश विश्व के प्रतिष्ठित देशों में स्थान प्राप्त कर विश्व का मार्गदर्शक बन
सके.स्वच्छ, संवृद्ध भारत की कल्पना करने वाले प्रत्येक भारतीय को दलगत वोट बैंक
की राजनीति से ऊपर उठकर इस भाषा के व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए सहयोग करना
होगा. केन्द्रीय विद्यालयों के सम्बन्ध में संस्कृत रूपी कलकल को बन्द करके सम्पूर्ण भारत
वर्ष में प्रत्येक सरकारी, अर्द्धसरकारी, निजी विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालयों में
मानव निर्माण रूपी अभिनव संस्कृत पाठ्यक्रम का सृजन कर अनिवार्य करना होगा, तभी एक
उत्तम भारत की कल्पना की जा सकती है.

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