जीवन को साधना समझा
जीवन को साधना समझा
जीवन को साधना समझा
शिवजी पार्वतीजी से कहते हैं-“नर तन सम नहिं कवनिउँ देही” क्या मनुष्य वास्तव में इस सृष्टि की सर्वोत्तम कृति है ? मनुष्य ही एक ऐसा जीवधारी है, जो अपना सिर ऊँचा एवं सीधा रखता है, उससे आशा की जाती है कि वह कोई ऐसा काम न करे, जिससे उसे सिर नीचा करना पड़े केवल वही एक ऐसो प्राणी है, जो खुलकर अपने हाथों का प्रयोग कर सकता है. हम किसी भी जीव को देख लें-वह हाथों से पैरों का काम लेता है, परन्तु मानव पैरों से चलताफिरता है और हाथों द्वारा जीवनोपयोगी अनेकानेक कार्य करता है. विश्व की समस्त कलाकृतियाँ मनुष्य के हाथों की ही देन हैं. ये कलाकृतियाँ सृजनहार की सृजनशीलता को सार्थक करती हैं, यदि मनुष्य न होता, तो विश्व की जिन कृतियों को हम चमत्कार अथवा आश्चर्य की संज्ञा प्रदान करते हैं, वे क्योंकर सम्भव होतीं ?
मानव के कार्यकलापों को देखकर यह सोचना स्वाभाविक है कि यह छोटा-सा जीव इतना सामर्थ्यवान क्योंकर बन सका है, जो विश्व के प्रत्येक पदार्थ को अपने लिए उपयोगी बना लेता है, यहाँ तक कि बड़ेबड़े हिंसक जीवों को भी वश में कर लेता है. हाथी सदृश विशालकाय जीव को मात्र एक इंच के अंकुश द्वारा अपने वश में करने वाले महावत की सामर्थ्य को देखकर आश्चर्यचकित हो जाना सर्वथा स्वाभाविक है. क्षुब्ध अथाह महासागर की उत्ताल लहरों को चीरते हुए जलपोत मानव की संघर्ष वृत्ति के परिचायक हैं.
मानव की सामर्थ्य के रहस्य का पता लगाने के लिए मानव ने खोज आरम्भ की. यह महत्वपूर्ण तथ्य उसके हाथ लगा कि प्रजनन और आत्मरक्षा नाम की दो मूलवृत्तियाँ प्रकृति ने, ईश्वर ने जीवमात्र को प्रदान की हैं, जीवों की समस्त ऊर्जा इन दो वृत्तियों की सन्तुष्टि में व्यय हो जाती है, परन्तु इन दोनों वृत्तियों की सन्तुष्टि के उपरान्त भी मानव के पास कुछ ऊर्जा शेष रह जाती है, उसकी यह ऊर्जा, उसकी सृजन-वृत्ति अथवा कारयित्री प्रतिभा के रूप में प्रकट होती है, प्रतिभा नामक इस वृत्ति की सन्तुष्टि द्वारा मानव नवीन अन्वेषण करता है और कला-कृतियाँ प्रस्तुत करता है. वर्षा, आतप एवं प्रकृति के प्रकोप के थपेड़े खाकर वे कलाकृतियाँ नष्ट होती रहती हैं. तब वे भविष्य के शोधकर्ताओं को शोध एवं ग्रन्थ प्रणयन की सामग्री प्रदान करती हैं. प्राचीन सभ्यताओं के जो अवरोध पृथ्वी के गर्भ में एवं समुद्र में छिपे पेड़े रहते हैं, मनुष्य अपने प्रयत्नों द्वारा उन्हें उजागर करता है और अपनी प्राचीन परम्पराओं को उजागर करता रहता है.
चट्टानों और अवशेषों के रूप में प्रकृति के क्रोड़ में जीवन के विकास की कहानी अंकित है, इसको पढ़ने की सामर्थ्य जिन्हें प्राप्त है, वे कह सकते हैं कि विकास की शत-साहस वर्षों की प्रक्रिया के उपरान्त मानव शरीर का निर्माण सम्भव हुआ है. उसका एक-एक अंग विकास की किन-किन सीढ़ियों में होकर गुजरा है, इसका पूरा लेखा प्रकृति के पृष्ठों पर अंकित है. भारतीय ज्ञानविज्ञान के मनीषियों ने इस प्रक्रिया को लक्ष्य करके कहा है कि चौरासी लाख योनियों को… भोगने के बाद मनुष्य योनि प्राप्त होती है, इस श्रेष्ठ योनि को प्राप्त करने वाला मनुष्यही इस प्रकार की परिकल्पना कर सकता है कि जीवन की मूलभूत एकता प्रकृति का एक तथ्य है. विश्वबन्धुत्व की बात करना इस तथ्य का व्यावहारिक रूप है, जो यह जानता है कि जीवमात्र का स्रोत एक ही परम तत्व है, वह यह भी मानता है कि जीवमात्र एक ही पिता की सन्तान के समान बन्धुत्व की रज्जु द्वारा परस्पर आबद्ध हैं.
चेतना- विकास या आत्म-विकास के अध्येताओं ने यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि केवल मनुष्य ही एक ऐसा जीव है, जो एक स्वतंत्र व्यक्तित्व लेकर जन्म लेता है. मनुष्य जीवन का वरदान यह है कि वह स्वतंत्र / इच्छा प्राप्त व्यक्ति है और वह इच्छानुसार कार्य कर सकता है। स्वतंत्र व्यक्तित्व का अभिशाप यह है कि वह अपने को सर्वथा भिन्न प्राणी पाता है- आत्म-सदृश वह अन्य किसी को नहीं पता है उसका पृथक् व्यक्तित्व उसके व्यक्तित्व के काँटों के समान होता है प्रग-पग पर संघर्ष करना टकराव झेलना उसकी नियति बन जाती है व्यक्ति अपनी आचरण भी करता रहे बचता रहे यह मानव स्वतंत्र इच्छानुसार और संघर्ष से भी जीवन का परम विशिष्टताओं को समाप्त पुरुषार्थ है यह तब सम्भव होता है, जब मनुष्य अपने व्यक्तित्व की रूपी काँटों करके उन्हें चिकना बना लेता है, जो ऐसा करने में समर्थ होता है, समाज उसे साधक मानव के रूप में देखकर अवतारी पुरुष के रूप में पूजता है, अवतारी कहा जाने वाला व्यक्ति सबको अपने समान समझता है और अपने को उनके समान समझकर मिलने का प्रयत्न करता है. मिस्र के अमौलियस रुक्का ने कहा था कि हमें प्रत्येक के साथ समान धरातल पर मिलने का प्रयत्न करना चाहिए. 14 वर्ष की दीर्घकालीन तपस्या के उपरान्त जब श्रीराम जी अयोध्या वापस आते हैं, तब वे उक्त प्रकार के व्यवहार का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, यथा
अमित रूप प्रकटे तेहिकाला ।
जथा जोग मिले सबहिं कृपाला ।।
बौद्धिकता मानव की विशिष्टता है. वह मनुष्य को विश्लेषण की प्रवृत्ति प्रदान करती है, जिसके द्वारा वह दृश्यमान जगत् के वैज्ञानिक अध्ययन में प्रवृत्त होता है, साथ ही वह व्यक्ति को एक से अनेक करने का स्वभाव प्रदान कर देती है और तदनुसार उसको आत्मकेन्द्रित एवं स्वार्थी बना देती है. स्वार्थाध व्यक्ति अपने आचरण द्वारा कभीकभी पशुओं को पीछे छोड़ देता है. इस कोटि के मनुष्यों को देखकर मैडम डी. सीर्विज ने लिखा है कि- The more I see of men, the more I admire dogs. अर्थात् “मनुष्य के बारे में जितना अधिक मैं देखती हूँ, उतना ही अधिक में कुत्तों को प्यार करती हूँ.” बात भी सही है नमक खाने वाला कुत्ता चोर से स्वामी की सम्पत्ति की रक्षा करता है, नमक खाने वाला चौकीदार या नौकर चोरी करने वाले चोर का सहायक बन जाता है. अब तो वह अपहरण, बलात्कार, हत्या जैसे कुकृत्यों में भी सहायक की भूमिका का निर्वाह करते हुए देखा जाता है.
मानव जीवन यथार्थ की भूमि पर / स्थित है. उसके स्वप्न उसके आदर्श होते हैं, जिनसे वह प्रगति विकास एवं ऊर्ध्वगामी होने की प्रेरणा ग्रहण करता है. स्वप्नों को साकार करके वह विकास के मार्ग पर अग्रसर होता है तथा अभ्युदय एवं निरश्रेयस् की सिद्धि करता है. ख्यातिनामा / अंग्रेजों उपन्यासकार रस्किन का कथन कितना सार्थक है- मानवता की साधना प्रातः कालीन सूर्य के समान सुन्दर और सुखद है. स्वप्न मानव जीवन के यथार्थ को रचनाधर्मिता की रसायन द्वारा पर्यवेष्टित कर देते हैं, मानव की महत्ता उपलब्धि में नहीं है, बल्कि इसमें है कि वह क्या उपलब्ध करने के लिए / साधना करता है.
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