शब्द और अर्थ का संबंध-संकेत-ग्रह एवं बाधक तत्त्व :

शब्द और अर्थ का संबंध-संकेत-ग्रह एवं बाधक तत्त्व :

                                  शब्द और अर्थ का संबंध-संकेत-ग्रह एवं बाधक तत्त्व :

अनादि काल से ही वैदिक मनीषियों की यह मान्यता रही है कि अनंत कोटि ब्रह्मांड-नायक परमात्मा की चेतन-अचेतनात्मक सृष्टि में जितने चराचर पदार्थ या वस्तु प्रतीयमान हो रहे हैं उनमें एक खास स्वतंत्र शक्ति विद्यमान
रहती है। जैसे-अग्नि में दाहकत्व, और सूर्य में प्रकाशत्व शक्ति है। इस शक्ति के न रहने से उस वस्तु के स्वरूप
का धारण भी असंभव है। दूसरे शब्दों में प्रत्येक वस्तु का सत्त्व उसकी गति के ही आधार पर अवलंबित है। अग्नि
में यदि दाहकत्व शक्ति न रहे तो अग्नि की सत्ता ही क्या हो सकती है ? ऐसे ही इस वाङ्मय जगत के प्रत्येक शब्द
में भी किसी एक स्वतंत्र-शक्ति का होना आवश्यक है। यदि शब्द में वह शक्ति न रहे तो जिस अर्थ के बोध के
लिये शब्द का प्रयोग या उच्चारण किया जाता है, उसका होना असंभव हो जाय । उस शब्द-शक्ति की सिद्धि के
क्या प्रमाण है ? और उसका स्वरूप और ग्राहक क्या है ?
 
हम देखतें हैं कि किसी शब्द के सुनते ही उसके अर्थ का बोध हो जाता है और किसी शब्द के अनेक बार सुनने पर भी उसके अर्थ का बोध नहीं होता। इस वैषम्य का कारण क्या है ? इससे यह प्रतीत होता है कि शब्द में कोई ऐसी शक्ति अवश्य है जिसका ज्ञान होने से उसका अर्थ-बोध हो जाता है नहीं होने से नहीं । जाहिर है शब्द का अर्थ के साथ कोई ऐसा संबंध है, जिसका ज्ञान होने पर ही उसका अर्थ-बोध होता है, अन्यथा नहीं। आचाय
ने इसी शक्ति-बोध को शब्द बोध या अर्थ बोध होने का कारण माना है।
 
शब्द, अर्थ, संबंध और बोध-ये चारों ही एक साथ की प्रक्रिया है। यहीं से शब्द-अर्थ ‘संकेत’ ग्रह की भूमिका बनती है। शब्द-संकेत-ग्रह की विशेष परिभाषा को शब्द बद्ध करना कठिन है। व्यवहार के द्बारा ही संकेत ग्रह की बात शीघ्र ही समझ में आ जाती है। बालक अनेक व्यक्तियों को बोलते और व्यवहार में लाते हुए अक्षरों को देखता है। तब वह स्वयं ही संभवतः विभिन्न शब्दों के अर्थ समझ लेता है। बालक के शब्द-ग्रहण की प्रक्रिया के द्वारा संकेत-ज्ञान की बात स्वयं ही स्पष्ट हो जाती है । एक वयस्क व्यक्ति कहता है-‘गाय लाओ दूसरा उसकी आज्ञा के अनुसार गाय नामक पशु को ले आता है। बालक उसकी इस क्रिया से गाय शब्द का अर्थ संकेत द्वारा ग्रहण कर लेता है। यही वस्तुत: संकेत-ग्रह कहलाता है। पहले बालक व्यवहार द्वारा पूरे वाक्य का अर्थ ग्रहण करता है, फिर धीरे-धीरे अलग-अलग शब्द का अर्थ समझता है। उससे उसे ज्ञान हो जाता है कि किस शब्द का किस अर्थ में संकेत है।
 
          संकेत के ग्राहक:
 
संकेत के सात ग्राहक माने जाते हैं। व्यवहार से बड़े-बुजुर्ग बालक को व्यवहार द्वारा कई शब्द समझा देते
हैं जिन्हें वह ग्रहण कर लेता है। बालक व्यवहार के द्वारा बड़ी शीघ्रता से शब्दों को सीखता है। आप्त पुरुषों के
संकेत से भी बच्चा कई शब्दों को पकड़ता है। जैसे बड़े-बुजर्ग कहते हैं-यह पुस्तक है, और पुस्तक उठाकर बच्चे
को दिखाता है । बच्चा उसको देखकर झट समझ जाता है कि अमुक आकार वाली वस्तु पुस्तक कहलाती है । बच्चा
व्याकरण से भी अर्थ का संकेत ग्रहण करता है। वह अनेक शब्दों को और अनेक शब्दों के वाक्यों को सहज ही
समझने लगता है।
 
इसके बाद का संकेत-ग्रह उपमान है। बच्चा उपमान से विभिन्न प्रकार की कल्पनाएँ कर लेता है । वह गाय
को पहचानता है और ‘गाय’ शब्द को सुनकर वह गाय जैसे एक पशु की कल्पना स्वयं ही कर लेता हैं। इसी प्रकार
मनुष्य का अर्थ समझकर देव, किन्नर, गंधर्व आदि देवताओं की योनियों की कल्पना स्वयं उपमान द्वारा ही कर लेता
है। एक ‘देव’ शब्द से वह अनेक शब्द अजर, अमर तथा मनुष्य से मानव; नर आदि कई पर्यायवाची शब्दों को सीख
लेता है। यदि बालक को इसमें किसी प्रकार का संदेह रह जाता है तो वाक्य शेष द्वारा संकेत या निर्णय करता है।
गंगा या जमुना दोनों शब्द नदी और लड़की दोनों के लिये उपयुक्त हो सकते हैं, परंतु जब तक वाक्य में इनका प्रयोग
नहीं होगा, तब तक अर्थ विभिन्नता का ज्ञान होना कठिन है । ‘गंगा की धारा वेगवती है’ से ‘गंगा’ शब्द नदी का
बोध कराता है परंतु ‘गंगा’ पाठशाला जा रही से गंगा शब्द एक लड़की का अर्थ देता है । इस प्रकार वाक्य शेष
से संकेत ग्रहण हो सकता है। ‘यव’ का अर्थ ‘जव’ भी होता है और कंगुनी का चावल भी। आर्य लोगों के प्रसंग
में ‘यव’ का अर्थ ‘जव’ भी होता है और म्लेच्छ लोग ‘यव’ से कंगुनी का चावल ही समझते हैं।
 
कुछ शब्द समझे हुए शब्दों के साथ आने से अनायास ही समझ में आ जाते हैं। सिद्ध पदों की सन्निधि से
भी बालक बहुत-सा संकेत प्राप्त कर लेता है । जैसे ‘मधुप’ कमल पर मंडरा रहे हैं। इस वाक्य से पाठक मधुप शब्द
का अर्थ सहजता से ही लगा लेगा। ‘वसन्ते पिका कूजति’ से पिक: का अर्थ स्वत: ही स्पष्ट है। इतने पर भी जो
शब्द समझ में नहीं आता उसे स्पष्ट करने के लिय विवृत संकेत-ग्रह का आश्रय लिया जाता है। विवृति का अर्थ
होता है किसी को खोलना । शब्द को खोलने से अर्थ उसकी व्याख्या करने से है। व्याख्या देशी-विदेशी सभी
काओं के शब्दों को स्पष्ट कर देती है। यदि बालक ‘रसाल’ का अर्थ नहीं समझता तो शिक्षक या तो रसाल का
रंग-रूप बताकर उसकी व्याख्या करता हुआ स्पष्ट करता है अथवा ‘रसाल’ का ऐसा पर्यायवाली शब्द बतलाता है
जी विद्यार्थी को पहले ही से ज्ञात होता है। उसकी भाषा में या दूसरी परिचित भाषा में अनुवाद करने-समझने का
नाम ही निवृत्ति है।
 
यदि हम ध्यान से देखें तो पता चलता है कि सभी संकेत-ग्रह व्यवहार में ही अंतर्भूत हो जाते हैं। बालक
व्यवहार से भी शब्द सीख सकता है, परंतु इतने थोड़े वर्षों की आयु में संसार की समस्त वस्तुओं को सीखना अत्यंत
कठिन है। अत: वही उपाय काम में लाया जाता है, जिससे अधिक से अधिक शब्दों को कम-से-कम समय में सीखा
जा सके। कोश, व्याकरण, आद्रोपदेश, वाक्यशेष, विवृत्ति, सन्निधि, और उपमान आदि ये सात संकेत-ग्रह हैं। परंतु
इन सबमें से व्यवहार के द्वारा हम अधिक शब्दों को कम समय में सीखते हैं। अतः यह सभी संकेत-ग्रहों का
शिरोमणि माना जाता है।
 
संकेत का स्वरूप-संकेत का क्या स्वरूप होता है ? या संकेत किसे कहते हैं ? इस शब्द से इस अर्थ का
बोध होना चाहिये । अर्थात् इस अर्थ के लिये इस शब्द का प्रयोग होना चाहिये। यह सब जानने के लिये समय की
आवश्यकता होती है। इस संकेत का ज्ञान प्रायः व्यवहार से होता है। अन्य संकेत-ग्रह रूपांतर मात्र हैं। शब्द की
शक्ति का ग्राहक नित्य है परंतु उस शक्ति का ग्राहक संकेत का ज्ञान सर्वथा अनित्य है । शब्द तो शताब्दियों से चला
आता है और न जाने कितनी शताब्दियों तक चलता रहेगा, परंतु संकेत निर्धारित करना तो प्रयोक्ता के ही हाथ में हैं।
शब्द सदा ही किसी-न-किसी रूप में रहता ही है। जब लोग शब्द में जैसा अर्थ बना लेते हैं उसका वैसा ही अर्थ
प्रतीत होने लगता है। प्रत्येक शब्द का अर्थ कहीं-न-कहीं उलझा रहता है। जब शब्द उसका संकेत देता है तब वह
अर्थ भी प्रकाश में आ जाता है जिससे शब्द विशेष का अर्थबोध होने लगता है।
 
अर्थ-बोध वास्तव में होता है शब्द-शक्ति के ज्ञान से। परंतु संकेत ही उस संबंध का परिचायक होता है।
अतः संकेत का महत्त्व पहले आँखों के सामने आता है। फलतः संकेत ग्रह अर्थबोध का सहकारी कारण होता है
 
इस प्रकार भी मीमांसकों के कथनानुसार लोगों की इच्छा से ही संकेत बनता है और लोक-व्यवहार से
संकेत-ग्रह होता है। संकेत द्वारा शक्ति-ग्रह होता है और शक्ति द्वारा अर्थ-ग्रह होता है, अर्थात् शब्द-बोध होता है।
परंतु इस प्रकार के अर्थ-संकेत की कई बाधक स्थितियाँ भी होती हैं । जब एक अर्थ को प्रकट करने के लिये अनेक
शब्दों का प्रयोग किया जाता है और फिर कारणवश कम कर दिये जाते हैं तब एक विशेष स्थिति पैदा हो जाती है।
इस अनेकता के कारण एकता के प्रतिपादन में कठिनाई आती है। फलतः शब्दों के अर्थ ग्रहण करने में
कठिनाई आने लगती है।
 
कभी-कभी ऐसा होता है कि धात्वर्थ के अनुसार या किसी ऐतिहासिक कारण से जो शब्द पर्यायवाची प्रतीत
होते हैं, वे ही शब्द जिस प्रक्रिया के द्वारा भिन्न अर्थ में प्रयुक्त होने लगते हैं तो निर्धारित अर्थ संकेत नहीं हो पाता।
शब्द कोई भी हो जब वह एकार्थवाची रहता है तभी संकेत-ग्रह कार्य करता है वरना अर्थ-बोध में व्यवधान उपस्थित होता है।
 
मानवीय विचार और संस्कार की प्रगति के कारण अर्थ-भेद की प्रवृत्ति भी बढ़ती जाती है। एक ही शब्द का
समानार्थी शब्द प्रारंभ में सामान्य प्रतीत होता है परंतु विकसित होते-होते उन सामान्य शब्दों में भी विशिष्टता आ जाती।
है। सभ्य होते जाते मानव में अर्थ-भेद बढ़ता जाता है और तभी निर्धारित-से लगने वाले संकेत-ग्रह में व्यवधान
निश्चित रूपेण आएगा। नैयायिकों का मानना है कि पित्रादिकृत संकेत स्थल में वास्तविक शक्ति-वृत्ति से अर्थ का
बोध नहीं होता बल्कि पाणिनिकृत नदी, वृद्धि, गुण आदि संज्ञाओं के समान आधुनिक संकेतों को पारिभाषिक ही माना
गया है। कुछ लोग तो इसलिये आधुनिक संकेत में लक्षण-वृत्ति से ही अर्थ का बोध मान लेते हैं । गदाधर भट्टाचार्य
ने संकेतों लक्षणा चार्थे पद वृतिः, कहकर अर्थनिरूपित पदनिष्ठ वृत्ति को संकेत और लक्षण शब्द से व्यवहत किया
है।
 
बहुत-से शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं, ऐसे नानार्थक शब्दों में जहाँ संदेह होता है या अर्थ-प्राप्ति में व्यवधान
होता है, तो उसके लिये संयोग, विप्रयोग, साहचर्य, विरोधिता अर्थ, प्रकरण, लिंग, अन्य शब्द के सन्धिान सामर्थ,
औचित्य, देश काले, व्यक्ति और स्वर आदि ये ही शब्दार्थ के संदेह होने पर विशेष अर्थ के निर्णायक होते हैं । भर्तृहरि
ने इसीलिये अपने ‘वाक्यपदीय’ में लिखा है :
 
                           संयोगो विप्रयोगश्च साहचर्य विरोधिता ।
 
                           अर्थः प्रकरणं लिंग शब्दस्यान्यस्य सन्निधिः ।।
 
                           सामर्थ्यमौचिती देशः कालो व्यक्तिः स्वराद्यः ।
 
                            शब्दार्थस्या हुन वच्छेदे विशेषस्मृतिहेवतः ।।

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