जाति प्रथा का प्रजातंत्रीकरण
जाति प्रथा का प्रजातंत्रीकरण
जाति प्रथा का प्रजातंत्रीकरण
“जाति प्रथा की आबद्ध समाज में सामुदायिक भावना सीमित होती है और
वह समग्र समाज द्वारा न होकर एक समुदाय विशेष, मात्र जाति के सदस्यों के
प्रति सीमित रहती है इसके द्वारा अपनी जाति के प्रति उस जाति विशेष के सदस्यों
का कर्तव्य बोध होता है. इस कर्त्तव्य-बोध के साथ कतिपय नियम जुड़े रहते हैं. यह
बोध उन्हें अपने पद और निर्धारित कार्यों के प्रति दृढ़ बनाए रखता है. यदि कोई
इसका उल्लंघन करता है, तो उसकी निन्दा की जाती है. कभी उसको जाति बहिष्कृत
भी कर दिया जाता है.”
ऋग्वेद में प्रचलित वर्ण व्यवस्था से ही जाति प्रथा का सूत्रपात हुआ. वर्ण व्यवस्था
के बाद धीरे-धीरे कई प्रकार की जातियाँ व उपजातियाँ बनती गई शिक्षा के विस्तार,
औद्योगिकीकरण व अन्य विकास की सहायता से जाति व्यवस्था के मूल स्वरूप में काफी
बदलाव हुआ है, जहाँ एक ओर कई जातियों का निर्माण हुआ है वहीं दूसरी ओर जाति
प्रथा का प्रजातंत्रीकरण भी हुआ है जाति प्रथा के प्रजातंत्रीकरण के परिणामस्वरूप ही
आज तरह-तरह के जातीय संगठन देखे जा सकते हैं. आजादी के बाद तो यह भी
अनुभव किया गया है कि जाति प्रथा के प्रजातंत्रीकरण के सहारे राजनीतिक दलों में
भिन्न-भिन्न जाति समूह निर्मित होकर फल-फूल रहे हैं. जांति के आधार पर राजनीतिक
दलों के भीतर गुटों का निर्माण हो रहा है और इसी आधार पर अलग-अलग दल भी
बनाए जा रहे हैं. जातिगत चेतना का विकास दबाव समूह के रूप में सामने आ रहा था.
प्राचीनकाल में सामाजिक कल्याण, उपयोगिता तथा आवश्यकता के आधार पर
श्रम विभाजन को ध्यान में रखते हुए मनुष्य ने गुण तथा कर्म के अनुसार वर्ण व्यवस्था
को निर्मित किया था. वर्ण व्यवस्था का विकृत रूप परिवर्तित हो गया और उसने जाति
व्यवस्था अथवा जाति प्रथा का रूप धारण कर लिया. अलग-अलग काम की आवश्यकताओं
के चलते धीरे-धीरे अनेक जातियाँ और उप जातियाँ बनती चली गई. इसके चलते ही
एक तरफ ऊँच-नीच व छुआछूत जैसी भावनाएँ पल्लवित हुई तथा साथ ही प्रजातंत्र
से प्रभावित होकर कई अलग-अलग जातियों के संगठन तैयार हुए. इसमें कोई संदेह नहीं
कि जाति प्रथा के कारण ही प्राचीन समय में ऊँच-नीच की भावना की वजह से ही समाज में
छुआ-छूत की परम्परा को बढ़ावा मिला था. इस कुप्रथा के चलते लम्बे समय तक हमारे समाज
का नैतिक हनन होता रहा. हिन्दू धर्म में तो इस तरह की समस्याओं से जूझते हुए कई शूद्र अथवा हरिजनों ने तो अपने सम्मानपूर्वक जीवन की खोज में अपना हिन्दू धर्म त्यागकर इस्लाम, इसाई व बौद्ध
धर्म अपना लिया. यह सिलसिला तो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आसानी से देखा जा सकता है.
वास्तव में यह सम्पूर्ण भारतीय समाज के लिए एक चिन्ता का विषय है.
जब हमारा देश परतंत्रता के चंगुल से बाहर निकलकर आजाद हुआ तो उसके
उपरान्त प्रजातांत्रिक राजव्यवस्था तथा सामाजिक न्याय पर आधारित भारतीय
संविधान के साथ आधुनिक तार्किक शिक्षा ने जाति के परम्परागत ढाँचे में परिवर्तन
किया है. जाति के धार्मिक आधारित विश्लेषण में बखूबी कमी देखी जा सकती है. अब तो
खान-पान सम्बन्धी निषेधात्मक नियम विशेष महत्व नहीं रहा है. सेवा क्षेत्र में हुई
अभूतपूर्व तरक्की ने परम्परागत सेवा वर्ग की धारणाओं को बदलकर रख दिया है,
जाति पंचायत की प्रथाएं भी धीरे-धीरे समाप्त हो रही हैं तथा अस्पृश्यता की भावना भी
कमजोर पड़ चुकी है. स्वतंत्रता के उपरान्त राष्ट्रीय नेतृत्व ने भारत को एक ऐसे आदर्श
राज्य के रूप में देखने का प्रयास किया, जहाँ जाति, धर्म, पंथ, क्षेत्र आदि के आधार
पर भेदभाव न होकर समानता हो. इन विचारों का संगुफन भारतीय संविधान से देखा गया,
जो भारत को एक प्रभुसत्तासम्पन्न, समाजवादी, पंथ-निरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य
के रूप में घोषित करता है.
यह सर्वविदित है कि सदियों से भारतीय समाज जाति व्यवस्था पर आधारित
है. जाति व्यवस्था बन्द स्तरीकरण की एक विशिष्ट व्यवस्था है, जो भारत में पाई जाती है.
प्रजातन्त्र का आधार जहाँ समानता है वहीं जाति व्यवस्था आधार परिभाषित
असमानता है. भारतीय राजव्यवस्था में प्राचीनकाल से ही उच्च वर्ण जाति का
प्रभुत्व बना रहा है. क्षत्रिय वर्ण राजसत्ता पर आसीन हुआ करते थे और ब्राह्मण वर्ण
राजा को सलाह देने के कार्य के साथ राजकीय व्यवस्था का कार्य संचालन किया
करते थे. समय-समय पर क्षत्रियों को शक्तिशाली क्षमतावान आदि बनाने के
निमित्त ब्राह्मण यज्ञ सम्पन्न किया करता था. इस प्रकार सत्ता में भागीदारी सदियों तक
उच्च जाति के हाथों में ही सिमटी रही. स्वतन्त्रता के उपरान्त प्रजातंत्र की स्थापना
से ऐसा समझा जाने लगा कि सत्ता में समान रूप से सभी जातियों की भागीदारी
होगी. आम चुनाव में यह अनुभव किया गया कि राजनीतिक दलों का जाति समूह से
सम्बन्ध था. जाति के आधार पर राजनीतिक दलों के भीतर गुटों का निर्माण तथा दल
बनाए जा रहे थे जातिगत चेतना का विकास दबाव समूह के रूप में सामने आ
रहा था. भारत में चुनाव व्यवहार के सम्बन्ध में रजनी कोठारी ने अपनी पुस्तक ‘इण्डियन
वोटिंग बिहेवियर में बताया कि जाति, धर्म एवं नातेदारी चुनाव में महत्वपूर्ण कारक हैं.
जाति प्रथा के प्रजातंत्रीकरण की प्रक्रिया के तहत भिन्न-भिन्न जातियों के
विशाल समूह तैयार हो रहे हैं. कई बार तो इन समूहों द्वारा अपनी जाति के हित में
असम्भव माँग भी की जाती है, जोकि सरकार के लिए अनसुलझी पहेली साबित
होती है. कुछ समय पूर्व राजस्थान में गुर्जर जाति का आन्दोलन, हरियाणा में जाट जाति
का आन्दोलन व गुजरात में पाटीदारों व इस तरह के अन्य समुदायों का आरक्षण को
लेकर किए गए आन्दोलनों ने सरकार के पसीने छुड़ा दिए थे किसी ने सच कहा है
कि किसी भी देश का सर्वांगीण विकास कर्मचारियों की सुयोग्यता पर निर्भर करता है.
आधुनिक शिक्षा विशेष कर तकनीकी शिक्षा के द्वारा गतिशीलता निर्धारित होने
लगी. प्रजातंत्रीकरण के लागू होने पर परम्परागत जातीय आधार कमजोर पड़ने
लगा स्वतन्त्रता के उपरान्त आधुनिक शिक्षा विशेष कर तकनीकी शिक्षा महँगी होने के
साथ सीमित मात्रा में उपलब्ध थी, उच्च जातियों ने सर्वप्रथम इसका लाभ उठाया
और आधुनिक पद सोपानात्मक व्यवस्था में उच्च स्थिति हासिल करने में सफल रहे
अर्थात् गाँव के उच्च जाति के व्यक्ति नगरों में आकर उच्च श्रेणी के अधिकारी बने.
नौकरशाही पर नियन्त्रण किया, जबकि निम्न जाति के लोग सामान्य शिक्षा प्राप्त कर
तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी नियुक्त हुए देश में महँगे पब्लिक स्कूलों को गुणवत्ता
वाले शिक्षा केन्द्रों के रूप में देखा जाने लगा. स्वतंत्रता के तुरन्त बाद अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त
युवकों को उच्च श्रेणी सेवा में प्राथमिकता दी गई. सरकारी विद्यालय सामान्य शिक्षा
उपलब्ध कराते रहे परिणामस्वरूप प्रजातांत्रिक भारत में जातीय दूरी बनी रही
भारत में जातियों को चार वर्गों में बाँटा गया था, जो इस प्रकार है-ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य एवं शूद भारतीय समाज में शूद को निम्न वर्ग में मान्यता दी गई है फिर भी
समाज में जातिगत नीतियाँ बनाई गई हैं, जिससे समाज में एकरूपता लाई जा सके,
जो लोग निम्न जाति के हैं उन्हीं को ही आरक्षण की सुविधा प्राप्त है और जो लोग
उच्च जाति के हैं उनको आरक्षण नहीं दिया जाता है प्रजातांत्रिक भारत में आर्थिक
कारोबार और संस्थाओं ने औपनिवेशिक भाषा अंग्रेजी को अपनाया स्वतंत्रता के 70
वर्ष के बाद भी उद्योगपतियों में नाममात्र के एक या दो निम्न जाति से हैं. इसी प्रकार
औद्योगिक नौकरशाहों में भी उच्च जातियों का दबाव बना हुआ है. 12 पंचवर्षीय योजनाओं
और कई वित्तीय सुधारों में सामाजिक न्याय का संकल्प लेने के बावजूद निम्न जातियों
की आर्थिक स्थिति, उच्च जाति की तुलना में दयनीय है. आर्थिक सुधार और वैश्वीकरण
ने भी इन्हें कोई लाभ नहीं पहुँचाया. ग्रामीण एवं कृषि समाज में भी उच्च जाति के
किसान ही लाभार्थी बने रहे. निम्न जाति के लोग अपनी दिहाड़ी के लिए ही लड़ते रह
गए. इस प्रकार स्पष्ट है कि आर्थिक क्षेत्र से जातीय दूरी बनी हुई है.
स्वतंत्रता के उपरान्त राष्ट्रीय नेतृत्व का वह विश्वास था कि आने वाले दिनों में
जातीय भेदभाव समाप्त होगा. नागरिकों में प्रजातांत्रिक मूल्यों का विकास होगा. पिछड़े
भारत की राजनीति का आधार विकास कार्यक्रम होगा दुर्भाग्यवश, ऐसा नहीं हो
सका. शीघ्र ही जाति एक गुट, दबाव समूह ओर फिर राजनीतिक दल के रूप में संगठित
हुई. विधायिका में आरक्षण का मकसद सामाजिक न्याय था, परन्तु यह जाति और
तेज हो गई. रजनी कोठारी ने अपने क्षेत्र अध्ययन के उपरान्त बताया कि पहले
राजनीति में जाति का प्रयोग होता था, परन्तु शीघ्र ही जाति का राजनीतिकरण हो गया.
भारत में जाति आधारित राजनीतिक दलों का निर्माण होने लगा. राष्ट्रीय जनता दल,
मुख्य रूप से बिहार के यादवों की पार्टी बनी. तमिलनाडु में वनियार तथा पनियार ने
अपने राजनीतिक दलों का निर्माण किया. एम. एन. श्रीनिवास ने इसी सन्दर्भ में प्रभु-
जाति की अवधारणा का विकास किया. प्रत्येक राजनीतिक दल चुनाव में अपने
उम्मीदवार को उसके सामाजिक आधार पर तय करता है. चुनाव के उपरान्त सरकार
निर्माण के पश्चात् भी प्रजातांत्रिक सरकार जातिगत हित में जुड़े कार्यों को अंजाम देने
में पीछे नहीं है. वोट बैंक की राजनीति में जातीयता सशक्त होती है. ऐसी मान्यता है
कि गाँव में जाति और नगरों में वर्ग का प्रभुत्व है. नगरीकरण, आधुनिकीकरण,
औद्योगीकरण, आधुनिक शिक्षा, सामाजिक विधान आदि से जातिगत भावना कमजोर
होने की बात की जाती है, परन्तु भारतीय नगरी में वर्ग व्यवस्था के साथ-साथ जातिगत
भावना का भी विकास हो रहा है.
समाज में सभी को मुख्य धारा में लाने के लिए सबसे पहले अन्य पिछड़ी जाति,
अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लोगों को ही आरक्षण दिया गया 26 जनवरी,
1950 को लागू होने वाले इस संविधान ने कुछ बुनियादी सिद्धांत और मूल्य सामने
रखे, जिनमें से एक था सामाजिक न्याय अर्थात् जनता के कमजोर और पिछड़े वर्गों
मुख्यतया अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के शैक्षिक और सामाजिक हितों के
प्रोत्साहन के लिए उन्हें जातिगत आधार पर आरक्षण प्रदान करना संविधान के अनुच्छेद
16 में लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता प्रदान की गई है, लेकिन
सरकार द्वारा पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के नागरिकों के
लिए जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, उन्हें
नियुक्तियों या पदों के लिए जातिगत आरक्षण प्रदान किया गया है. साथ ही अनुच्छेद 330
एवं 332 में क्रमशः लोक सभा विधान सभाओं में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के
लिए स्थानों का आरक्षण दिया गया है. सामंतशाही सोच के ऐसे लोग, जो खुद को
हमेशा औरों से अलग तथा ऊपर समझते हैं और जो कभी भी सबका एक साथ विकास
होते नहीं देखना चाहते उन्होंने हमेशा ही आरक्षण को गलत बताकर इसका विरोध
किया है, लेकिन समाज के एक पक्ष का मानना है कि जातिगत व्यवस्था के आरक्षण
को समाप्त करके आर्थिक व्यवस्था को ही आधार मानकर आरक्षण दिया जाए, जिससे
भारत सरकार सभी जातियों की पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में जानकारी लेकर ही उसमें
जो लोग एकदम गरीब हैं उन्हीं को ही आरक्षण दिया जाए, जिससे भारत जैसे देश
से गरीबी मिट सके जो लोग उच्च जाति में भी गरीब हैं, उनकों भी सभी योजनाओं का
लाभ प्रदान किया जाए और आने वाला समय भी उन्नति की राह देख सके.
समाज में जातीय व्यवस्था को धीरे-धीरे परिवर्तित करके आर्थिक आधार को ही मान्यता दे दी
जाए जिससे आरक्षण का सही अर्थ साबित हो सके चाहे योजनाओं में आरक्षण हो या
प्रतियोगी परीक्षाओं की बात हो, सभी में आरक्षण पद्धति सही तरीके से लागू करके
ही समाज को विकास का रास्ता दिखाया जा सकता है आज का जो समय है उसमें
धन व्यवस्था ही एक ऐसा सफल मंत्र है, जिससे निर्धन लोगों को सही आयाम तक
पहुँचाया जा सकता है, जिससे लोगों में अमन शान्ति की व्यवस्था लागू करके
खुशियों के सागर में डूबा जा सकता है. अर्थात् सामाजिक न्याय की उचित व्यवस्था
की जा सकती है.
एक ओर जातिवाद रूपी आग की लपटें आज भी हमारे देश की तरक्की में
बाधा बनी हुई हैं. प्रत्येक क्षेत्र में जातिवादी रूपी समस्याएं हमारा पीछा कर रही हैं और
अब तो जाति रूपी प्रजातंत्र ने शासन-प्रशासन की नींद हराम कर रखी है. दूसरी
ओर जाति प्रथा का तो इतना प्रजातंत्रीकरण हो चुका है कि आज आजादी के 70 वर्ष
बीत जाने के बाद भी जब किसी चुनाव के लिए राजनीतिक पार्टियों के समक्ष पार्टी का
टिकट देने की बात आती है, तो तब सबसे पहले यही देखा जाता है कि किस जाति के
कितने वोट हैं, इसी आकलन के अनुसार उम्मीदवार का नाम तय किया जाता है और
उसी को पार्टी का टिकट देकर चुनाव मैदान में उतारा जाता है. अतः स्पष्ट है कि जाति
प्रथा व उसके प्रजातंत्रीकरण के लिए राजनीतिक दलों द्वारा अपनाई जाने वाली
वोट बैंक की राजनीति ही सबसे अधिक जिम्मेदार है.
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