कुंठित मन से उपजै रोग
कुंठित मन से उपजै रोग
कुंठित मन से उपजै रोग
कुंठाएं कोई नया शब्द नहीं है, किन्तु आज की जिन्दगी में यह बहुत प्रचलित शब्द
है. जिसे देखो वह अपनी कुंठाओं के साथ बेचैन है. कोई अपनी कुंठाओं से व्यग्र होकर
रो-पीट रहा है, तो कोई रुला रहा है. कोई अकेलेपन से कुंठित है, तो कोई अनचाहे
साथी लोगों से दुःखी होकर कुंठित है. प्रभु महावीर ने अपने समय में इस कुंठा को
आर्त्तध्यान शब्द से परिभाषित किया है. प्रभु महावीर कहते हैं कि आर्त्तध्यानी जीव
निरंतर आत्मघाती हो रहे हैं, क्योंकि आर्त्तध्यान प्राणातिपात करवाता है. जीव
दुःखी व बेचैन रहकेर स्व पर प्राणों को कष्ट उपजाता है. जितने भी मनोकायिक
रोग हैं, वे प्रायः आर्त्तध्यान की ही उपज है. घर-घर में ऐसे रोगी हैं जिनकी बीमारियों
का उपचार चिकित्सा विज्ञान के बूते से बाहर है. बीमारियाँ मात्र शारीरिक हो तो
शायद चिकित्सक ठीक कर भी दें, किन्तु कुंठाओं से उत्पन्न मानसिक बीमारियाँ दवाई
या वैद्योपचार से ठीक नहीं हो सकती हैं. जैसेकि नाराजगी, चिड़चिड़ापन, सब पर
अविश्वास, हर बात में शंका व चिंता, हरेक को ताना मारना, बात-बात में रूठना व
झगड़ा करना, पुरानी यादों में भटकना, जिस साथी ने साथ छोड़ दिया उसको
बेवफा साबित करने की व दिन-रात उसे बदुआएं देने की आदत, घर वालों के
अनुशासन पर झल्लाहट, अपने परिवार को कोसना, उनकी कमियों का रिकॉर्ड रखकर
उन्हें कटु वचनों से घायल करते रहना, हर किसी को गलत व स्वयं को श्रेष्ठ साबित
करने की चाहत, बात-बात पर खुद को भोला, सरल कहना व अन्यों को चालाक,
बेईमान, धोखेबाज कहकर कलंकित करते रहना, मन के क्रोध को दबाकर रखना व
फिर एक साथ विस्फोट करना ये सब प्रायः पाई जाने वाली कुंठाजनक बीमारियाँ हैं.
इनका उपचार यद्यपि हर घर परिवार में जो अनुभवी व समझदार लोग हैं, वे करते रहते
हैं और तब ही परिवाररूपी संस्था सुचारू ढंग से चलती है. अक्सर हर परिवार में
कोई-न-कोई कुंठाग्रस्त मानसिक रोगी मिल ही जाता है. एकाध नादान व्यक्ति पूरे घर
परिवार की सुख-शांति के सरोवर में समय समय पर अपने वाणी व्यवहार की विषमता
से पत्थर उछालता रहता है इन कुंठाओं से मुक्ति पाना जहाँ व्यक्तिगत जीवन स्तर को
सुखी बनाने के लिए नितांत जरूरी है वहीं पारिवारिक व सामाजिक जीवन के लिए भी
इस बात की अत्यधिक आवश्यकता है.
‘स्वाध्याय’ शब्द का सही अर्थों में प्रयुक्त किया जाए, तो यह शब्द स्वयं के
अध्ययन की बात करता है जिसको स्वयं का अध्ययन करना आता है वही व्यक्ति
अपने मानस पटों को खोल पाएगा. अपनी सोच को समय-समय पर बदलने के लिए
दो बातें ध्यान में लें-
1. एक, जब कभी लगने लगे कि वातावरण के प्रभाव मन को दुःखी, क्लांत व चिंतित बना
रहे हैं, तो तुरन्त अपने मन का अध्ययन करो, उसमें बनी हुई पूर्व-धारणात्मक वृत्तियों का
निष्पक्ष भाव से अवलोकन करो और फिर मन को दक्ष बनाओ ताकि प्रतिक्रियात्मक वृत्तियाँ
मन को आक्रामक, बोझिल व अशांत न बना सकें.
उदाहरण के तौर पर आपका बेटा या बहू, पति या पत्नी, बॉस या कर्मचारी,
आज आप पर गुस्सा निकाल रहे हैं, आपको भली बुरी सुना रहे हैं, ऐसे क्षणों में आप उनका
दोष देखने की बजाय इन सारी बातों को उनकी कुठाएं समझो, जो वे आप पर निकाल
कर हल्के हो जाना चाहते हैं. स्वयं इन कुंठाओं को ग्रहण करके कुंठित मत बनो वरन् आत्म
विश्लेषण करो कि आपकी सोच, वचन और शैली में ऐसी क्या त्रुटि रही कि आपको इस तरह
के व्यवहार से रूबरू होना पड़ रहा है. इतना अध्ययन करने में दक्ष बन जाओ, तो फिर कुठाओं
की आपके जीवन में कोई भूमिका नहीं रहेगी.
2. हर कोई इतना बौद्धिक विश्लेषण कर पाने में सक्षम नहीं हो पाता, न ही हर किसी में
मानसिक व भावनात्मक परिपक्वता ही होती है.
बौद्ध ग्रंथों व कथाओं में एक दृष्टान्त आता है, जो हमें कुण्ठा मुक्त होने की एक कला
सिखाता है. बात उस समय की है जब एक बार गौतम बुद्ध अपने किसी शिष्य भिक्षु के
पारिवारिक गाँव में विचरण करते हुए पहुँचे. उस भिक्षु के पूर्व गृहस्थ से सम्बन्धित सभी सदस्य
उस समय महात्मा बुद्ध के प्रवचन सुनने आते, किन्तु उसकी एक सगी बहन, जो इसी गाँव में
रहती थी, वह कभी नहीं आई. जब उस भिक्षु ने घर के अन्य सदस्यों से पूछा कि वह बहन कैसी
है ? क्या वो रुग्ण है ? वह क्यों प्रवचन सुनने नहीं आती? तब किसी पूर्व परिचित
रिश्तेदार ने बताया कि उसके चेहरे पर कील मुहाँसे कुछ इस कदर निकल आए हैं।
कि उसे किसी के भी सामने आने में लज्जा महसूस होती है. उसे चर्म रोग हो गया है.
जब यह बात गौतम बुद्ध ने सुनी, तो उन्होंने इस सम्बन्धी को कहा कि तुम उसे कहना
कि महात्मा बुद्ध ने उसे बुलवाया है. सांझ होने लगी, जब कोई उसे देख न पाए ऐसे
समय में वह बहन गौतम बुद्ध के चरणों में प्रणाम करने पहुँची. उसे देखकर गौतम बुद्ध
ने कहा कि कल से सारे भिक्षु संघ के लिए व आगन्तुक दर्शनार्थी लोगों के लिए भोजन
व्यवस्था का भार तुम्हें सँभालना होगा. अब उस बहन का पूरा-पूरा दिन सबके लिए
भोजन बनाने में ही बीत जाता. कब दिन उगता कब सूरज ढलता, उसे कुछ पता
नहीं, जितने दिन भिक्षु संघ उसके गाँव में रहा वो बहन अपनी सुध-बुध खोकर सेवा में
लगी रहती रात थक कर चूर हो जाती तब सो जाती, सुबह होते ही काम पर लग
जाती. सैकड़ों लोगों के लिए भोजन पकाने में उसने अपने आपको इस भाँति समर्पित
कर दिया कि वो स्वयं के रोग को भूल ही गई.
आज भिक्षु संघ गाँव से विदा हो रहा था. गौतम बुद्ध ने गाँव से विदा लेने के पूर्व
उस बहन को बुलवाया वो बहन, जब गौतम बुद्ध को प्रणाम कर उठी तो वह
भिक्षु, जिसकी वो सांसारिक बहन थी. यह देखकर चकित हो गया कि अरे उसका चर्म
रोग पूरी तरह दूर हो चुका है. उसका चेहरा कील मुहाँसों से व उसके दागों से एकदम
मुक्त था. ये कैसे घटित हुआ. वह बहन भी अपने आपको देखकर चकित थी. आज
इतने दिनों बाद उसने स्वयं को पूर्ण स्वस्थ, निरोग देह वाला देखा था. गौतम बुद्ध से
उसका कारण पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि इसने स्वयं के बारे में सोचना छोड़
दिया था, इतने भिक्षुओं की भोजन व्यवस्था जुटाने में उसे फुर्सत ही नहीं मिली कि वह
अपने आपको देखे या कुछ अन्यथा सोचे इसी कारण यह रोग दूर हो गया. इसका
रोग ‘स्व-केन्द्रित सोच की वजह से ज्यादा था. जब उसने खुद को भुला दिया, तो रोग
भी चला गया. उसका रोग मानसिक ज्यादा था, शारीरिक कम वह अपने आपको
सोचती रहती थी, इसीलिए बीमार थी.
अगर एक कुंठित व्यक्ति खुद को ही सोचता रहे, तो उसकी कुठाएं बढ़ती रहेंगी.
किसी सृजनात्मक कार्य में खुद को जुटा देने वाला मानसिक बीमारियों से शीघ्र मुक्ति
पा लेता है. रचनात्मक प्रतिभा का विकास विश्राम के क्षणों में होता रहे, तो एक इंसान
का व्यक्तित्व बेहतर बनता जाएगा.
॥ जय हो ।
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