भाषा और संस्कृति
भाषा और संस्कृति
भाषा और संस्कृति
भाषा और संस्कृति’ के अध्ययन का क्षेत्र तो अब नया नहीं रह गया है परंतु एक सीमा में विवादस्पद अब भी बना हुआ है। प्रायः भाषा को संस्कृति के सबसे महत्त्वपूर्ण अंगों में से एक माना जाता है, क्योंकि वाणी को अपेक्षाकृत अधिक स्वायत्तता प्राप्त होती है किंतु भाषा के बिना शायद संस्कृति का जन्म ही न होता और संस्कृति के बिना भाषा प्रायः सूनी ही रह जाती।
श्रीमती रेजिनर फ्लेनरी-हर्क्सफेल्ट का कथन है: “भाषा प्रणालियों और संस्कृति प्रणालियों के वास्तविक संबंध का अन्वेषण करने में कई ऐसी समस्याएँ उभरकर सामने आती हैं जो भाषा-विज्ञान तथा सांस्कृतिक मानव विज्ञान की सीमा रेखा पर है।”
तो पहले हम भाषा और संस्कृति दोनों के अर्थ और स्वरूप पर प्रकाश डाल लें :
भाषा विचारों और भावों की सीधी अभिव्यक्ति है: या कहें प्रतीक-पद्धति से सीधी अभिव्यक्ति है। अत: भाषा संप्रेषण का माध्यम है किंतु यह एक अस्पष्ट परिभाषा है क्योंकि भाषाविद् सपीर ने ठीक ही लिखा है-“आसमान में छाये बादल भी यह सूचना दे जाते हैं कि वर्षा अब आने ही वाली है।” तो क्या यह भाषा है ? वास्तव में भाषा एक जटिल प्रक्रिया है और उसमें इतने अधिक मानसिक एवं प्रेरक अनुभव अंतर्हित होते हैं कि हम विस्मय-विगुग्ध हो जाते हैं।
ब्लूमफील्ड नामक भाषावैज्ञानिक के अनुसार “भाषा यादृच्छिक ध्वनि-प्रतीकों की संरचना-व्यवस्था होती है, जिसके माध्यम से किसी भाषा-भाषी समुदाय के लोग अपने भाव अथवा विचार एक दूसरे तक संप्रेषित करते हैं।” अतः भाषा एक व्यवस्था होती है। हर भाषा की व्यवस्था में अनन्यता होती हैं अर्थात हर भाषा की अपनी संरचना
होती है, अपनी इकाइयों को एक आंतरिक संरचना में व्यवस्थित करने की अपनी एक अनन्य पद्धति होती है।
हॉल और ट्रेगर का कथन है कि “आखिर भाषा यादृच्छिक प्रतीकों की एक व्यवस्था ही तो होती है जिसके द्वारा किसी भाषा-भाषी समुदाय के लोग एक-दूसरे से बोलते-चालते हैं”।
‘संस्कृति’ शब्द भी अपने आप में संदिग्धार्थक है। कुछ लोग इसे व्यापक सामाजिक अथवा समाजशास्त्रीय पृष्ठभूमि, रीति-रिवाज तथा संस्थाएँ और कार्य-प्रणाली जिसका संबंध भौगोलिक स्थितियों से और अंततः ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से होता है, का पयार्य मानते हैं।
क्लकहोन तथा कैली (‘द रिलेशन ऑफ लैंग्वेज टु कल्चर’ के लेखक) ने संस्कृति की आधुनिक संकल्पना की कदाचित सबसे सुंदर अभिव्यक्ति की है:-“ऐतिहासिक रूप में निर्मित रहन-सहन के वे सब प्रतिमान जिनका समय-विशेष पर मानव के आचार-व्यवहार के संभावित पथ-प्रदर्शओं के रूप में अस्तित्व होता है फिर चाहे वे प्रतिमान अव्यक्त हों अथवा सुव्यक्त, विवेकपूर्ण हों, विवेकहीन अथवा निर्विवेकपूर्ण ।”
इस विश्लेषण से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि भाषा और संस्कृति परस्पर एक-दूसरे में अनुस्यूत हैं। प्रो० जार्ज ग्युसदोर्फ का कहना है: “भाषा और संस्कृति को न तो अलग-अलग किया जा सकता है और न किया जाना चाहिये; ठीक वैसे ही जैसे भाषा और विचार को कभी अलग नहीं किया जा सकता।” सो, भाषा और संस्कृति का संबंध अपरिहार्य एवं सापेक्ष है। अगर हम भाषा पढ़ें या पढ़ाएँ और उस संस्कृति को न पढ़ें और न पढ़ाएँ जिसमें वह सक्रिय होती है तो इसका मतलब यह होगा कि ऐसे निरर्थक प्रतीक अथवा प्रतीक समष्टि का अध्ययन-अध्यापन कर रहे हैं जिनके साथ छात्र गलत अर्थ जोड़ देगा अगर उसे चेतावनी न दी जाय, अगर उसे सांस्कृतिक निर्देशन मिले
तो वह प्रतीकों के साथ गलत या अंटसंट संकल्पनाएँ जोड़ देगा।
सो, भाषा न केवल संस्कृति की कुंजी है, वह संस्कृति का अंग भी है। जो किसी समुदाय की ओर ध्यान दिये बिना उसके बारे में चर्चा करता है और उसका अध्ययन करता है वह संस्कृति के महत्त्वपूर्ण अंग तथा आवश्यकता की उपेक्षा करता है। रॉबर्ट पोलित्जर का कहना है-“भाषा के संग संस्कृति की शिक्षा देने और परीक्षा करने की आवश्यकता का, भाषा-अध्ययन के माध्यम से सांस्कृतिक बोध जगाने की संभावना का इस्तेमाल भाषा पढ़ाने की असफलता पर पर्दा डालने के लिये कभी नहीं किया जाना चाहिये।” इसलिये इसी अनन्यता को ध्यान म रखकर हर्क्सलर ने कहा है-“सामाजिक एकसूत्रता प्रायः भाषिक एकसूत्रता का ही दूसरा नाम है।”
सपीर अपनी पुस्तक ‘लैंग्वेज’ में लिखते हैं-“भाषा में वैविध्य होता है जैसे सृजनात्मक प्रयत्नों में होता है। यह वैविध्य उतना ही वास्तविक होता है जितने विविध जातियों के विश्वास, आस्थाएँ, रीति-रिवाज और कार्यकलाप—-भाषा अर्जित सांस्कृतिक क्रिया है और वह सहजवृत्तिमूलक नहीं होती।” इसलिये शब्द के ध्वनिगत परिवर्तनों को किसी राष्ट्र के उथल-पुथल वाले युगों के साथ जोड़ने के भी प्रयास किये गये हैं। येस्पर्सन इसका समर्थन करते हुए कहते हैं: “कालमृत्यु तथा विश्वयुद्धों, और इग्लैंड एवं फ्रांस में उत्तर मध्यकाल की सामाजिक विश्रृंखता तथा तीव्र भाषिक
परिवर्तन दोनों घटनाएँ साथ-साथ घटीं।
भाषा अधर में सक्रिय नहीं होती, वह संस्कृति का अभिन्न अंग होती है। भाषा पूर्णतः समरूप माध्यम में एक पूर्ण प्रतीकात्मक व्यवस्था होती है और संस्कृति विशेष में जितने अर्थों एवं निर्देशों की क्षमता होती है, वह उन सबको सहेजती-समेटती है। मैडलबान के अनुसार “हर संस्कृति का सारतत्व उसकी भाषा में अभिव्यक्ति पा सकता है और पाता रहता है।” भाषा सीखनी पड़ती है। भाषा-प्रतिमानों का नियंत्रण एक आदत की बात बन जाती है।
इन प्रतिमानों में किसी समुदाय विशेष की लोकरीतियाँ अथवा संस्कृति ढलती है। अगर किसी भाषा का सहज और प्रभावशाली ढंग से प्रयोग किया जाना हो तो उसके प्रतिमानों को आत्मसात करना होगा। “एप्लाइड लिंग्विस्टिक्स” के लेखक मोनिका तथा केहो का कहना है-“जो चीज भाषा को अपना अनन्य स्वरूप प्रदान करती है वह निश्चय ही केवल भिन्न शब्द-समूह नहीं, वह चीज तो है एक भिन्न संरचना-विधान जो और सब भाषाओं से अलग एकदम अपना वैशिष्टय लिये होता है । किसी भी भाषा-समुदाय के व्यवहार-प्रतिमान अन्य भाषा-समुदायों से भिन्न होते हैं । नई भाषा सीखने में नए सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को जानना-समझना निहित होता है।” ब्लूमफील्ड ने इसी लिये कहा है-“किसी भाषा के स्वरूप और उसकी संस्कृति के ज्ञान के बिना भाषा पढ़ाने का मतलब बच्चे के कई साल बर्बाद करना भर है।”
इस प्रकार भाषा संस्कृति की पोषिका और धोतिका दोनों है। देशों का विभाजन जिस तरह प्राय: नदी, पर्वत आदि प्राकृतिक सीमाओं के आधार पर होता है उसी प्रकार जातियों का विभाजन धार्मिक, सामाजिक रीतियों तथा भाषाओं के आधार पर होता है । वेद, जेंदावेस्ता, बाइबिल और कुरान आदि पुराने ग्रंथ ही क्रमशः हिंदू, पारसी, ईसाई और मुलसमानों के धर्म के आधार हैं। प्रत्येक भाषा में सदियों की परिपाटी और संस्कार ओत-प्रोत रहते हैं। कुछ शब्द ऐसे होते हैं जिनके शुद्ध समानार्थक शब्द अन्य भाषाओं में नहीं मिलते । संस्कृत तथा अन्य भारतीय भाषाओं में व्यवहृत पुण्य, प्रायश्चित, संस्कार आदि शब्दों के तदवत् पर्याय अंग्रेजी आदि पाश्चात्य भाषाओं में नहीं मिलते । ऐसे ही ‘बपतिस्मा’ जैसे अंग्रेजी शब्दों के पर्याय भारतीय भाषाओं में नहीं हैं। वास्तविकता यह है कि किसी एक ही सुसंस्कृत भाषा में भी ठीक वैसा ही पर्याय नहीं होता क्योंकि प्रत्येक शब्द एक विशिष्ट अर्थ का द्योतक होता है।
किसी भाषा के शब्दों से भाषा-भाषियों की संस्कृति के संबंध में रोचक और उपयोगी ज्ञान प्राप्त होता है। सगे भाइयों की पत्नियाँ परस्पर गोत्रिणी (गोतनी) कहलाती हैं जिसका अर्थ है समान गोत्रवाली स्त्रियाँ । मुसलमानों में चूँकि एक ही गोत्र और कुल में यहाँ तक कि चचेरे भाई-बहन में विवाह होता है, गोत्रिणी शब्द का वाच्यार्थ नहीं, लक्ष्यार्थ या तात्पर्यार्थ ही हो सकता है। परिवार तथा संबंधियों के लिये भारतीय भाषाओं में अनेक शब्द हैं: देवर जेठ (भसुर), भाभी, चाचा, ताऊ, फूफा, मौसा, मामा, साला, बहनोई, साली, सरहज आदि परंतु अंग्रेजी में अंकल-आँट में ही सारे संबंध बंद हैं। भासुर (भसुर) शब्द तो और भी सांस्कृतिक विशेषता प्रकट होता है। यह भ्राता-श्वसुर
शब्द से बना है। छोटे भाई की पत्नी अपने पति के बड़े भाई को भसुर कहती है। इस शब्द की व्युत्पत्ति है (स्वामिनः) भ्राता श्वसुर इव (उपमित समास) स्त्री के स्वामी का वह भाई जो उस स्त्री के श्वसुर के समान हो । व्यवहार में भी लोग बड़े भाई को पिता के समान समझते हैं। दूसरे समाज के लोग इसे भाई का श्वसुर समझकर अनर्थ कर सकते हैं। सम्मिलित परिवार का यह शुद्ध मानचित्र आर्य संस्कृति की धरोहर है।
प्रत्येक भाषा में उस भाषा-भाषी के आचार-व्यवहार को प्रकट करने वाली सूक्तियाँ होती हैं। इन सूक्तियों के अध्ययन से जीवन में बहुत ही प्रभावशाली प्रेरणाएँ मिलती हैं। ऐसे ही अनेक नीति-वचन, लौकिक न्याय, दर्शन, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि विभागों से संबंधित पारिभाषिक शब्द या वाक्यांश होते हैं जिन्हें अनायास ही तद्भाषा-भाषी लोग समझ लेते हैं। दूसरी संस्कृति के लोग इन्हें नहीं समझ सकते । भारतीयों के जीवन में गणित और फलित ज्योतिष का बड़ा महत्त्व है । यात्रा में तिथि, नक्षत्र, वार, दिशाशूल आदि का विचार प्रायः लोग करते हैं । अन्य देश या संस्कृति
के लोग इसे नहीं समझ सकते।
उक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि भाषा और भाषा-भाषी की संस्कृति, सभ्यता और जीवन क्रम में घनिष्ठ संबंध होता है। इसलिये जबतक भाषा-भाषी लोग अपनी भाषा और उसके साहित्य के निकट संपर्क में रहेंगे तब तक उनकी संस्कृति का प्रवाह अक्षुण्ण रहेगा। इस स्रोत के सूख जाने से जीवन नीरस हो जाता है। आचार-विचार बदल जाते हैं और वेशभूषा विकृत हो जाती है। उनमें राष्ट्रीय और जातीय गौरव नष्टप्राय हो जाता है।
जाहिर है भाषा और संस्कृति का संबंध अटूट है। संस्कृति भाषा की संपत्ति और उसे समृद्ध बनाती है। भाषा संस्कृति का वाहन है जो उसे अभिव्यक्ति प्रदान करता है। कालिदास ने संस्कृति को ‘शिव’ और भाषा को शक्ति कहा है। शक्ति के बिना शिव पंगु है, शव के समान है। शिव के बिना शक्ति भी वर्वरता है, पशुता है। संस्कृति और भाषा में परस्पर सतत आदान-प्रदान होता आया है और यही कारण है कि जनसाधारण की मनोवृत्ति में जैसे-जैसे परिवर्तन होता गया है, प्रचलित शब्दों के अर्थ भी बदलते गये हैं। भारत ही नहीं, संसार की समस्त भाषाओं में ऐसे शब्द हैं जिनके पीछे रोचक इतिहास छिपा है। इनसे उस भाषा-भाषी की मनोरंजक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
का अभिज्ञान होता है।
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