भारतीय राजनीति में जातिवाद
भारतीय राजनीति में जातिवाद
भारतीय राजनीति में जातिवाद
डी. आर. गाडगिल के अनुसार “क्षेत्रीय दबावों से कहीं ज्यादा खतरनाक मारा गत है
कि वर्तमान काल में जाति व्यक्तियों को एकता के सूत्र में बाँधने में बाधक सिद्ध हुई
है” प्रसिद्ध समाजशास्त्री एम एन. श्रीनिवास का स्पष्ट मत है कि परम्परावादी जाति
व्यवस्था ने प्रगतिशील और आधुनिक राज नीतिक व्यवस्था को इस तरह प्रभावित किया
है कि ये राजनीतिक संस्थाएं अपने मूलरूप में कार्य करने में समर्थ नहीं रही है
जाति व्यवस्था भारतीय समाज का अटूट अग रही है और इसने जीवन के
सभी पक्षों को प्रभावित किया है विगत 50 वर्षों से राजनीतिक संस्थाओं की कार्यप्रणाली
और सामान्य राजनीतिक जीवन के अनुभव से इस बात को सकेत मिलता है कि भारत
की राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था पर जातिवाद का प्रभाव विद्यमान है आधुनिक
प्रभावों के फलस्वरूप वयस्क मताधिकार के आधार पर निर्वाचन आरम्भ हुए और जातिगत
सस्थाएं एकाएक महत्वपूर्ण बन गई, क्योंकि उनके पास भारी संख्या मत थे और
लोकतन्त्र में सत्ता प्राप्ति हेतु इन मतों का मूल्य था शायद यही वजह थी कि
जयप्रकाश नारायण सरीखे व्यक्ति ने एक बार कहा कि “भारत में मौजूद सभी दलों
की तुलना में जाति नाम का दल सबसे महत्वपूर्ण हो गया है”
भारत में राजनीतिक आधुनिकीकरण के आरम्भ होने के पश्चात् यह धारणा
विकसित हुई कि पश्चिमी ढग की राजनीतिक संस्थाए और लोकतन्त्रात्मक मूल्यों को
अपनाने के फलस्वरूप पारम्परिक संस्था जातिवाद का अन्त हो जाएगा, किन्तु
स्वाधीनता के पश्चात भारत की राजनीति में जाति का प्रभाव अनवरत रूप से बढ़ता
गया जहाँ सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में जाति की शक्ति घटी है, वहीं राजनीति और
प्रशासन में इसका प्रभाव बढ़ा है। हमारे राजनीतिज्ञ एक ओर तो जातिगत भेदभाव
मिटाने की बात करते हैं, वहीं दूसरी ओर जातिगत आधार पर वोट बटोरने की कला
में निपुणता हासिल करना चाहते है वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था ने विभिन्न
जातियों के बीच इस प्रकार की अन्योन्याश्रित स्थिति उत्पन्न कर दी है कि अब कोई भी
जाति समूह बिना दूसरी जातियों की सहायता और समर्थन के राजनीतिक सफलता नहीं
प्राप्त कर सकता विभिन्न राजनीतिक दल निर्वाचन के अवसर पर अपने उम्मीदवारों
का चयन करते समय उनकी योग्यता से ज्यादा सम्बन्धित निर्वाचन क्षेत्रों में विभिन्न
जातियों की जनसंख्या को विशेष रूप से दृष्टि में रखते हैं चुनाव अभियान में
जातिवाद को साधन के रूप में अपनाया जाता है और प्रत्याशी जिस निर्वाचन क्षेत्र से
चुनाव लड रहा है, उस निर्वाचन क्षेत्र में जातिवाद की भावना को प्राय उकसाया
जाता है ताकि सम्बन्धित प्रत्याशी की जाति के मतदाताओं का पूर्ण समर्थन प्राप्त किया
जा सके मन्त्रिमण्डल निर्माण में जातीय भेदभाव का प्रभाव किसी-न-किसी रूप में
समाने आता है और राजनीतिक पदों और पुरस्कारों के वितरण में भी जाति के आधार
पर भेदभाव कोई आश्चर्य की बात नहीं है राजनीतिक क्षेत्र में जातिवाद के प्रवेश के
कारण ही यह धारणा सामने आई है कि जातिवाद ने भारत के संसदीय लोकतन्त्र के
स्वरूप को विकृत कर दिया है जातीय संगठन और जातीय नेता, राजनीतिक दलों
और राजनीतिज्ञों की सांठ-गांठ करके जाति का राजनीतिकरण करने में लगे हुए हैं
बिहार और उत्तर प्रदेश में आए दिन जातीय झगड़ों, तनावों और सघर्षों में जाति और
राजनीति की अन्त: क्रिया ही दिखाई देती है
राष्ट्रीय स्तर से ज्यादा राज्यों में जातिवाद का प्रभाव राजनीति पर कुछ
विशेष ढंग का दिखाई देता है जातिवाद का सर्वप्रथम प्रभाव तमिलनाडु में जहाँ ब्राह्मणों
और अन्य निम्न जातियों के बीच संघर्ष के रूप में देखने को मिलता है तमिलनाडु में
यह आन्दोलन ब्राह्मणों को उच्च स्थानों से हटाने के लिए था 1960 में महाराष्ट्र एक
स्वतन्त्र राज्य के रूप में स्थापित हो गया प्राय: स्थानीय और राज्य स्तर की राजनीति
में जातीय संघ और समुदाय निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करने में उसी प्रकार की
भूमिका अदा करते हैं जिस प्रकार पश्चिमी देशों में दवाव गुट हमारे राजनीतिज्ञ एक
अजीब असमंजस की स्थिति में है जहाँ एक और ये जातिगत भेदभाव मिटाने की बात
करते है वहीं दूसरी ओर जाति के आधार पर चोट बटोरने की कला में निपुणता
हासिल करना चाहते है तथापि विहार, करल, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र,
हरियाणा और राजस्थान राज्यों की राजनीति का अध्ययन तो बिना जातिगत गणितके
विश्लेषण कर ही नहीं सकते बिहार की राजनीति में राजपूत. बाह्मण, कायस्थ और
पिछडी व जनजाति प्रमुख प्रतिस्पधी जातियों है. पृथक झारखण्ड राज्य की मांग वस्तुत
एक जातीय मांग रही है केरल में साम्यवादियों की सफलता का राज यही है
कि उन्होने ‘इजर्वाहा’ जाति को अपने पीछे संगठित कर लिया आन्ध्र प्रदेश की
राजनीति कामा’ और ‘रेड्डी जातियों के संघर्ष की कहानी है ‘कामाओं ने साम्य
वादी दल का समर्थन किया और रेडडीने कांग्रेस का समर्थन किया गुजरात की
राजनीति में पटेल आदि प्रभावी है केरल की राजनीति तीन समुदायों हिन्दू, क्रिश्चियन
और मुसलमान के इर्द गिर्द घूमती रही है राजस्थान की राजनीति में जाट और राजपूत
जातियों की प्रतिस्पर्धा प्रमुख रही है इस प्रकार राज्यों की राजनीति में जाति के प्रभाव
को दृष्टिगत रखते हुए टिंकर जैसे विद्वान् ने “राज्यों की राजनीति को जातियों की
राजनीति” कहा है
जाति और राजनीति के कुछ चिन्ताजनक पहलू है जिनसे भारतीय लोकतान्त्रिक प्रणाली
को आधात पहुंचा है भारत की राजनीति में ऐसे अनेक उदाहरण देखने को मिले है कि
अशिक्षित अंगूठा छाप व्यक्ति जातियों के कंधे पर चढ़कर विधान सभाओं और संसद
में प्रवेश करते है तथा जातिवादी राजनीति के बल पर मत्री पद हथिया लेते है जहाँ
एक ओर सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कारको ने जातियों के राजनीतिकरणको
बढ़ाया है वहीं दूसरी ओर कतिपय सवैधानिक उपबंध भी राजनीति पर जाति के प्रभुत्व में
सहायक हुए हैं राजनीति के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि सामाजिक, शैक्षणिक तथा अन्य क्षेत्रों
में भी जातिवाद का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है देश में लगभग 3000 जातियों और
25000 उपजातियाँ हैं बहरहाल जनतात्रिक राजनीति को जाति, कुल और समुदाय की
अन्धभक्ति से और साथ ही व्यक्तिवाद तथा व्यक्तिगत अराजकता से बना होगा यहाँ
इनकी कोई जगह नहीं है साथ ही जनतांत्रिक प्रक्रिया को नियन्त्रित करने के
लिए जाति का इस्तेमाल करना जनतन्त्र की बुनियादी अवधारणाओं के विरुद्ध है
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि भारत में जाति का राजनीतिकरण और
राजनीति का जातिकरण हो गया है बडाल्फ ने कहा कि “भारत के नए राजनीतिक तत्र
परिप्रेक्ष्य में जाति भारतीय समाज का एक केन्द्रीय तत्व है, याद्यपि इसने जनतंत्रीय
राजनीतिक के मूल्यों और उपायों तथा साधनों को ग्रहण किया है.” ऐसा लगता है.
कि राजनीति ने जातिवाद को एक साधन के रूप में अपनाया है. कई लोग जाति को
राजनीति का कैसर मानते हैं. जाति प्रथा को राष्ट्रीय एकता में बाधक माना जाता है,
क्योंकि इससे लोगों में पृथकतावाद की भावना जाग्रत होती है और वे राष्ट्रीय हितों
की अपेक्षा अपने जातिगत हितों को अधिक महत्व देने लगते हैं. डी आर गाडगिल के
अनुसार क्षेत्रीय दबावों से कहीं ज्यादा खतरनाक बात यह है कि वर्तमान काल में
जाति व्यक्तियों को एकता के सूत्र में बाँधने में बाधक सिद्ध हुई है. इस देश में इतनी
जातियाँ और सहजातियाँ पैदा हो गई हैं कि वे एक-दूसरे से पृथक् रहने में ही अपने
अस्तित्व को सुरक्षित समझती हैं. यह पृथकतावादी दृष्टिकोण राष्ट्रीय एकता के
लिए घातक है. अतः भारत में सच्चा लोकतन्त्र स्थापित करने तथा भारत की
एकता एवं अखण्डता को सुदृढ़ करने के लिए राजनीति में जाति के दखल को कम
करना होगा.
प्रो. रूडोल्फ के शब्दों में “भारत के राजनीतिक लोकतन्त्र के सन्दर्भ में जाति वह
धुरी है जिसके माध्यम से नवीन मूल्यों और तरीकों की खोज की जा रही है. यथार्थ में
यह एक ऐसा माध्यम बन गई है कि इसके जरिए भारतीय जनता को लोकतांत्रिक राज-
नीति की प्रक्रिया से जोड़ा जा सकता है.
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