निर्णय तुरंत लेना, प्रतिक्रिया तुरंत कभी न हो
निर्णय तुरंत लेना, प्रतिक्रिया तुरंत कभी न हो
निर्णय तुरंत लेना, प्रतिक्रिया तुरंत कभी न हो
निर्णय लेने में देरी भीतर की अविश्वस नीयता की सूचक है. आप अपने अन्तःकरण
से जितने अधिक जुड़े होंगे, आपके निर्णय उतने ही सटीक, शीघ्र व बेहतरीन होंगे.
अवचेतन मन को सुनो, वह सदा सही निर्देश देता है. हाँ, इतना अवश्य है कि हम उसे
तब ही सुन पाएंगे, जब हम बाहरी आकर्षणों के प्रभावों में न हों. यदि सोच किसी भी विषय
के पक्ष-विपक्ष की गिरफ्त है, तो आन्तरिक स्फुरणाएं मार्गदर्शक नहीं बन पाएंगी. इसके
लिए सोच को निष्पक्ष बनाने का अभ्यास करना होगा. इस हेतु निम्नलिखित प्रयास
सार्थक हो सकते हैं.
1. जब कभी सोच किसी विषय विशेष का समर्थन करे, तो उसके विपक्ष के सभी
मुद्दों को भी दृष्टि पथ पर ले आएं.
2. जब कभी सोच किसी विषय विशेष के विरोध में जाने लगे, उस समय उसमें
रहे गुणों पर ध्यान केन्द्रित करें.
3. स्वयं के मन को अनेक बार कहो कि वह किसी को भी सही / गलत ठहराने
की कोशिश न करे न ही अच्छे/बुरे में बाँटे.
अब आपका मन यथास्थिति का दर्शन करने लगेगा. ऐसे क्षणों में जो घटित होना
है, वो स्वतः घटित हो, यह भावना भावित करो. शनैः शनैः कर्त्तापना विदा लेगा और
निर्णय स्वतः घटित होंगे. हम घटनाओं के घटने में निमित्त तो बनेंगे, किन्तु उसके प्रति
साक्षीपना उदित होगा. यह अभ्यास ही निर्णयों को स्वतः प्रकट होने में मदद करेगा.
निर्णय तुरन्त लेने का एक अर्थ यह भी है कि अपने निर्णयों को पूर्वाग्रहों से मुक्त
रखा जाना जरूरी है. यदि निर्णय सहज स्फूर्त है, तो उसमें कभी देरी नहीं होगी.
शंकाएं नहीं होगी विकल्प उठेंगे ही नहीं, किन्तु यदि निर्णय हमारी संस्कारित सोच से
लिया जा रहा है, तो मन में बार-बार निर्णयों के विपरीत सोच पैदा होती रहेगी. मानसिक
पूर्वाग्रह उस निर्णय को कार्यान्वित होने में बाँधा डालते रहेंगे. जैसे कि आपने सोचा
कि मुझे इस अमुक विषय में डिप्लोमा कोर्स करना है, इसके लिए आप फार्म भरने जा
रहे हो. अब यदि आपका विषय चुनने का निर्णय स्वतः सहज आत्मस्फूर्त है, तो वह
सटीक होगा, बिना किसी आशंका व कुशंका के आपके भीतर अपने द्वारा चुने जा रहे
विषय के प्रति एक स्पष्ट दर्शन पैदा होगा. अन्यथा आपके भीतर रही डर की संज्ञा जागृत
हो जाएगी जो आपको डराएगी. मन में विकल्प उठेंगे मन कहने लगेगा कि अरे ! पागल
हो गए क्या ? अब तक किसी भी घर के सदस्य ने इस तरह की दिशा नहीं पकड़ी है. तुम
कैसे यह डिप्लोमा कर पाओगे ? बहुत कम विद्यार्थी इस तरह का विषय चुनते हैं. रहने दो,
यह विषय बहुत कठिन है, तुमसे नहीं होने वाला, तुम्हारे मित्र भी इसे नहीं चुन रहे हैं. इस
प्रकार के न जाने कितने संदेह मन में उठेंगे व मानसिकता को कमजोर करते रहेंगे इसीलिए
मन की नकारात्मक दलीलों से अछूते रहने का सर्वोत्तम उपाय है कि तुरन्त निर्णय लो. तुरन्त
अर्थात् सपोन्टैनियश जो सहज स्फूर्त हो.
ऐसे निर्णयों के क्षणों में हमारी चेतनापूर्ण वर्तमान के क्षण में होती है. इसी कारण ये
निर्णय कभी गलत नहीं होते. आत्मज्ञानी पूज्य विराट गुरुजी कहा करते कि क्या कारण है
कि शेयर बाजार में आम आदमी की घाटा उठाता है और ये बड़े-बड़े दलाल अचानक लाभ
कमा लेते हैं ? वे कहते कि आम आदमी की सोच और समझ से बिलकुल भिन्न शेयर
बाजार की चाल होती है, वे जो बड़े-बड़े सटोरिए सोचते हैं वे दिमाग से नहीं चलते हैं,
बल्कि उनके निर्णय नाभि केन्द्र से अथवा मूलाधार से उठते हैं. उनके निर्णय
बाजार की चाल पर आधारित नहीं होते. वे सहज स्फूर्त होते हैं. इसी कारण वे लाभ कमा
लेते हैं. अकसर सटोरिया या जुआरी सोच कर नहीं चलता, वह भीतर से उठ रहे
को घटित होने देता है और वह तब तक लाभ कमाता है, जब तक उसकी
संस्कारित बुद्धि दखलंदाजी नहीं करती है, किन्तु जैसे ही उसकी बुद्धि में लोभ व बाजार
की सोच हावी हो जाती है, उसकी चालें उलटी पड़ने लग जाती है. इस दुनिया के
बहुत कम लोग जानते हैं कि हमारा जितना विकसित दिमाग मस्तिष्क में है, उससे कई
गुना अधिक विकसित दिमाग हमारे नाभि केन्द्र में है. मस्तिष्क के पास तो बहुत
सूचनाएं हैं सारा सूचना विभाग है, जिसके कारण इसमें सदा विचार चलते रहते हैं. यह
आसानी से शांत हो ही नहीं पाता शांत हुए. बिना जो निर्णय लिए जाएंगे वे भीतर से
नहीं आ पाएंगे, इसी कारण उनमें जोखिम भी रहेगी.
जिस प्रकार शांत पानी में तल में रखी हुई सामग्री दिखाई पड़ती है, उसी प्रकार
शांत मनोमस्तिष्क से लिए गए निर्णय तुरन्त प्रभावी होते हैं. सफल होते हैं.
निर्णय तुरन्त हो, किन्तु प्रतिक्रिया तुरन्त कदापि नहीं आत्म विवेक से जीने वाले व्यक्ति
के जीवन में प्रतिक्रिया विरति भी स्वतः आएगी. विराट गुरुजी कहते हैं, प्रतिक्रिया
कभी तुरन्त न करो. क्योंकि प्रतिक्रिया अपने आप में प्रभावित क्रिया ही है, जब कभी हम
बाहरी वातावरण से अथवा लोगों के वाणी-व्यवहार से उद्वेलित या उत्तेजित होते हैं,
हमारे भीतर तुरन्त प्रतिक्रिया फूटती है. यह सदैव अहंकार से ही पैदा होती है. अधैर्य के
कारण हमारी भाषा संयमित नहीं रह पाती और हमारी जुबां आपा खो देती है, प्रतिक्रिया
के बाद पीड़ा या पछतावा जरूर आता है, जो हमारी मानसिकता को पुनः कुंठित करता
है. अपराध बोध जगाता है. हम औरों की नज़रों में भी गिरते हैं व खुद की नजरों से
भी इस तरह हमारी चेतना दुःखद अनुभवों से घिरने लगती है. यह तुरन्त प्रतिक्रिया
करने की आदत हमें किसी भी घटना के अनेक पहलुओं को देखने से भी वंचित कर
देती है. हमारी भीतर अनेकांत दृष्टि का विकास नहीं हो पाता. अनेकायामी समझ के
अभाव से हम अनेक स्थानों पर असफल रहते हैं, न स्वयं सुलझ पाते हैं, न औरों को
प्रसन्न कर पाते हैं.
अनेकायामी समझ ही इंसान को हर प्रतिक्रियात्मक माहौल में भी प्रसन्न रख सकती
है. जब तक हमारे मनोमस्तिष्क में ये संस्कार सही प्रकार से नहीं बैठ पाते कि सब कुछ
भले के लिए ही है तब तक हमारी सोच में शिकायतें मौजूद रहेगी और जब तक सोच
में शिकायतें हैं तब तक प्रतिक्रियाओं से सर्वथा विरति सम्भव ही नहीं हो सकेगी.
प्रतिक्रियाओं का बार-बार उठना व उससे आत्मपीड़न या परपीड़न पैदा होना
हमारी अगम्भीरता का भी सूचक है जब हम गम्भीर यानि गहरे होंगे तो उतावलापन खत्म
होगा. उतावला व्यक्ति किसी भी बात के तथ्य में उतरे बिना ही प्रतिक्रिया व्यक्त कर
देता है, जिसका भारी मुआवजा व्यक्ति को भुगतना पड़ता है अतः हम स्वयं को शांत,
गम्भीर प्रज्ञावान बनाए ताकि हमारे निर्णय सहज अन्तः प्रज्ञा से स्फूर्त हो व प्रतिक्रियाएं
न्यून व न्यूनतम होती जाए. प्रतिक्रियाएँ प्रायः असजग अवस्था से प्रकट होती है, जबकि
निर्णय होश पूर्ण अवस्था से निर्णय में, जो आत्मस्फूर्त हो, नियति घटित होती जाती है,
जबकि तुरन्त प्रतिक्रिया विकारों को पैदा करती है व किस्मत को दूषित करती जाती
है. तुरन्त निर्णय कभी भी भावनात्मक उत्तेजना का प्रतिफल नहीं होते, बल्कि वे
आन्तरिक स्फुरणा रूप होते हैं, जबकि प्रतिकिया अहं का प्रदर्शन होने से सदैव
हानिकारक ही होती है, जो इंसान जीवन के प्रारम्भिक चरण में इस विवेक विज्ञान को
अपने में जागृत कर लेगा, उसके जीवन से अनेक परेशानियाँ स्वतः विदा हो ही जाएगी.
साथ ही आन्तरिक क्षमताएं भी खिलती-निखरती जाएगी.
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