भाषा के विभिन्न रूप

भाषा के विभिन्न रूप

                     भाषा के विभिन्न रूप

एक भाषा का जन-समुदाय अपनी भाषा के विविध रूपों के माध्यम से एक भाषाई इकाई का निर्माण करता
है। विविध भाषा-रूपों के मध्य संभाषण की संभाव्यता से भाषिक एकता का निर्माण होता है। एक भाषा के समस्त
भाषिक रूप जिस क्षेत्र में प्रयुक्त होते हैं उसे उस भाषा का भाषा-क्षेत्र कहते हैं। प्रत्येक भाषा-क्षेत्र में भिन्नताएँ होती हैं।
 
वास्तव में भाषा की विभिन्नताओं का आधार प्रायः वर्णगत एवं धर्मगत नहीं होता। एक वर्ण या एक धर्म
के व्यक्ति यदि भिन्न भाषा-क्षेत्रों में निवास करते हैं तो वे भिन्न भाषाओं का प्रयोग करते हैं। हिंदू-मुसलमान आदि
सभी धर्मावलम्बी तमिल क्षेत्र में तमिल बोलते हैं तथा बंगला क्षेत्र में बंगला। इसके विपरीत यदि दो भिन्न वर्गों या
दो धर्मों के व्यक्ति एक ही भाषा-क्षेत्र में रहते हैं तो भी यही होता है। हिन्दी भाषा-क्षेत्र में क्षत्रिय, वैश्य आदि सभी
वर्णों के व्यक्ति हिन्दी का ही प्रयोग करते हैं। यह बात अवश्य है कि विशिष्ट स्थितियों में वर्ण या धर्म के आधार
पर भाषा में बोलीगत अथवा शैलीगत प्रभेद हो जाते हैं। कभी-कभी ऐसी भी गलत स्थितियाँ विकसित हो जाती हैं
जिनके कारण एक ही भाषा के दो रूपों को दो भाषाएँ समझा जाने लगता है।
 
सामान्य भाषा के अंतर्गत भाषा के बहुत-से रूप आते हैं, जो प्रमुखतः चार आधारों पर निर्मित होते हैं:
इतिहास, भूगोल, प्रयोग और निर्माता । इन्हीं आधारों पर भाषा के विभिन्न रूप हैं। उनमें से यहाँ मुख्यत: चार रूपों
की चर्चा करेंगे। वे रूप हैं-भाषा, बोली, साहित्यिक भाषा, लोक-भाषा ।
 
                        बोली:
 
भाषा-विज्ञान में ‘भाषा’ शब्द का आशय साहित्यिक भाषा से लिया जाता है। जिसमें कोई साहित्य नहीं लिखा
जाता उसे भाषा न कहकर बोली कहते हैं। परंपरागत रूप से भाषा और बोली दोनों ही अपने-अपने रूपों में प्रवर्तमान
रहते हैं। भाषा हमें साहित्य से सीखने को मिलती है और बोली माँ-बाप तथा जन-समाज से। हमारे बोलने और
लिखने में सदा अंतर रहता है। बोलने में हम असावधानी और शिथिलता भी बरत लेते हैं; किंतु लिखने में प्राय: संयत
बुद्धि और साधु भाषा का प्रयोग करते हैं। साधु तथा संयत भाषा के पक्षपाती शिष्टजन बोली को गंवारू या उजड्ड
लोगों की भाषा समझते हैं। आज ही नहीं, दीर्घ काल से सुशिक्षित लोग बोली को अपभ्रष्ट, अपभ्रंश या अपशब्दों
से भरित बोली समझते आ रहे हैं। इस संदर्भ में भाषाविद् स्टेनली रूंडले का कथन उचित ही है कि बोली के संबंध
में बहुत बड़ा भ्रम फैला हुआ है कि लोग समझते हैं कि बोलियाँ लोकसाहित्य के रूप में प्रचलित बनी हुई हैं, किंतु
वे असंगत रूप हैं और केवल अध्ययन की वस्तु हैं। अतएव अधिकतर लोगों की दृष्टि में बोली मानक भाषा का
अतिक्रमण है। प्रत्येक देश की कोई न कोई मानक भाषा होती है। उस मानक भाषा के अपभ्रश को बोली समझा
जाता है। टकसाली, मानक या आदर्श भाषा सदा स्थिर नहीं रहती। युग-युग के परिवर्तन में देश, काल और क्षेत्र
की भाँति भाषा में भी परिवर्तन होता रहता है।
 
वास्तव में बोलियों का भी अपना इतिहास होता है । बोलियों के विकास की भी एक प्रक्रिया है। यही प्रक्रिया
संस्कृत के साथ भी घटित हुई थी जो एक कृत्रिमतापूर्ण साहित्यिक भाषा थी । प्राकृतिक बोलियों को प्राकृत कहा जाता था।
 
कुछ विद्वान उपबोली को बोली या उपभाषा तथा बोली को विभाषा कहते हैं। वस्तुतः जिन वाक् रूपों की
कोई लिखित पद्धति नहीं है या अशिक्षित लोगों द्वारा प्रयुक्त होते हैं या जो अनगढ़ एवं शिष्ट तथा शिक्षितों की भाषा 
के विपरीत अकृत्रिम भाषा है, उसे बोली कहा जाता है। अंग्रेजी में बोली के लिये डायलेक्ट शब्द प्रयुक्त होता है ।
 
                          इसका प्रयोग :
 
1. वाक् के उन रूपों के लिये जो भिन्न होने पर भी परस्पर बिना किसी प्रशिक्षण के समझने योग्य होते हैं,
2. राजनीति के द्वारा एकीकृत क्षेत्र में वर्तमान वाक्प, तथा
3. भाषिक के वे वाक्-रूप जिनमें सामान्य लेखन-पद्धति प्रचलित हैं तथा जो उत्तम श्रेणी के साहित्यिक ग्रंथों
का लिखित समूह है।
 
स्तुत्रवाँ के शब्दों में-“बोली वाक्काय है जिसमें किसी प्रकार के भेद सन्निहित नहीं हैं और जो प्रयोक्ता के
अनुसार जन सामान्य के द्वारा समझी जाती है।” सामान्य रूप से वक्ता का प्रत्येक उच्चारण बोली है और इसलिये
उसमें भेद होने पर भी वे समान होते हैं तथा साधारण जन के द्वारा बोले और समझे जाते हैं । बोली की एकता ध्वनियों
के उत्पादन पर नहीं, ध्वनियों की बोधगम्यता पर निर्भर है। प्रचलित रूप में ‘बोली’ शब्द प्रायः हीन गुण वाली भाषा
के लिये प्रयुक्त किया जाता है।
 
वस्तुतः किसी भाषावैज्ञानिक के लिये बोली और भाषा में कोई तात्विक अंतर नहीं होता । ‘बोली’ शब्द का
प्रयोग वाक्-ध्वनियों के उस रूप के लिये किया जाता है जिसे बोली के परवर्ती रूप (भाषा) को बोलने वाले समझ
नहीं पाते।
 
प्रसिद्ध विद्वान ‘मेरियो पाई’ ने बोली की परिभाषा देते हुए लिखा है-“बोली किसी भाषा का एक रूप है जो
एक निश्चित भूभाग या भौगोलिक क्षेत्र में बोली जाती है और जिसमें उक्त भाषा के स्टैंडर्ड या साहित्यिक रूप में
पर्याप्त अंतर होता है। यह अंतर उच्चारण व्याकरणिक गठन और मुहावरे के प्रयोग में होता है, जिससे उसका अलग
अस्तित्व प्रगट होता है किंतु उस भाषा की अन्य बोलियों से अधिक अंतर नहीं होता जिसके कारण वह एक अलग
भाषा मान ली जाए।”
 
वास्तव में बोली का निर्माण सामाजिक, आर्थिक समूहों तथा भौगोलिक सीमाओं के आधार पर होता है। इसी
कारण विभिन्न समूहों में विभिन्नता होने के कारण अलग-अलग बोलियों का निर्माण होता है। सो, अलग-अलग क्षेत्रों
में उच्चारित होने वाले रूप जिन्हें संस्कृत में ‘देशभाषा’ या ‘देशीभाषा’ कहा गया है, बोलियाँ हैं।
 
इस प्रकार एक भाषा-क्षेत्र के अंतर्गत कई बोलियाँ होती हैं या बोली का क्षेत्र अपेक्षाकृत छोटा होता है और
भाषा का बड़ा । इस आधार पर “बोली किसी भाषा के एक ऐसे सीमित क्षेत्रीय रूप को कहते हैं जो ध्वनि, रूप,
वाक्य-गठन, अर्थ, शब्द-समूह तथा मुहावरे आदि की दृष्टि से उस भाषा के परिनिष्ठित तथा अन्य क्षेत्रीय रूपों से
भिन्न होता है किंतु इतना भिन्न नहीं होता कि अन्य रूपों के बोलने वाले उसे समझ न सकें, साथ ही जिनके अपने
क्षेत्र में कहीं भी बोलने वालों के उच्चारण, रूप-रचना, वाक्य-गठन अर्थ, शब्द-समूह तथा मुहावरों आदि में कोई
बहुत स्पष्ट और महत्त्वपूर्ण भिन्नता नहीं होगी।”
 
                           भाषा:
 
भाषा जीवन की वास्तविकता है। इसकी परिभाषा और व्याख्या भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से तथा विविध संदर्भो
में कई प्रकार से की गयी है। मुख्य रूप से भाषा संप्रेषण के लिये एक माध्यम है। लेकिन यह माध्यम सांकेतिक
और यादृच्छिक है । ‘भाषा’ शब्द से सभी विशिष्ट भाषाओं का बोध होता है, जिनका व्यवहार समाज में सभी प्रकार
के लोग करते हैं। भाषा की प्रकृति के अनुसार भाषा एक मौखिक प्रतीकात्मक पद्धति है। जब हम भाषा की
यादृच्छिक वाक्प्रतीकों की पद्धति कहते हैं तो हमारा अभिप्राय उसकी प्रकृति के चार महत्त्वपूर्ण रूपों से होता है, जो
इस प्रकार है-
 
1. भाषा एक पद्धति है; 2. भाषा प्रतीकों की पद्धति है; 3. जिन प्रतीकों से भाषा की रचना होती है वे वाचिक
हैं; 4. भाषिक प्रतीक यादृच्छिक होते हैं। प्रतीकात्मक होने के कारण भाषा सदा ही सार्थक ध्वनियों से निर्मित होती
है। केवल मनुष्य की भाषा में ही नहीं, पशु-पक्षियों की भाषा में भी ध्वनि-संकेत मिलते हैं। किंतु पशु-पक्षी की
ध्वनियाँ और उनके संकेत अत्यंत सीमित होते हैं। उनका ठीक से विश्लेषण नहीं किया जा सकता, क्योंकि उनकी
कोई पद्धति नहीं होती। पशु-पक्षी ध्वनि संकेतों को वाक्यों में प्रकट नहीं कर सकते । इसलिये भाषा होने के लिये
प्रथम अनिवार्य स्थिति है-पद्धतिबद्ध होना । जिसकी कोई पद्धति नहीं वह भाषा नहीं हो सकती।
 
भाषा वास्तविक की अनुकृति नहीं है, क्योंकि भाषा एक स्वतंत्र पद्धति है। भाषा का जन्म समाज से होता
है। भाषा का कोई बनाने वाला नहीं है। भाषा वैसी ही स्वाभाविक है जैसे कि स्वाभाविक रूप से चलना-फिरना
और साँस लेना है। भाषा-शास्त्र के अंतर्गत मनुष्य की भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है। यह भाषा की
मनुष्य की यादृच्छिक प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप उत्पन्न होता है । इसे किसी ईश्वर, आदम या महापुरुष ने नहीं बनाया।
जब इसे किसी ने बनाया नहीं तो यह किसी वास्तविकता की अनुकृति नहीं हो सकती क्योंकि अनुकरण किसी मूल
वस्तु का किया जाता है। भाषा किसी मूल वस्तु को देखकर नहीं गढ़ी जाती। यह तो मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृति
की भाँति समाज में अभिव्यक्त का एक स्वाभाविक साधन मात्र है। इसके मूर्त और अमूर्त दोनों ही रूप हो सकते
हैं। ये दोनों ही रूप संकेतों के रूप में व्यवहार में प्रयुक्त होते हैं । यथार्थ में मनुष्य अपने-आपको व्यक्त करने के
लिये भाषा का प्रयोग करता है। बिना भाषा के न तो कोई सृष्टि हो सकती है और न किसी समाज का जन्मा भाषा
ही मनुष्य की एक ऐसी विशिष्ट प्रवृत्ति है, जिसके कारण मनुष्य सामाजिक कहा जाता है। किंतु यह अत्यंत आश्चर्य
की बात है कि जिस भाषा के हम इतने निकट हैं, रात-दिन जिसका प्रयोग करते हैं, उस भाषा के संबंध में हम सबसे
अधिक अनभिज्ञ हैं।
 
भाषाएँ कई प्रकार की कही जाती हैं । ऐतिहासिक तथ्यों से पता चलता है कि कुछ भाषाएँ विशाल क्षेत्रों में
इतनी व्यापक हो जाती हैं कि आमतौर से व्यवहारिक जीवन में वे प्रचलित हो जाती हैं। इस प्रकार की भाषाएँ हैं
मध्य यूरोप में जर्मन, उत्तरी अफ्रीका में फ्रेंच और भारतवर्ष में अंग्रेजी । प्राचीन काल में प्राकृत और संस्कृत केवल
भारतवर्ष में ही नहीं, हिंदेशिया और एशिया के कई भागों में प्रचलित थी। मध्यकाल में प्राकृत अपभ्रंश और वर्तमान
काल में हिंदी संसार के कई भागों में प्रचलित हैं। यह अत्यंत आश्चर्य की बात है कि भारत के बाहर तुर्किस्तान
के खोतान तथा अन्य प्रदेशों से मिले हुए लेख जो प्राकृत में लिखे हुए कहे जाते हैं, इस देश की प्राकृत से कहीं
अधिक विशुद्ध रूप से सुरक्षित रहे हैं। इस प्रकार का संस्कृत साहित्य या अभिलेखों के संबंध में कोई प्रमाण नहीं
मिलता।
 
सामान्यतः ‘भाषा’ का प्रयोग व्यवहार में दो रूपों में किया जाता है: सामान्य भाषा के लिये और भाषा के
विशिष्ट रूप के लिये । जब हम सामान्य रूप से भाषा का प्रयोग करते हैं तो विभिन्न देशों की भाषा का अभिधान
चीनी, जापानी, जर्मन और अमरीकी आदि नामों के लिये किया जाता है, किंतु जब हम किसी विशिष्ट रूप का बांध
कराना चाहते हैं तो राष्ट्रभाषा, साहित्यिक भाषा, भाषा, मानक भाषा, अंतराष्ट्रीय भाषा और आँचलिक भाषा या बोली
के रूप में उसका प्रयोग करते हैं । यद्यपि भाषा के विविध रूपों में मनुष्य अपने विचारों को वाणी के माध्यम से संप्रेषित
करता है किंतु रूपगत भिन्नता के कारण सामान्य रूप से भाषा सार्थक ध्वनियों का समूह होने पर भी संघटना, रचना,
और शैली में एक दूसरे से भिन्न होती है । इस भिन्नता के कई कारण हैं, जिसमें मुख्य मनुष्य की रुचि तथा प्रवृत्तिगत
भिन्नता है । जलवायु की भिन्नता और परंपरागत संस्कार भी इस भिन्नता के जनक हैं। अतएव भाषा-भेद के कारण
 उसके विभिन्न रूपों के द्योलन के दिनको उम अल-अलग शब्दों का व्यवहार करते हैं।
 
                                साहित्यिक भाषा:
 
विभिन्न सांस्कृतिक कारणों से एक भाषा की बहुविध बोली तथा उपभाषा के क्षेत्रों में से जब कोई एक क्षेत्र
महत्त्वपूर्ण हो जाता है तो उस क्षेत्र के भाषा-रूप का प्रवर्तन होने लगता है। इस क्षेत्र के भाषा-रूप के आधार पर
उस भाषा-क्षेत्र की ‘मानक भाषा’ अथवा ‘परिनिष्ठित भाषा’ का विकास होना प्रारंभ हो जाता है। उस भाषा को
जनसमुदाय के प्रत्येक क्षेत्र के व्यक्ति ‘मानक’ समझने लगते हैं। यह भाषा-रूप सांस्कृतिक मूल्यों का भी प्रतीक बन
जाता है। इस भाषा-रूप की शब्दावली, व्याकरण एवं उच्चारण का स्वरूप अधिक निश्चित एवं स्थिर हो होता है।
कलात्मक एवं सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का माध्यम भी यही भाषा-रूप होता है।
 
मानक भाषा के ही आधार पर प्रायः साहित्यिक रचनाएँ भी होती हैं। जिस भाषा-क्षेत्र में शिक्षा का व्यापक
प्रचार-प्रसार होता है, उसमें मानक भाषा और साहित्यिक भाषा का अंतराल अत्यंत कम रहता है किंतु जहाँ साक्षरता
समाज के कुछ वर्गों तक सीमित होती है वहाँ मानक भाषा एवं साहित्यिक भाषा में अंतर अधिक रहता है। उस
स्थिति में यदि साहित्य में प्रयुक्त होने वाली भाषा समय की गति के अनुसार नहीं बदलती तथा अपेक्षाकृत स्थिर बनी
रहती है तो उसका जीवंत कथ्य रूपों से संबंध टूट जाता है । वही मृत भाषा हो जाती है। यह स्थिति मध्य भारतीय
आर्यभाषा काल में संस्कृत के साहित्यकारों में देखी जा सकती है। उस युग में संस्कृत केवल साहित्य में प्रयुक्त होने
वाली भाषा होकर रह गयी थी और सामाजिक जीवन में उसका व्यवहार बंद हो गया था। यही कारण है कि अपनी
बात को जन-जन तक संप्रेषित करने के लिये बुद्ध ने पालि तथा महावीर ने अर्द्ध-मागधी अपनाई, संस्कृत नहीं ।
वर्तमान या समकालीन हिंदी साहित्य की भाषा मानक भाषा के अधिक निकट आ रही है। इतना अवश्य है कि मानक
भाषा और साहित्यिक भाषा में अंतर होता है। इसका कारण यह है कि साहित्यिक भाषा लिखी जाती है, मानक भाषा
बोली जाती है। मानक भाषा में भाषायी व्यवस्थाओं की निश्चित संरचना होती है जबकि साहित्य में साहित्यकार इस
सामान्य संरचना से इतर व्यवस्थाओं के नये प्रयोग करता है, शब्दों को नवीन अर्थ प्रदान करता है। इस कारण
साहित्यिक भाषा में भाषायी तत्वों की ही योजना नहीं होती उसमें शैली के उपादान भी समाहित होते हैं।
 
वास्तव में ‘भाषा’ से अर्थ अपने भाषा-क्षेत्र के समस्त भाषिक रूपों के समूह से होता है। विविध क्षेत्रीय
भाषिक रूपों में से किसी एक रूप के आधार पर उस भाषा के ‘मानक रूप’ अथवा ‘परिनिष्ठित रूप’ का विकास
होता है । प्रायः इसी परिनिष्ठित भाषा के आधार पर साहित्यिक भाषा भी विकसित होती है। यह भी द्रष्टव्य है कि
मानक भाषा की मुलाधार बोली, मानक भाषा और साहित्यिक भाषा पर्याय नहीं हैं। इसमें स्वरूपगत अंतर सदैव
विद्यमान रहते हैं।
 
जबसे मनुष्य ने अपनी भावनाओं संवेदनाओं और विचारों को ठोस रूप देकर उसे सुरक्षित रखने के लिये लेखर
कर आविष्कार कर लिया तभी से अभिव्यक्त भाषा के स्वभाव में भी परिवर्तन आने लगे। इस तरह मनुष्य ने अपनी
भावनाओं और संवेदनाओं को व्यक्त करने के लिये साहित्य-लेखन का मार्ग अपनाया। साहित्य में अभिव्यक्ति की
अपनी अलग भाषा होती है। इस भाषा को ही कभी ब्याज से रचनात्मक भाषा भी कहते हैं। वास्तव में साहित्य
को रचनात्मक भाषा में शब्द वे ही होती हैं परंतु रचनाकार की खूबी होती है कि वह विशिष्ट संदर्भो में उन शब्दों
के अर्थपरक आयाम को बहुविस्तृति प्रदान कर इसमें नयी अर्थवत्ता भर देते हैं। साहित्यिक भाषा में रचनात्मकता की
अपेक्षित स्थिति होती है क्योंकि इसी कारण भाषा के माध्यम से रचना में अपेक्षित सामाजिक संदर्भो को व्यक्त कर
उसमें शाश्वतता लाई जा सकती है।
 
साहित्य में रचनात्मक भाषा के प्रयोग से क्षेत्र विशेष की सांस्कृतिक अस्मिता को पूरे वेग और व्यंजना के साथ
प्रकट किया जाता है। साहित्यिक संवेदना का रेखांकन बगैर इस रचनात्मक भाषा के संभव नहीं होता । सांस्कृति संदर्भ
से जुड़े रहने के कारण पूरा परिवेश और परंपरा तथा सहज मानसिकता का रचनात्मक भाषा में संश्लेषण होता है
कविता को इसीलिये शब्दों का भी खेल कहते हैं। कवि शब्दों की मार्फत अपना संदेश देता है। शब्दों में अभिनव
अर्थ से युक्त कर कवि वर्तमान की समस्याओं का निदान ढूँढता है। नये अर्थ संजोकर कवि शब्दों के सुनिश्चित अर्थ
पर विराम डाल देता है। जीवन की अनुभूतियों का वैविध्य साहित्य में इस रचनात्मक भाषा के कारण ही आता है।
ये शब्द अपने पेटे में अपार गहनता और व्यापकता समेटे होते हैं। वास्तव साहित्यिक भाषा में भावों, विचारों और
संवेदनाओं को व्यक्त करने की अपूर्व क्षमता भाषा के इसी रचनात्मक सौकर्य के कारण आती है।
 
                             लोकभाषा:
 
किसी भी राष्ट्र की भाषा के आमतौर पर दो रूप होते हैं—एक राष्ट्रभाषा और दूसरी वहाँ के विभिन्न जनपदों
में प्रचलित लोक-भाषाएँ । राष्ट्रभाषा समस्त राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है। राजकीय दृष्टि से विभाजित क्षेत्रों-राज्यों
को समग्र राष्ट्रीयता के एक सूत्र में पिरोये रखने का श्रेय उसे ही प्राप्त होता है। उसे लेकर ही राष्ट्रीय इतिहास का
निर्माण होता है। इस प्रकार किसी विश्वमान्य भाषा के सहारे राज्यों और राष्ट्रों में विभाजित संपूर्ण मानवीय जगत
‘वसुधैव कुटुंबकम’ की तरह समीप आता जाता है। लेकिन लोकभाषाएँ इन सबकी जड़ में अंतर्निहित वह शक्ति है।
जिसे लेकर ही राष्ट्रभाषा समृद्ध होती है। वे राष्ट्रीय इतिहास की नहीं वरन् मानवीय जीवन का निर्माता होती हैं। उनके
सहारे ही हम लोक संस्कृति और लोक-जीवन का दर्शन कर सकते हैं। जिस तरह भिन्न-भिन्न व्यक्तियों, जनपदों और
राज्यों को लेकर राष्ट्रभाषा बनती है, उसी तरह विविधता में सुंदरता को लेकर राष्ट्रभाषा बनती है उसी तरह विविधता
में सुंदरता और एकता की तरह लोकभाषाओं से राष्ट्रभाषा समृद्ध और संपन्न होती है, उसका स्वरूप निखरता है।
 
लोक क्या है ? लोक-संस्कृति क्या है ? लोक साहित्य क्या है ? लोकभाषा का इन पहलुओं से अभिन्न संबंध
होता है। यह जो गाँवों और नगरों में, खेतों और खलिहानों में, गिरि-कंदराओं और मैदानों में, नदियो के मुहाने से
लेकर पर्वत-शिखरों तक मधुमक्खी के छत्ते की तरह असंख्य जनता फैली है यही तो लोक है। लोक की भाषा में
किसी बात को सहज साल ढंग से समझने-समझाने के लिये चिरंतन क्षमता होती है। लोकसभा
एक संस्कार है जो कभी नहीं बदलता ।
‘लोक’ शब्द का अर्थ होता देखने वाला । ‘लोक’ शब्द अत्यंत प्राचीन है। ऋग्वेद में ‘लोक’ शब्द के लिये
‘जन’ शब्द का भी प्रयोग उपलब्ध होता है। तभी आजकल ‘लोकभाषा’ को जनभाषा के नाम से भी जाना जाने
लगा है। डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘लोक’ शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है कि ‘लोक’ शब्द का अर्थ ‘जनपद’
या ग्राम्य नहीं है बल्कि नगरों और गाँवों में फैली हुई वह समूची जनता है जिनके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियाँ
नहीं हैं। ये अधिक सरल और अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त होते हैं। इन्हीं लोगों की भाषा को लोकभाषा कहा जाता
है। यह भाषा मौखिक और परंपरा से चली आ रही है। कहा जाता है कि यह भाषा जबतक मौखिक रहती है तभी
तक इसमें ताजगी तथा जीवन पाया जाता है। लिपि की कारा में रखते ही इसकी संजीविनी शक्ति नष्ट होने लगती है।
 
वास्तव में साधारण जनता जिन शब्दों में गाती, रोती और हँसती है, खेलती है वही लोकभाषा है। पुत्र-जन्म
से लेकर मृत्यु तक जिन षोडष संस्कारों का विधान साहित्य में रखा जाता है वही लोकभाषा है। लोकभाषा का
शब्द-भंडार अक्षय है। लोक-जीवन के विविध पहलू, लोक-संस्कृति, लोकगीत, लोकगाथाएँ, लोक-कहावतें, और
लोकाधार के विभिन्न सहज रूपों का भाषिक स्वरूप ‘लोकभाषा’ कहलाता है। लोकभाषा में लोक जीवन के
अनुभवों को उसकी संपूर्ण सामाजिकता तथा ऐतिहासिकता के साथ अंतर्गथित किये जाने की क्षमता होती है
लोक-जीवन की जीवंत रस-धारा जिस भाषा में व्यक्त हो पाती है वही लोकभाषा है। लोक-जीवन श्वास-प्रश्वास
की तरह लोकभाषा में अनुस्यूत होता है । यही वह भाषा है जिसमें लोकमन की सूक्ष्म अनुभूतियाँ संजोयी रहती हैं।
 
अंग्रेजी में लोकभाषा के लिये ‘फोक लैंग्वेज’ शब्द चलता है। ‘फोक’ का पर्याय ‘लोक’ है और ‘लैंग्वेज’
अर्थात भाषा- ‘लोक भाषा’। इसकी व्याख्या यह है कि ‘लोक’ मनुष्य समाज का वह वर्ग है जो आभिजात्य
संस्कार, शास्त्रीयता पांडित्य की चेतना और पाण्डित्य के अहंकार से शून्य है और जो एक परंपरा के प्रवाह में जीवित
रहता है। ऐस ही लोक की भाषा लोकभाषा कहलाती है। यह सृष्टि के आदि काल से ही मनुष्य के साथ निरंतर
गति से चली आ रही है। भाषा का यह प्रवाह अनंत है, अनादि है। मनुष्य अपनी अंतः प्रेरणा से ही उसे सीखता
आया है और आजीवन वह उसे सीखता तथा व्यवहार करता है । वस्तुतः बोलचाल की भाषा की तरह ही उसकी
अपनी प्रकृति और विशेषताएँ होती हैं।
 
लोकभाषा में भी उच्चारणगत भिन्नताओं एवं बोलने के लहजे कारण बोलचाल की भाषा की तरह क्षेत्र
विशेष में लोकभाषा का अपना रूप स्थिर होता है। यह लोक भाषा या बोल चाल की भाषा ही भाषा-निर्माण का
ठोस आधार तैयार करती है। कहा जाता है कि रचनात्मकता की घुटन का ही परिणाम होता है कि कई बार वापस
लौटकर पुनः लोकभाषा के पास हमें जाना पड़ता है। यही भाषा वस्तुत: एक तरह से मूल भाषा की मानिंद होती
है। इस भाषा का जीवन प्रायः सदा के लिये अक्षुण्ण रहता है।

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