अठारहवीं सदी के यूरोप में कुछ लोगों को क्यों ऐसा लगता था कि मुद्रण संस्कृति से निरंकुशता का अन्त, और ज्ञानोदय होगा?

अठारहवीं सदी के यूरोप में कुछ लोगों को क्यों ऐसा लगता था कि मुद्रण संस्कृति से निरंकुशता का अन्त, और ज्ञानोदय होगा?

उत्तर: अठारहवीं सदी के मध्य तक यह आम विश्वास बन चुका था कि किताबों के जरिए प्रगति और ज्ञानोदय होता है। लोगों का मानना था कि वे निरंकुशवाद और राजसत्ता से समाज को मुक्ति दिलाकर ऐसा दौर लायेंगे जब विवेक और बुद्धि का राज होगा। अठारहवीं सदी में फ्रांस के एक उपन्यासकार लुई सेबेस्तिए मर्सिए ने घोषणा की, “छापाखाना प्रगति का सबसे बड़ा ताकतवर औजार है, इससे बन रही जनमत की आँधी में निरंकुशवाद उड़ जाएगा।”

मर्सिए के उपन्यासों में नायक सामान्यतया किताबें पढ़ने में बदल जाते हैं। वे किताबें घोंटते हैं, किताबों की दुनिया में जीते हैं और इसी क्रम में ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। ज्ञानोदय को लाने और निरंकुशवाद के आधार को नष्ट करने में छापेखाने की भूमिका के बारे में आश्वस्त मर्सिए ने कहा, “हे निरंकुशवादी शासक, अब तुम्हारे काँपने का वक्त आ गया है! आभासी लेखक की कलम के जोर के आगे तुम हिल उठोगे!”

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