मंगर

 मंगर

                               मंगर

हट्टा-कट्टा शरीर । कमर में भगवा । कंधे पर हल । हाथ में पैना ।
आगे-आगे बैल का जोड़ा । अपनी आवाज से हहास से ही बैलों को भगाता मेरे.
खेत की ओर सुबह-सुबह जाता – जब से मुझे होश है, मैंने मंगर को इसी रूप
में देखा है, मुझे ऐसा लगता है ।
 
हाँ, मुझे याद आता है, हल के बदले कभी-कभी मुझे भी उसके कंधे पर
चढ़ने का सौभाग्य मिल चुका है । लेकिन, ऐसे मौके बहुत कम आये हैं ।
क्योंकि; न जाने क्यों, मंगर को बच्चों से वह स्वाभाविक स्नेह नहीं जो
उसके-ऐसे लोगों में प्राय: देखा जाता है। उसे देखकर बच्चे भागते ही रहे हैं
और आज जब मंगर अशक्त, जर्जर हो चुका बच्चे, मानो इसका बदला
चुकाने को, अपनी छोटी छड़ियों से उसे छेड़कर भागते हैं और जब वह झल्लाता
है, उन्हें मारने के लिए अपनी बुढ़ाने की लकुटिया खोजता या खीझकर गालियाँ
बकने लगता है, तो वे खिलखिला पड़ते और मुँह चिढ़ाने लगते हैं ।
 
बच्चों से उसकी वितृष्णा क्यों हुई ? शायद इसलिए तो नहीं कि उसे जो
एक ही बच्चा नसीब हुआ, वह कमाऊ पूत बनने के पहले ही, उसे दगा देकर
चल बसा और जो उसकी एक बच्ची बची भी, सो, लूली; और जिसकी शादी
में उसने इतनी दरियादिली दिखलाई, लेकिन एक बार मुसीबत काटने उसके
दरवाजे पर पहुँचा, तो दामाद ने ऐसा बेरूखी दिखलाई कि मंगर का स्वाभिमान
उसे वहाँ से जबरदस्ती भगा लाया ।
 
मंगर का स्वाभिमान-गरीबों में स्वाभिमान ? लेकिन, मंगर की खूबी यह
भी रही है । मंगर ने किसी की बात कभी बर्दाश्त नहीं की, और शायद अपने
से बड़ा किसी को, मन से, माना भी नहीं। मंगर मेरे बाबा का अदब करता था,
शायद, उनके बुढ़ाने के कारण । सुना है, मेरे बाबूजी को वह बहुत चाहता
है-शायद, उनके नेक स्वभाव के कारण। किन्तु, मेरे चाचाओं को तो उसने
हमेशा अपनी बराबरी का हीं समझा और मुझे तो वह कल तक ‘तू’ ही कहकर
पुकारता रहा है। किसकी मजाल जो मंगर को बदजुबान कह – हलवाहों को
मिलनेवाली नितदिन की गालियाँ तो दूर की बात !
 
ऐसा क्यों ? – उसका खास कारण, मगर का यह हट्टा-कट्टा शरीर और
उससे भी अधिक उसका सख्त कमाऊपन-जिसमें ईमानदारी नं चार चाँद लगा
दिये थे। जितनी देर में लोगों का हल दस कट्ठा खेत जोतता, मंगर पन्द्रह
कट्ठा जोत लेता और वह भी ऐसा महीन जोतता कि पहली चास में ही सिराऊ
मिलना मुश्किल मंगर को यह बताने की जरूरत नहीं कि कल किस खेत में हल
जाएगा वह शाम को ही सारे खेतों की आर-आर घूम आता और जिसकी
ताक होती, वहाँ हल लिए सुबह-सुबह पहुँचा जाता। जुताई के वक्त किसी भी
देखरेख की भी जरूरत नहीं। आम हलवाहों के पीछे किसान जो लट्ठ लेकर
पड़े रहते हैं, और ते भी वे काम से जी चुराते, ढिलाई किसान जो लट्ठ लेकर
पड़ रहते हैं, और तो भी वे काम से जी चुराते, ढिलाई करते, आज का नाम कल
के लिए छोड़तें, यह आदत मंगर में थी ही नहीं। यों ही रखवाली चाहे हरी
सफल की हो, या सूखी पसही की, खलिहान में चाहे बोझों की सील हों या
अनाज की रास मंगर पर सब छोड़कर निश्चिन्त सोया जा सकता था ।
 
दूसरा ऐसा ‘जन’ मिलेगा कहाँ ? फिर क्यों न उसकी कद्र की जाए ? मेरे
बाबा कहते थे, मंगर हलवाला नहीं है, सवाँग है। वह अपने सवाँग की तरह
ही कभी-कभी रूठ जाता था और जब-तब लोगों को झिड़क भी देता था ।
उसकी झिड़क सबके सिर-आँखों पर; उसका रूठना और फिर उसकी मनौती
होती !
 
कभी-कभी बातें कुछ बढ़ भी जातीं । एक दिन काफी कहा-सुनी हो
गयी। दूसरी सुबह मंगर हल लेने नहीं आया – इधर से बुलाहट भी नहीं गयी
रुपये हैं; तब हलवाहे न होंगे “कोई नया हलवाहा लेकर जोता गया। उधर
कोई दूसरा किसान आकर मंगर से बोला- मंगरू, देख, उन्होंने दूसरा हलवाला
कर लिया है। उन्हें रुपये हैं, हजार हलवाले मिलेंगे, तो तेरे भी शरीर हैं, हजार
गृहस्थ मिलेंगे । चल, हमारा हल जोत — तू जो कहेगा, मजदूरी दूँगा ।” ‘लेकिन
मेरा सिर जो दर्द कर रहा है’-मंगर ने इसका जवाब दिया और उसका यह
सिर दर्द तब तक बना रहा जब तक झख मारकर मेरे चाचाजी फिर उसे बुलाने
नहीं गये। क्योंकि चार दिनों में ही मालूम हो गया, मंगर क्या है ! बैलों के कंधे
छिल गये, उनके पैर में फार लग गये। खेत में हल तो चला, लेकिन न ढेला
हुआ, न मिट्टी मिली। फिर खेत की आर पर बैठे भर-दिन हलवाहे को टुकारी
देते रहिए, तब कहीं दस. कट्ठा जमीन जुते ! मंगर के बिना काम चल नहीं
सकता ।
 
चाचाजी उसके दरवाजे पर खड़े हैं। मंगर भीतर घर में बैठा है। मंगर की
अर्द्धांगिनी भकोलिया ने कहा-“मालिक खड़े हैं, जाओ, मान जाओ ।”-“कह
दे, मेरा सिर दर्द कर रहा है।” मंगर ने चाचाजी को सुनाकर कहा । “मालिक,
जरा इनके सिर पर मालकिन से तेल दिला दीजिएगा”-भकोलिया हँसती हुई
बोली । “तू मुझसे दिल्लगी करती है”-मंगर के स्वर में नाराजगी थी । मंगर,
चलो, आपस में कभी कुछ हो भी जाता है, माफ करो-चाचाजी के स्वर में
आरजू-मिन्नत थी । जाइए, उसी से जुतवाइए, जिससे चार दिन जुतवाया है मुझे
ले जाकर क्या होगा-आधी रोटी की बचत भी तो होती होगी । यों ही
नोंक-झोंक, मान-मनौवल । फिर मंगर अपना हलवाही का पैनाहाथ में लिए
आगे-आगे; और चाचाजी पीछे-पीछे ।
 
यह आधी रोटी की बचत क्या ? इसे समझा आपने ? इसे मंगर का खास
इशारा समझिए । जहाँ गाँव-भर में हलवाहे को एक रोटी मिलती, मंगर के लिए
डेढ़ रोटी आती। वह भी रोटी सुअन्न की और अच्छी पकी हो । उस पर कोई
तरकारी भी जरूर हो-क्योंकि मंगर किसी का कच्चा नमक नहीं खाता । मंगर
को सभी शर्तें पूरी होती !
 
लेकिन यह डेढ़ रोटी वह खुद खाता, ऐसा आप नहीं समझें । क्या अपनी
अर्द्धांगिनी के लिए लाता ? नहीं ! आधी को दो टुकड़ें कर दोनों बैलों को
खिला देता। यों, यह आधी रोटी फिर मेरे ही घर में लौट आती, लेकिन, इसमें
कोई काट-कपट हो नहीं सकती थी, महादेव मुँह ताके; और मैं खाऊँ-यह कैसे
होगा ? मंगर के लिए ये बैल, बैल नहीं, साक्षात् महादेव थे !
 
एकाध बार बात बहुत बढ़ गयी, तो मंगर मेरा गाँव छोड़कर चला गया ।
लेकिन, गाँव में रहते उसने दूसरे का कभी हल नहीं पकड़ा। दूसरे गाँव में भी
वह जम नहीं सका । तब तीसरा गाँव देखा, और अंत में मारा-मारा फिर मेरे गाँव
लौटा । शायद मेरे घर-ऐसा कद्रदाँ उसे कहीं नहीं मिला !
 
मंगर का स्वभाव रूखा और बेलौस रहा है; किसी से लल्लो-चप्पो नहीं,
लाई-लपटाई नहीं। दो-टूक बातें, चौ-टूक व्यवहार । तो भी न जाने क्यों, मंगर
मुझे शुरू से ही स्नेह की नजर से देखता रहा है । शायद इसीलिए कि मेरे
बाबूजी उसे बहुत मानते थे । अब भी कहता है-मालिक, ये हमारे मँझले बाबू,
वह मरे, मेरी तकदीर फूटी । और, शायद इसलिए भी कि मैं बचपन से ही टूअर
हूँ। माँ मर गयी, पिताजी चल बसे। तभी तो उसने अपना पवित्र कंधा मुझे
दिया और जब कुछ बड़ा हुआ, मैं ननिहाल जाने-आने और रहने लगा तो याद
आता है, मंगर ही मुझे वहाँ पहुँचाता। मैं एक छँठी घोड़ी पर सवार; मंगर सिर
पर सौगात की चीजें और मेरी किताबें लिए घोड़ी की लगाम पकड़े आगे-आगे।
जहाँ नीच-ऊँच जमीन होती, कहीं मैं घोड़ी से गिर न जाऊँ, बगल में आकर
एक हाथ से मुझे पकड़ भी लेता । उसके बलिष्ठ हाथों के उस कोमल स्पर्श
का अनुभव आज भी करा रहा हूँ ।
 
ज्यों-ज्यों बड़ा होता गया, घर से मेरा संबंध टूटता गया । बकौल मंगर, मैं
तो अपने ही घर का मेहमान बन गया। लेकिन, जब-जब दो-चार दिनों के लिए
घर जाता, मंगर को उसी रूप और उसी पेशे में देखा करता ।
 
कपड़ों से मंगर को वहशत रही है। हमेशा कमर में भगवा ही लपेटे
रहता । उसे धोतियाँ मिली हैं। गोवर्धन पूजा के दिन, हर साल, एक नयी धांती
लिए बिना वह बैल के सींगों में लटकन बाँधता क्या ? यों भी बाबा और चाचा
साल में जब-तब पुरानी धोतियाँ दिया करते। घर में शादी-ब्याज होने पर उसे
लाल धोतियाँ भी मिली हैं मेरी शादी में मंगर के लिए नया कुर्ता भी बना था।
लेकिन धोतियाँ हमेशा उसके सिर का ही सिंगार रहीं, जिन्हें वह मुरेठे की तरह
लपेटे रहता और कुर्ता, जब मेरी किसी कुटमैती में वह संदेश लेकर जाता, तभी
उसकी देह ढँकता यों, साधारणतः वह हमेशा नंग-धड़ंग रहता। और, मैं कहूँ,
मुझे उसका शरीर उस रूप में, बहुत ही अच्छा लगता । आज एक कलाकार की
दृष्टि से कहता हूँ, मंगर को खूबसूरत शरीर मिला था ।
 
काला-कलूटा-फिर भै खूबसूरत ? सौन्दर्य को रंगसाजी और नक्कासी का
मजमूआ समझनेवालों की रुचि मैं समझ नहीं पाता, यह कहने की गुस्ताखी के
लिए आज भी मैं माफी माँगने को तैयार नहीं । मंगर को वह काला कलूटा
शरीर, एक सम्पूर्ण सुविकसित मानव-पुतले का उत्कृष्ट नमूना । लगातार की
मेहनत, ने उसकी मांस-पेशियों को स्वाभाविक ढंग पर उभाड़ रखा था पहलवानों
की तरह उनमें अस्वाभाविक उभाड़ नहीं आयी थी । जाँघें, छाती, भुजाएँ –
सबमें जहाँ जितनी जैसी गढ़न और उभाड़ चाहिए, बस उतनी ही। न कहीं मांस
का लोंदा, न कहीं सूखी काठ । एक सुडौल शरीर पर स्वाभाविक ढंग से रखा
एक साधारण सिर । मंगर के शरीर का ख्याल आते ही मुझे प्राकृतिक व्यायाम
के हिमायती मिस्टर मूलर की आकृति का स्मरण हो आता है। सैण्डो के शैदाई
उससे कुछ निराश हों तो आश्चर्य नहीं ।
 
           लेकिन, आज मंगर वह नहीं रहा, जो कभी था। गरीबी को वह अपने
अक्खड़पन से हमेशा धता बताये रहा। लेकिन उम्र के प्रहारों से वह अपने को
बचा नहीं सका । उसकी एक-एक चोट उसे धीरे-धीरे जर्जर बनाती रही और
आज. उस पर यह कहावत लागू है-‘सूखी हाड़ ठाठ भई भारी-अब का लदबs
हे व्यापारी !’
 
उसके शरीर के मांस और मांस-पेशियाँ ही नहीं गल गयी हैं, उसकी
हड्डियाँ तक सूख गयी हैं। आज का उसका यह शरीर उस पुराने शरीर का
व्यंग्यचित्र मात्र रह गया है बुढ़ापे के प्रहारों के लिए जो ढाल का काम करती,
उस चीज का संग्रह मंगर ने कभी किया ही नहीं ।’ आज खाय और कल को
झक्खे, ताके गोरख संग न रक्खें’-का उपासक यह मंगर संग्रह का तो दुश्मन
रहा। कोई संतान भी नहीं रही, जो बुढ़ापे में उसकी लाठी का सहारा बनती ।
उम्र ने इस निरस्त्र कवचहीन योद्धा पर वे सभी तीर छोड़े, जो उसके तरकस में
थे ! मंगर बुढ़ापे के कारण हल चलाने के योग्य नहीं रह गया, तो कुछ दिनों
तक उससे कुछ फुटकर काम लिए गये, लेकिन यह भी ज्यादा दिनों तक नहीं
चल सका । अब एक ही उपाय रह गया, उसे पेंशन मिले । लेकिन,
हलवाहों-यथार्थ अन्नदाताओं के लिए पेंशन की हमारे अभागे देश में कहाँ
व्यवस्था है और व्यक्तिगत दया का दायरा तो हमेशा ही तंग रहा है।
फिर मंगर में जली हुई रस्सी की वह ऐंठन और शायद गर्मी भी है, जिससे दया
का बादल हमेशा ही उससे दूर-दूर भागता रहा है। दया का बादल चाहता है।
आशीर्वचनों को शीतल सतह और मंगर के शब्दकोष में उसका सर्वथा अभाव
ही समझिए । इसके बदले आज भी वही बेलौस बातें, झड़प-झिड़कियों की आँच,
जो पानी की क्या बात, खून को भी सुखा दे । इसके बावजूद उदारता की स्वाती-बूँदें
कभी-कभी टपकतीं; किन्तु, पपीहे की प्यास उससे भले ही बुझे, मंगर के बुढ़ापे
की मरुभूमि उससे सींची नहीं जा सकती। यह दावे के साथ कहा जा सकता
है कि आज हम मंगर की हड्डियों का यह झाँझर भी नहीं पाते, अगर उसकी
अर्द्धांगिनी नहीं होती ।
 
उसकी अर्द्धांगिनी-भकोलिया ! मंगर की आदर्श जोड़ी । वही जमुनिया रंग
काली कहकर मैं उसका अपमान क्यों करूँ ! दो ही बच्चे हुए, इसलिए
स्त्रीत्व के उस महान क्षय से बहुत कुछ वह बची रही, जो मातृत्व का सुन्दर नाम
पाता है। यही कारण है, मंगर जर्जर-झर्झर हो गया, लेकिन भकोलिया अभी
चलती-फिरती है, कुछ हाथ-पाँव चलाकर वह संग्रह कर लेती और दोनों
प्राणियों का गुजर चला पाती है। लेकिन, यह भी कब तक ? क्योंकि वह
बेचारी भी दिन-दिन छीजती जाती है ।
 
भकोलिया-मंगर की आदर्श जोड़ी । शारीरिक ढाँचे में ही नहीं, स्वभाव में
भी। वे भी दिन थे, जब वह तमककर बोलती, झपटकर चलती । न किसी को
जल्द मुँह लगाती और न किसी की हेठी बरदाश्त करती । जिस किसी न छेड़ा,
मानो काली साँपिन के फन पर पैर रखा । लेकिन भकोलिया में सिर्फ
फुंकार मात्र थी दंशन और विष का आरोप उसके साथ महान्. अन्याय होगा ।
 
पर, मर्दों की अपेक्षा औरतें अपने को परिस्थिति के साँचे में ज्यादा और
जल्द ढाल सकती हैं, इसका उदाहरण यह भकोलिया है। मंगर आज भी वही
मंगर है मुँह का बेलौस या फूहड़ कहिए; लेकिन, भकोलिया वही नहीं ।
रही। किसी का बच्चा खेला दिया, किसी का कुटान-पिसान कर दिया, किसी
का गोबर पाथ दिया, किसी का पानी भर दिया और जो कुछ मिला, उसमें पहले
मंगर को खिलाकर आप पीछे खाने बैठी । किन्तु इतना करने पर भी, वह हमेशा
मंगर की फटकार सुना करती है। मंगर अपना सारा पित्त और पुरानी झड़प अब
ज्यादातर इसी पर झाड़ता है।
 
    ‘भगवान की मर्जी’-कहकर मंगर जिसके नाम पर अपनी मुसीबत के
बिसर जाने का प्रयत्न करता रहा; उस भगवान ने पर साल उसकी और दुर्गत कर
      दी। उसे जोरों से अधकपारी उठी। भकोलिया उसकी चिल्लाहट से पसीज,
किसी दया की मूर्ति से दालचीनी माँग लायी और उसे बकरी के दूध में पीसकर
उसका लेप उसके ललाट पर कर दिया। बाई पुटपुरी पर और आँख पर भी लगा
दे – मंगर ने लेप की पहली ठंढ़ाई अनुभव कर कहा । भकोलिया हुक्म बजा
लायी। लेकिन, यह क्या ? जहाँ-जहाँ लेप था, वहाँ अजीब जलन शुरू हुई ।
जलन जख्म में बदली और जख्म ने उसकी एक आँख ले ली। जब मैं घर गया
– बबुआजी, मेरी एक आँख चली गयी, मैं काना हो गया – कहकर मंगर रोने
लगा । शायद मंगर को मैंने पहली बार रोते देखा। मैं उसे ढाढ़स दे रहा था,
लेकिन, मेरा हृदय….
 
      और, विपदा अकेली कब रही ?
 
     पिछले माघ में मैं घर पहुँचा। सुबह ! धूप निकल आयी थी। लेकिन,
अपने चिर अभ्यास के अनुसार, मैं आँखें मूंद, रजाई से लिपटा पड़ा था ।
थोड़ी-थोड़ी देर पर कुछ गिरने की-सी धम-धम आवाज होती । रजाई मुँह से
हटाकर आँखें खोली । देखा, सामने पुआल के टाल के नजदीक, एक काला सा
अस्थिपंजर बार-बार खड़ा होने की कोशिश करता और गिरता है। यह क्या ?
चौंककर उठा । उस ओर बढ़ा। यह तो मंगर है। सुना था, मंगर को अर्द्धांग
मार गया हैं देखते ही आँखें सजल हो उठीं । निकट आया, उसे सम्हाला, फिर
कहा- मंगर, पड़े क्यों नहीं रहते-यह कैसी चोट लग रही होगी ?
 
पड़े-पड़े मन ऊब जाता है, बबुआ ! – मंगर ने जवाब दिया ।
 
उफ, उसें ढीली पड़ गयीं, खून का सोता सूख गया। लेकिन, मानो, अब
भी उसमें तरंगें उठतीं, और किसी सूखे सागर की तरह बालू के तट पर सिर धुन,
पछाड़ खा, गिर-गिर पड़ती हैं। कैसे करुण दृश्य !

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