क्रोध प्रीति का नाश करता है
क्रोध प्रीति का नाश करता है
क्रोध प्रीति का नाश करता है
“आप अपने क्रोध के लिए दण्डित नहीं किए जाते, आप अपने क्रोध से ही
दण्डित किए जाते हैं.”
‘क्रोध’ एक मानसिक व भावनात्मक आवेग है, जो चित्त के असन्तुलन से प्रगट
होता है और कई बार वाणी व शरीर से अभिव्यक्त होता हुआ, हदें पार कर जाता है
व अन्य लोगों की देह व मन की शान्ति को भी नष्ट कर डालता है. क्रोध आवेग के क्षणों
में धैर्य खो चुका व्यक्ति अकरणीय कर डालता है, फिर पछताता भी है, किन्तु तब
तक पानी सिर के ऊपर से बह चुका होता है, खेत को चिड़िया चुग चुकी होती है. एक
युवक ने ऐसे ही पछतावे के गम को अपने मन से हटाने की इच्छा से किसी फकीर के
समक्ष अपने क्रोध की चर्चा की. अपने दोषों की आलोचना की. वह बोला कि मैं गुस्से के
आवेश में अपने मित्रों को बहुत भला-बुरा कह आया. मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था,
किन्तु वे खुद पर काबू नहीं कर सके. मैंने अपने मन की भड़ास निकाल तो दी, किन्तु
अब मेरे मन में बहुत बोझ है. मैं इस बोझे से मुक्त होने के लिए आपके पास आया हूँ.
आप मुझे शान्ति का दान दो. आप मेरे दोषों से मुझे मुक्त होने में मदद करो. वह फकीर
बोला कि “ऐसा करो कि तुम यहाँ कुछ पंख इकट्ठे करके ले आओ, जब तुम पंखों को
ले आआगे तब ही मैं तुम्हारे लिए कुछ कर पाऊँगा ” वह युवक बाजार में गया. सड़कों
पर बिखरे हुए पक्षियों के पंखों को इकट्ठे करके लाया, उसे बहुत समय लगा, अनेक
रास्तों से गुजरने व खोजने पर उसे मुट्ठी भर पंख मिल पाए. जब वह पंखों को लेकर
फकीर के समक्ष पहुँचा तो उसे इस बात का सुकून था कि अब शायद में अपने क्रोध
में हुए दुष्कृत्यों से व उसके परिणामों से मुक्त हो जाऊँगा, किन्तु फकीर ने उसके
हाथ में रखे हुए पंखों को लेकर पुनः उसी के हाथ में थमाते हुए कहा कि अब तुम इन
पंखों को जहाँ जहाँ से लाए थे, इन्हें वापस वहीं छोड़ आओ. उस युवक ने कहा ये तो
असम्भव है. जिन-जिन मार्गों, गली, कूचों से मैं इन्हें इकट्ठा कर पाया हूँ. उन सबकी अब
मुझे स्मृति भी नहीं है, कहाँ-कहाँ से व कैसे मैं इन्हें ला पाया हूँ, अब पुनः वहीं छोड़ आना
मुश्किल ही नहीं असम्भव है. मैं क्या कर सकता हूँ ? और अगर इन पंखों को पुनः
वहीं छोड़ देना था, तो आपने इनको मँगवाया ही क्यों था ? क्या आप पगला गए हैं ?
फकीर हँसा खूब हँसा और वह बोला कि जैसे अपने स्थानों पर इन पंखों का वापस
छोड़ पाना असम्भव है, वैसे ही तुमने अनर्गल बोलकर, क्रोध के आवेश में अपने मित्रों व
परिजनों को जो कष्ट दे दिया है, उनके दिलों में जो दाग छोड़ दिए हैं, उनको पुनः
भर पाना भी असम्भव है उनके हृदय छलनी छलनी हो चुके हैं. इसीलिए तुम
समझो कि क्रोध को नहीं करना ही इस पाप का प्रायश्चित है. क्रोध करना और फिर
माफी माँग लेना-यह सिलसिला तुम्हें छोड़ना ही होगा अन्यथा तुम जिन्दगी में अकेले रह
जाओगे याद रखो कि “कोहो पिई पणासेइ. ”
अर्थात् क्रोध प्रीति का नाश कर देता है. दोस्ती में दरार डाल देता है. रिश्तों के
उपवन में आग लगा देता है. मुँह से निकले वचनरूपी बाण लौटाए नहीं जा सकते किसी
कारणवश तुम्हारे सम्बन्धी तुम्हें क्षमा कर भी देंगे, तब भी वे ताउम्र तुम्हारे दुर्वचनों को
भुला तो नहीं पाएंगे इसीलिए अच्छा यही होगा कि तुम खुद ही खुद को बदलो क्रोध
आ जाए तब भी अपनी वाणी को नियन्त्रित करके अपने मन को सम्यक् सोच से बदलने
का अभ्यास करो मन को दोषदर्शी मन बनने दो.
अक्सर क्रोध तब ही आता है. जब हम दूसरों की कमियों व कमजोरियों को बर्दाश्त
नहीं कर पाते हैं. हम औरों की गलतियों पर क्रोध करके स्वयं को उनकी भूलों की सजा
दे रहे होते हैं. क्रोध का ज़हर अगर भीतर-ही-भीतर दबाया गया, तो खुद को जहरीला
बनाएगा और अगर इसे किसी अन्य पर उगला गया, तो यह जहर दूसरों को हानि
पहुँचाएगा. अतः क्रोध को न दबाओ, न बाहर निकालो. यह घुटे तब भी बुरा व फूटे तब भी
बुरा मन ही मन घुटन मत बनाओ अपने क्रोध को समझो समझो, इसे कि यह पैदा
ही क्यों होता है ?
समण भगवान महावीर कहते हैं कि-
“बुञ्झ ! बुञ्झ ! समझो ! समझो ! यह क्रोध, अहंकार, अधैर्य व दोषदर्शिता का
दुष्परिणाम है. इसे अपने भीतर पनपने का अवसर ही मत दो. इसे असत्य करो.
‘कोहं असच्च कुव्विज्जा ।”
अर्थात् अपने क्रोध को असत्य करो और अपने मान को, अभिमान को दूर हटाओ.
अपने से सम्बन्धित सभी परिजनों के गुणों को देखो गुणग्राही दृष्टि विनय लाएगी.
विनम्र इंसान प्रेम व आदर देना जानता है विनम्र इंसान लचीला होता है. लचीलेपन में
अकड़, आग्रह व दम्भ नहीं होगा, जिससे क्रोध का बीज ही निर्वीर्य हो जाएगा.
खुद को बदले बिना वातावरण को दोष देकर उत्तेजित होने का बहाना बनाने वाला
क्रोधी जिन्दगी भर न खुद को प्रेम व क्षमा दे पाएगा, न किसी अन्य को अपने गुस्से के
लिए दूसरों को दोष देना बन्द करके आत्म-निरीक्षण करेंगे, तो खुद ही समझ पाएंगे कि
यह पैदा क्यों होता है ? क्रोध के कारणों को जानकर उनका निराकरण कर देने वाला ही
अपने क्रोध से सदा के लिए मुक्त हो पाएगा.
क्रोध एक ज्वाला की भाँति है जो दूसरों को भस्म करने से पूर्व स्वयं को ही भस्म कर
देती है, जिस प्रकार अग्नि अथवा ज्वाला को शान्त करने के लिए उस पर पानी या मिट्टी
डाली जाती है. उसी प्रकार क्रोध को शान्त करने का सर्वोत्तम उपाय ऐसे व्यक्ति या
व्यक्तियों को क्षमा करना है जिनसे हम रुष्ट हैं जिन्हें सबक सिखाने, डराने, धमकाने के
लिए हम क्रोधित होते हैं, यदि ऐसे लोगों को क्षमा करने की शक्ति विकसित कर ली जाए,
तो मन अतुलनीय ऊर्जा से भर जाता है. जब आप क्रोधित होते हैं, तो आप उस व्यक्ति
का अहित नहीं करते जिस पर क्रोधित हो रहे हैं, बल्कि इससे आप स्वयं ही आहत होते
हैं. शारीरिक रूप से भी मानसिक रूप से भी और आध्यात्मिक रूप से किसी क्रोधित
व्यक्ति को देखिए उसकी माँसपेशियाँ तनी हुई होंगी, वह ऊँची आवाज में चीख रहा
होगा, उसके हृदय की धड़कन बढ़ चुकी होगी, रक्तचाप बढ़ा हुआ होगा. क्रोध से
व्यक्तियों को मस्तिष्क आघात पक्षाघात का शिकार होते हुए भी देखा गया है.
“आप अपने क्रोध को इतना अधिक महँगा कि कोई इसे वहन ही न कर सके.
अपनी प्रसन्नता और प्रेम को इतना सस्ता बना दीजिए कि प्रत्येक को ये निःशुल्क एवं
भरपूर मात्रा में मिले. “
ध्यान रखें, “क्रोध आपका सबसे बड़ा शत्रु है, इसे नियन्त्रण में रखिए.”
इस क्षणभर की अग्नि से पैदा होने वाले भयंकर दुष्परिणामों को जानकर जो
समझदारी से खुद को बदल देगा वह सबके लिए प्रेम विश्वास व आदर का पात्र बन
पाएगा. जय हो.
सबका कल्याण हो.
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