भाषा-विज्ञान की शाखाएँ
भाषा-विज्ञान की शाखाएँ
भाषा-विज्ञान की शाखाएँ
भाषा की परिभाषा रेखांकित करते हुए हमने जाना है कि भाषा-विज्ञान विज्ञान की वह शाखा है जिसमें भाषा
का (विशिष्ट और सामान्य, समकालिक और ऐतिहासिक, तुलनात्मक और प्रायोगिक) दृष्टि से अध्ययन किया जाता
है, जिसके अध्ययन के द्वारा भाषा की उत्पत्ति, गठन, प्रकृति एवं विकास आदि की सम्यक व्याख्या करते हुए इन
सभी प्रकरणों के विषय में वैज्ञानिक सिद्धांतों का निर्धारण किया जाता है।
स्पष्ट है भाषा के वैज्ञानिक अध्ययन हेतु भाषा से संबंधित प्रायः सभी प्रश्नों पर विचार किया जाता है। इन
सारे प्रश्नों में कुछ प्रश्न तो अपने आप में आधारभूत महत्त्व रखते हैं और कुछ आनुषंगिक । स्पष्ट है इसी कारण भाषा
की अनेक शाखाएँ निर्मित की गयी हैं। इनमें कुछ शाखाएँ तो प्रमुख या प्रधान हैं और कुछ शाखाएँ गौण हैं।
(क) प्रधान शाखाएँ:
1. वाक्य-विज्ञान―भाषा का एकमात्र प्रमुख प्रकार्य भावों और विचारों का आदान-प्रदान है। विचारों का
आदान-प्रदान वाक्यों द्वारा ही संभव हो पाता है। अतः निश्चय ही वाक्य, भाषा की सर्वाधिक स्वाभाविक और
महत्त्वपूर्ण शाखा के रूप में जाना जाता है । भाषा विज्ञान की जिस शाखा में वाक्य के विषय में अध्ययन-विश्लेषण
किया जाता है उसे वाक्य-विज्ञान कहा जाता है। वाक्य-विज्ञान के तीन रूप होते हैं :
(क) समकालिक
(ख) ऐतिहासिक, और
(ग) तुलनात्मक ।
वाक्य-रचना का प्रत्यक्ष संबंध पदक्रम, अन्वय, निकटस्थ अवयव केन्द्रिकता, परिवर्तन के कारण, परिवर्तन की
दिशाएँ आदि दृष्टियों से किया जाता है। भाषा-विज्ञान की यह शाखा अपेक्षया कठिन मानी जाती है। इस दिशा में
कार्य तो काफी हुए हैं परंतु अभी भी इस क्षेत्र में काफी कार्य की जरूरत है।
2. पद-विज्ञान (रूप-विज्ञान)―वाक्य का निर्माण पदों (रूपों) से होता है। यही कारण है कि भाषा
वैज्ञानिक अध्ययन क्रम में वाक्य के बाद पदों (रूपों) पर विचार किया जाना समीचीन माना गया है। पद-विज्ञान को
‘रूप-विज्ञान’ या ‘पद-रचनाशास्त्र’ भी कहा गया है। पद-विज्ञान के अंतर्गत संबंध तत्व, उसके प्रकार और रूप
भाषा के वैयाकरणिक रूपों के विकास, उसके कारण तथा धातु, उपसर्ग, प्रत्यय आदि उन तमाम उपकरणों पर विचार
किया जाता है जिनसे पद या रूप बनते हैं। पद-निर्माण या रूप निर्माण की प्रक्रिया भी इसके अंतर्गत आती है। इसका
अध्ययन भी समकालिक, तुलनात्मक तथा ऐतिहासिक-इन तीनों रूपों में किया जाता है।
3. ध्वनि-विज्ञान―शब्दों का आधार ध्वनियाँ हैं। ध्वनि-विज्ञान के अंतर्गत भाषा की ध्वनियों पर अनेक
दृष्टियों से विचार किया जाता है। इस शाखा के अंतर्गत ध्वनि-शास्त्र (फोनेटिक्स) एक विभाग है, जिसमें ध्वनि से
संबंध रखने वाले अवयवों (मुख-विवर, नासिका-विवर, स्वर-तंत्री और ध्वनि यंत्र आदि) ध्वनि उत्पन्न होने की क्रिया
तथा ध्वनि-लहर और उसके सुने जाने आदि का भी अध्ययन किया जाता है। किसी भाषा में प्रयुक्त ध्वनियों का वर्णन
और विवेचन आदि भी इसी शाखा के अंतर्गत आता है। ध्वनि-प्रक्रिया पर उसके कारणों एवं दिशाओं के विश्लेषण
के साथ विचार होता है। इस विज्ञान के अध्ययन के भी पूर्व की ही तरह समकालिक, ऐतिहासिक और
तुलनात्मक-तीन रूप होते हैं। इसमें एक ही भाषा-परिवार की भाषाओं को लेकर ध्वनि-विकास पर विचार करके
नियमों का निर्धारण किया जाता है। प्रसिद्ध ‘ग्रिम’ नियम का संबंध ध्वनि-विज्ञान से ही है।
इसमें भाषिक इतिहास का अध्ययन भी ध्वनि की दृष्टि से किया जाता है। ध्वनि-विज्ञान के अंतर्गत ध्वनि-ग्राम
विज्ञान जैसे कुछ नये उपविभाग भी बनाए गये हैं। ये ध्वनि के सूक्ष्म अध्ययन की गरज से किये गये हैं ।
4. अर्थ-विज्ञान―भाषा की शरीर-यष्टि वाक्य से चलकर ध्वनि की इकाई पर समाप्त होती है। इसके बाद
उसकी आत्मा पर विचार करना पड़ता है। आत्मा से तात्पर्य ‘अर्थ’ से है। शब्दों का अर्थ-विवेचन काफी बाद में
शुरू हुआ है क्योंकि काफी समय तक आधुनिक भाषा वैज्ञानिक इस प्रकरण को भाषा-विज्ञान के क्षेत्र का मानते ही
नहीं थे। वे इसे दर्शन का क्षेत्र मानते थे। हालाँकि अब यह तय हो चुका है कि अर्थ का भाषा से अत्यंत गहरा संबंध होता है।
‘अर्थ’ का अध्ययन भी समकालिक, ऐतिहासिक और तुलनात्मक-तीनों ही रूपों में होता है। अर्थ-विज्ञान में
प्रमुख रूप से शब्दों के अर्थ का निर्धारण, उसके स्तर, उसके विकास और कारणों आदि पर विचार किया जाता है।
इसके साथ ही अर्थ और ध्वनि के संबंध, पर्याय, विलोम आदि के विवेचन भी उसमें सम्मिलित होते हैं। भाषा-विज्ञान
में इस प्रकरण को ‘अर्थ-विचार’ कहकर भी अभिहित किया जाता रहा है।
भाषा-विज्ञान की ये सभी शाखाएँ अत्यंत प्रमुख तथा महत्त्वपूर्ण मानी गयी हैं। इसके अलावा भाषा-विज्ञान
की कुछ गौण शाखाएँ भी विकसित हुई हैं। भाषा को गहरे, अति गहरे रूप में जानने-समझने के लिये ही भाषा
वैज्ञानिक नित्य उपक्रम में लगे रहते हैं।
उपर्युक्त चार प्रमुख शाखाओं के अलावा एक और प्रमुख शाखा की उद्भावना हिंदी के ख्यात भाषा-वैज्ञानिक
डॉ० भोला नाथ तिवारी ने की है। जिसका नाम है ‘शब्द-विज्ञान’ । वे कहते हैं कि पद-विज्ञान में शब्दों की रचना
पर तो विचार होता है परंतु शब्दों का वर्गीकरण, नाम-विज्ञान, व्यक्ति या भाषा के शब्द-समूह में परिवर्तन के कारण
और दिशाओं आदि का विचार शब्द-विज्ञान के अंतर्गत आएगा। कोश-विज्ञान एवं व्युत्पति का विज्ञान भी
शब्द-विज्ञान के ही अंग है। इस शाखा में शब्दों का तुलनात्मक अध्ययन भी किया जाता है । यह अध्ययन प्रमुख
रूप से,व्युत्पत्तियों के संदर्भ में किया जाता है।
भाषा-विज्ञान की कुछ गौण शाखाएँ:
1. भाषा की उत्पत्ति–भाषा-विज्ञान का सर्वाधिक स्वाभाविक एवं आवश्यक प्रश्न भाषा की उत्पत्ति का है।
इस प्रश्न पर विद्वानों ने तरह-तरह से विचार कर अनेक सिद्धांतों का प्रदिपादन किया है। आधुनिक काल के अधिकांश
विद्वान तो एक सीमा में ही इसे भाषा-विज्ञान की शाखा के रूप में मानते हैं, परंतु सच तो यह है कि यह भी उसकी
एक शाखा ही है। जब भाषा का पूरा जीवन हमारे अध्ययन का विषय है, तो इसके जन्म से जुड़े प्रश्नों को हम
नजरअंदाज नहीं कर सकते । इसमें कोई संदेह नहीं कि इसका अध्ययन कठिन जरूर है। परंतु इस पर अनुसंधान और
विचार तो चलते ही रहेंगे ।
2. भाषाओं का वर्गीकरण–भाषा-विज्ञान की शब्द-विज्ञान को लेकर पाँच प्रधान शाखाओं (वाक्य, पद,
शब्द, ध्वनि और अर्थ) के आधार पर संसार की भाषाओं का तुलनात्मक और ऐतिहासिक अध्ययन कर उनका
वर्गीकरण इस शाखा के अंतर्गत किया गया है। इसी आधार पर यह तय किया गया है कि कौन-कौन भाषाएँ एक
परिवार की हैं। इसके साथ ही इससे अर्थ या ध्वनि संबंधी अनेक गुत्थियों पर भी प्रकाश पड़ता है। तात्विक दृष्टि
से यह क्षेत्र प्रधान पाँचों शाखाओं को मिलाकर अध्ययन की एक स्वतंत्र शाखा बनाई गयी है।
3. भाषा काल-क्रम-विज्ञान―भाषा-विज्ञान में सांख्यकीय पद्धति से काम करने या सांख्यिकी की सहायता
से अध्ययन का सिलसिला 19वीं शताब्दी में ही प्रारंभ हो चुका था। ह्विटनी जैसे विद्वानों ने 1874 ई० में अंग्रेजी की
ध्वनियों पर इस पद्धति से कुछ कार्य किया था ।
भाषा काल-क्रम-विज्ञान में वर्णनात्मक भाषा-विज्ञान के आधार पर एक भाषा-परिवार की दो या अधिक
भाषाओं के शब्द-समूह को एकत्र किया जाता है और फिर उसका तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है। इस
तुलनात्मक अध्ययन में पुराने शब्दों के लोप और नये के आगम के आधार पर भाषाओं के एक मूल. भाषा से अलग
होने के काल तक का पता लगाया जाता है। साथ ही, कभी-कभी ऐसी भाषाओं में जिनमें कुछ समानता हो और
कुछ भिन्नता हो जिसके कारण उनके एक परिवार के होने के संबंध में निश्चयात्मक रूप से कुछ भी कहना कठिन
हो, भाषा काल-क्रम-विज्ञान के आधार पर उनके एक परिवार के होने या न होने के संबंध में अपेक्षया अधिक निश्चय
के साथ कहा जा सकता है। एक ही भाषा के दो कालों का शब्द-समूह ज्ञात हो तो उनके बीच के समय के संबंध
में भी इसके आधार पर कुछ कहा जा सकता है। इस प्रकार वर्णनात्मक और तुलनात्मक भाषा-विज्ञान पर आधारित
भाषा-विज्ञान की इस शाखा के आधार पर ऐतिहासिक भाषा-विज्ञान की बहुत सी गुत्थियों को सुलझाने की संभावना
बढ़ गयी है।
4. भाषिक भूगोल-शाखा–भौगोलिक विस्तार में स्थानीय वैशिष्ट्य की दृष्टि से किसी क्षेत्र की भाषा का
अध्ययन ही भाषिक भूगोल शाखा का विषय है। इसे ही ब्याज से भाषा या बोली आदि में ध्वनि, सुर, शब्द-समूह,
रूप (पद), वाक्य-संरचना एवं मुहावरे आदि की दृष्टि से कहाँ और क्या अंतर है या उसकी क्या विशेषताएँ हैं, इन्हीं
सभी पक्षों का अध्ययन भाषिक भूगोल नामक शाखा का मुख्य विषय है।
भाषा-भूगोल में सर्वप्रथम क्षेत्र विशेष के भिन्न-भिन्न स्थानों की भाषा का वर्णनात्मक अध्ययन किया जाता
है और फिर उन विभिन्न स्थानों की भाषा विषयक विशेषताओं का तुलनात्मक अध्ययन कर यह निश्चय किया जाता
है कि कितने स्थानों की भाषा में लगभग साम्य है। इतना ही नहीं स्थानीय अंतर कहाँ कम है और कहाँ अधिक-इस
पर भी विचार किया जाता है। साथ ही कहाँ से भाषा में इतना परिवर्तन आरंभ हो गया है कि एक क्षेत्र का व्यक्ति
दूसरे क्षेत्र की भाषा को समझ सके, इस पर भी विचार किया जाता है। इन बातों का निर्धारण हो जाने पर यह
सुनिश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस क्षेत्र में इतनी भाषाएँ हैं और उनके क्षेत्र की सीमा अमुक जगह तक
है। साथ ही, प्रत्येक भाषा के अंतर्गत आने वाली बोलियों और प्रत्येक बोली की उपबोलियों एवं उनके क्षेत्रों तथा
एक-दूसरे की अलग करनेवाली विशेषताओं का भी निर्धारण किया जाता है।
5. भाषाद्धृत प्रागैतिहासिक खोज–भाषा-विज्ञान की यह शाखा इतिहास, सभ्यता और संस्कृति की दृष्टि से
अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसमें इतिहास के उस अंधे युग पर, जिसके संबंध में कोई भी सामग्री उपलब्ध नहीं होती, भाषा
के सहारे प्रकाश डाला जा सकता है। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने भाषा-विज्ञान की इस शाखा की नींव डाली थी।
इस तरह की खोज के लिये पहले किसी भाषा के प्राचीन शब्दों को लिया जाता है; तत्पश्चात् उस परिवार
की अन्य भाषाओं के प्राचीन शब्दों की तुलना के आधार पर यह निश्चित किया जाता है कि प्राचीनतम काल के शब्द
कौन-कौन थे । इन शब्दों को कट्ठा करके उनका विश्लेषण कई दृष्टियों से किया जाता है। सामाजिक, धार्मिक आदि
वर्गों में शब्दों को अलग-अलग करके अनुमान लगाया जाता है कि उस समय की सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक
दशा क्या थी। जानवरों के नामों से यह पता चलता है कि उनके पास कौन-कौन से जानवर थे। ‘क्रियापरक’ शब्दों
से उनके सामाजिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। इस तरह यथासाध्य उन शब्दों के आधार पर जीवन के प्रत्येक अंग
की छानबीन की जाती है और एक पूरा नक्शा तैयार करने की कोशिश की जाती है।
साथ ही प्रकृति, पर्वत, नदी, पेड़-पौधे तथा ऋतु से संबंधित शब्दों के आधार पर यह अनुमान भी लगाया जाता
है कि किस स्थान पर इन सबका इस रूप में पाया जाना संभव है। इससे उसके आदिम स्थान का अनुमान लगाना
सहज हो जाता है
6. मनोभाषा-विज्ञान―इस शाखा में भाषा के मनोवैज्ञानिक संदर्भो एवं पक्षों पर विचार किया जाता है।
वास्तव में, भाषा हमारे मनोभावों एवं विचारों को ही तो व्यक्त करती है। इसी कारण शब्दों के प्रयोग में हम बहुत
सतर्क रहते हैं। हम सदा ही शब्दों के चयन की प्रक्रिया से जुड़े रहते हैं। जाहिर है चयन की यह प्रक्रिया हमारे
मन की विशिष्ट स्थिति की संकेतिका है। इसी कारण इस शाखा में मानसिकता एवं मन की गुह्यता के अध्ययन
के आधार पर भाषा का अध्ययन करते हैं।
7. समाज भाषा-विज्ञान―भाषा पूर्णतया सामाजिक वस्तु है। व्यक्ति समाज में ही उसे सीखता है। समाज
में ही वह उसका प्रयोग करता है। स्पष्ट है भाषा और समाज अन्योन्याश्रित हैं। इस संबंध का ही परिणाम है कि
भाषा अपनी व्यवस्था में समाज के अनुरूप होती है। साथ ही उसका विकास भी सामाजिक विकास के समानांतर
चलता है । किसी समाज के विषय में उसके द्वारा प्रयुक्त भाषा के आधार पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। भारतीय
भाषाओं में चाचा, ताऊ, मामा, मौसा जैसे संबंध द्योतक शब्दों का अभाव है। जाहिर है भारतीय समाज में इन
मानवीय संबंधों का वहाँ की अपेक्षा अधिक महत्व रहा है । फारसी में बड़े लोगों के लिये समानार्थ क्रिया के बहुवचन
रूप का प्रयोग इस तथ्य का प्रमाण है कि वहाँ की सामंती व्यवस्था में अमीर या बड़े आदमी एक से अधिक सामान्य
या निम्न श्रेणी के व्यक्ति के बराबर माने जाते थे। जापान में राजा तथा राजघराने के लोगों के लिये सामान्य भाषा
से अलग शब्दों एवं रूपों के प्रयोग इस बात के संकेत हैं कि वहाँ के समाज में राज्य का स्थान बहुत ही विशिष्ट
हुआ करता रहा है।
संभवतः भाषा और समाज के इस अभिन्नत्व के कारण ही इस शाखा का जन्म हुआ है। भाषा के इस
सामाजिक संदर्भ को व्याख्यायित करने वाली इस शाखा का संबंध वास्तव में सामाजिक विज्ञान से भी बनता है।
8. लिपि-विज्ञान―वैसे लिपि भाषा का प्रत्यक्ष अंग नहीं है। तभी कुछ विद्वान इसे भाषा-विज्ञान की शाखा
के रूप में स्वीकार करना नहीं चाहते किंतु फिर भी प्रत्यक्षतया भाषा-विज्ञान के अंतर्गत न आने पर भी भाषा-विज्ञान
के अंतर्गत इसका अध्ययन असंबंद्ध नहीं माना जा सकता। हमें पता है कि लिखित भाषा में लिपि का सहारा नितांत
अपरिहार्य है। जाहिर है इसी कारण भाषा-विज्ञान के अंतर्गत यदि इसके अध्ययन को भी भाषा वैज्ञानिक कुछ ही
सीमा तक सही मानते हैं तो इसके पीछे एक तर्क है। लिपि की उत्पत्ति विकास शक्ति तथा उपयोगितायें पर कुछ
ऐसे प्रकरण हैं जिनपर भाषा-विज्ञान की इस शाखा में विचार किया जाता है। ध्वनि-विज्ञान की सहायता से लिपि
के सुधार आदि पर भी इस शाखा में विचार किया जात है।
9. शैली-विज्ञान―भाषा-विज्ञान की यह शाखा वस्तुत: बहुत नई नहीं है। बहुत पूर्व में ही भाषा-शास्त्रियों
का ध्यान इस पर गया था। सच तो यह है कि हर व्यक्ति की शैली ही उसके व्यक्तित्व के अनुरूप होती है।
इसीलिये कहा जाता है कि ‘स्टाइल इज द न हिमशेल्फ ।’
प्रश्न है, शैली है क्या? वास्तव में भाषा के संदर्भ में शैली का प्रत्यक्ष संबंध अभिव्यक्ति से जुड़ा हुआ है।
हर भाषा में ध्वनि, शब्द-समूह, रूप-रचना तथा वाक्य- संरचना की दृष्टि से अभिव्यक्ति का एक सर्व स्वीकृत मानक
या परिनिष्ठित रूप होता है, जिसे उस भाषा में अभिव्यक्ति का एक सामान्य ढंग कह सकते हैं। जो लेखन में या
बोलने में इसी सामान्य रूप का प्रयोग करते हैं, उनकी अपनी कोई शैली नहीं होती । शैली मानी जाती है उनकी जो
इस सामान्य रूप से ध्वनि, शब्द-समूह, रूप-संरचना और वाक्य-संरचना आदि की दृष्टि से हटकर भाषा का प्रयोग
करते हैं । इस प्रकार शैली विशेष के लिये आवश्यक है कि चुनकर भाषिक ईकाइयों का ऐसा प्रयोग हो जो सामान्य
की तुलना में विशेष या अलग हो । भाषा की सामान्य अभिव्यक्ति पूरे भाषा-समाज की होती है, किन्तु शैली व्यक्ति
की या वैयक्तिक होती है। इसका मुख्य आधार है चयन । व्यक्ति अपनी आवश्यकता और रुचि के अनुकूल चयन
कर अपनी अभिव्यक्ति करता है। महाकवि निराला या पंत को उनके चयन की इसी प्रक्रिया के आधार पर पाठक
पहचान लेता है। यह आधार है उनकी शैली । वास्तव में भाषा-विज्ञान में शैली का अध्ययन ही शैली-विज्ञान है।
10. भू-भाषा विज्ञान―इसके अंतर्गत विश्व में भाषाओं का वितरण, उनके राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक
और सांस्कृतिक महत्त्व का आकलन, कैसे एक-दूसरे पर अंत:क्रिया करती हैं, राष्ट्रों की संस्कृति भाषा को कैसे
प्रभावित करती है ; यहाँ तक कि राष्ट्रभाषा और राजभाषा जैसे प्रकरणों का अध्ययन भी इस शाखा के अंतर्गत किया
जाता है। यह शाखा वास्तव में भाषा-विज्ञान की अपेक्षाकृत नयी शाखा है।
11. व्यक्ति-बोली विकास-शाखा―वस्तुतः अंग्रेजी का ‘आटोजेनी’ शब्द मूलतः जीव-विज्ञान का है
जिसका प्रयोग 1870 के आस-पास किसी एक व्यक्ति के विकास के अर्थ में किया गया था । आधुनिक काल में
भाषा वैज्ञानिकों ने इसके साथ भाषिक शब्द जोड़कर उसे भाषा-विज्ञान की एक शाखा के रूप में स्वीकार कर लिया
है। इसमें व्यक्ति विशेष की बोली या व्यक्ति विशेष की भाषा के, जन्म से लेकर मृत्यु तक के विकास की प्रक्रिया
का विस्तृत और गहन अध्ययन किया जाता है। कह सकते हैं कि इसमें एक व्यक्ति की भाषा के विकास (जन्म
से मृत्यु तक) का अध्ययन-विश्लेषण वैज्ञानिक पद्धति पर किया जाता है। सैद्धांतिक दृष्टि से इस विषय पर हॉकेट
जैसे भाषाविद् ने काफी विचार किया है।
सब जानते हैं कि छोटे बच्चों में भाषा जैसी कोई चीज नहीं होती, किंतु भूखा रहने पर या दर्द होने पर पीड़ित
होकर वह रोकर या अंगों को पीटकर अपनी बात व्यक्त करना चाहता है। यही प्रतिक्रिया बच्चों के लिये भाषा की
मनिंद है। हर माँ समय और स्थिति के आधार पर इन प्रतिक्रियाओं से उसकी भूख और दर्द होने की स्थिति का
अनुमान कर लेती है। बच्चा धीरे-धीरे यह जान लेता है कि भूखा रहने पर रोने की क्रिया द्वारा वह खाना खा सकता
है। फिर तो रोने की क्रिया का वह भाषा के रूप में प्रयोग करने लगता है। इतना ही नहीं, माँ अनेक संदर्भो को
उसे अनेक संकेतों या इशारों से ही समझा देती है। बच्चा समझ भी लेता है। इस तरह अपने विचारों का
आदान-प्रदान बच्चे छोटी अवस्था से ही करने लगते हैं। इस शाखा में इसी का अध्ययन किया जाता है।
12. सर्वेक्षण-पद्धति शाखा―यदि हमें किसी ऐसी भाषा का सर्वेक्षण करना हो, जिसकी सामग्री लिखित रूप
में हमें उपलब्ध नहीं है और वह भाषा किसी खास क्षेत्र में प्रयोग में आ रही है, तो क्षेत्र में जाकर उस भाषा के
प्रयोग करने वालों को सुनकर, अध्ययन के लिये अपेक्षित सामग्री संकलित करने की स्थिति बनाते हैं। वस्तुत:
अध्ययनार्थ अपेक्षित सामग्री संकलित करने की पद्धति ही सर्वेक्षण-पद्धति कहलाती है। इसके लिये सामग्री संकलन
की दो पद्धतियाँ होती हैं : 1. स्वयं उस क्षेत्र में जाकर यह संकलन तैयार करना, और 2. उस भाषा को मातृभाषा
के रूप में बोलने वाले अर्थात् मातृभाषा भाषी को अपने यहाँ बुलाकर । इस संदर्भ में सूचना देने वाला व्यक्ति अर्थात्
सूचक एक महत्त्वपूर्ण इकाई है। स्वयं सर्वेक्षण करनेवाला व्यक्ति योग्य एवं प्रशिक्षित होना चाहिये । सर्वेक्षक इस हेतु
एक प्रश्नावली पूर्व से तैयार कर लेता है । सूचक से हुई बातों की रिकार्डिंग तैयार की जाती है। उपलब्ध सामग्री को
सर्वेक्षक साथ-साथ लिखता जाता है। साथ ही उसके विशेष अर्थ भी वह लिखता जाता है। जाहिर है, इसमें सूचक
कैसा चुनें, सर्वेक्षक कैसा हो, प्रश्नावली कैसे बनाएँ, सामग्रियों को किस तरह लिखें, यह सब अत्यंत महत्त्व की बातें हैं।
13. सांख्यिकीय भाषा-विज्ञान―भाषा-विज्ञान की इस शाखा में सांख्यिकी के आधार पर भाषा के विभिन्न
पक्षों पर गहनता से विचार किया जाता है। यह गणितीय भाषा-विज्ञान के अंतर्गत आता है। सांख्यिकी गणित की
ही एक शाखा है। यह जान-समझकर विस्मय होता है कि भाषा-विज्ञान के क्षेत्र की अपेक्षाकृत यह नयी शाखा
भारतवर्ष के लिये सर्वथा नयी नहीं है। सच तो यह है कि इस दिशा में पहला कार्य करने का श्रेय भी भारत को
ही जाता है । ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी ईस्वी पूर्व में बनायी गयी वैदिक अनुक्रमणियाँ वास्तव में और कुछ नहीं
सांख्यिकी भाषा-विज्ञान की ही पृष्ठभूमि है। सारे संसार के भाषाविदों ने इसे अपने ढंग का अनूठा प्रयास माना है।
14. तुलनात्मक पद्धति या पुनर्निर्माण शाखा―तुलनात्मक पद्धति भाषा-विज्ञान में पूर्व से ही अध्ययन की
पद्धति के रूप तुलनात्मक भाषा-विज्ञान के ही अंग की तरह है, परंतु इसकी विशेषता यह है कि इसमें दो या दो से
अधिक भाषाओं या बोलियों के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर पहले से ही निश्चय किया जाता है कि वे एक
ही परिवार की है या नहीं, और फिर सूक्षम तुलना के आधार पर उन भाषाओं या बोलियों की पूर्वजा भाषा-(जिनसे
उनकी उत्पत्ति हुई है, जैसे हिन्दी के लिये अप्रभंश या फिर संस्कृत) का पुनर्निर्माण किया जाता है, अर्थात् उसकी
ध्वनियों तथा उसके व्याकरणिक रूपों एवं अन्य नियमों आदि को ज्ञात किया जाता है।
17वीं सदी से लेकर अब तक भाषा के पारिवारिक वर्गीकरण एवं पारिवारिक अध्ययन के क्षेत्र में जो कार्य हुए
हैं उसका आधार तुलनात्मक पद्धति ही है। इस पद्धति में पहले दो भाषाओं के शब्दों को एकत्र कर उनका तुलनात्मक
अध्ययन किया जाता है। शब्दों के तुलनात्मक अध्ययन के फलस्वरूप देखा गया है कि दोनों भाषाओं के बहुत-से
शब्दों में ध्वनि (या रूप) और अर्थ की दृष्टि से बहुत साम्य है। स्पष्ट ही यह एक वैज्ञानिक पद्धति है।
ऊपर जिस सांख्यिकीय शाखा की चर्चा की गयी है, अपने यहाँ की संहिताओं पर इस दृष्टि से कार्य हुआ है।
इनमें से एक के अनुसार ऋग्वेद में 1017 मंत्र, 10580.5 छंद, 153826 शब्द तथा 432002 अक्षर हैं।
यों आधुनिक काल के सांख्यिकीय भाषा-विज्ञान का प्राचीन भारतीय कार्य से कोई तालमेल नहीं है। कहा
जाता है कि सर्वप्रथम रूसी भाषाविद् बुंजकोपस्की ने 1847 ई० में भाषा-विज्ञान में गणित के प्रभाग के प्रयोग की
संभावना जताई थी। सांख्यिकी भाषा-विज्ञान में ध्वनि, ध्वनि ग्राम, अक्षर, शब्द, रूप, मुहावरे, लोकोक्तियाँ तथा वाक्यों
की पद्धति आदि सभी भाषिक इकाइयों की गणना की जाती है और उनके आधार पर अनेक दृष्टियों से उपयोगी
परिणाम निकाले जा सकते हैं। इसके द्वारा किसी रचनाकर के बारे में किसी कवि या लेखक की विभिन्न रचनाओं
के कालक्रम के बारे में, किसी भाषा से दूसरी या कई भाषाएँ कब निकली, किसी भाषा की आधारभूत शब्दावली
कितनी है, आधारभूत व्याकरणिक ढाँचा क्या है, ये सब जाने या बताए जा सकते हैं।
इन सभी शाखाओं के अलावा कुछ अन्य दृष्टियों एवं आधारों पर भी अध्ययन किया जाता है। इनमें कुछ
का भाषा-विज्ञान के विभागों-उपविभागों के रूप में उल्लेख किया जाता है। जैसे ‘सुर-विज्ञान’ जिसमें भाषा के सुरों
का अध्ययन होता है। इसमें से लघुतम सार्थक भाषिक इकाई का अध्ययन संभव होता है। ऐसे ही भाषा-विकास
में भाषा में परिवर्तनशीलता तथा उसके कारणों की खोज की जाती है। ‘रूपांतरण’ नामक शाखा में भाषा के व्याकरण
एवं ध्वनियों के रूपांतरण की दृष्टि से अध्ययन किया जाता है। ‘व्यतिरेकी विश्लेषण’ भाषा-विज्ञान की ऐसी शाखा
है जिसमें दो भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन करके उनकी समानताओं का विश्लेषण किया जाता है।
बोली-विज्ञान भी भाषा-विज्ञान की एक उप शाखा है जिसमें उनकी ध्वनियों तथा रूप विषयक विशेषताओं
के आधार पर ही वर्गीकरण किया जाता है। जाहिर है यह भाषाओं के रूपात्मक या आकृतिमूलक वर्गीकरण के
अधिक समीप की शाखा प्रतीत होती है।
इधर एक नयी शाखा भी प्रकाश में आई है जिसे ‘जाति-विज्ञान’ के नाम से अभिहित किया जाता है। इस
शाखा में जाति-विज्ञान और भाषा-विज्ञान इन दोनों विज्ञानों के संबंधों और आपसी प्रभावों का अध्ययन किया जाता
है । भाषा की प्रकृति और भाषा-विज्ञान के इतिहास आदि का अध्ययन भाषा-विज्ञान की विशिष्ट शाखा
के अंतर्गत किया जाता है।
Amazon Today Best Offer… all product 25 % Discount…Click Now>>>>