रहीम

रहीम

                                                   रहीम

अब्दुर्रहीम खाँ खानखाना मध्ययुगीन दरबारी संस्कृति के प्रतिनिधि कवि हैं। अकबरी दरबार के हिन्दी कवियों
में इनका प्रमुख स्थान है। ये स्वयं भी कवियों के आश्रयदाता थे। केशव,आसकरण, मण्डन, नरहरि और गंग जैस
कवियों ने इनकी प्रशंसा की है । महाकवि तुलसीदास भी रहीम के अनन्य प्रशंसक थे। रहीम अरबी, तुर्की, फारसी, संस्कृत और हिन्दी के अच्छे जानकार थे । हिन्दू संस्कृति से ये भलीभाँति परिचित थे । इनके काव्य का मुख्य विषय 
शृंगार, रीति और भक्ति है इनकी नीतिपरक उक्तियों पर संस्कृत कवियों की स्पष्ट छाप परिलक्षित होती है। कुल 
मिलाकर इनकी 11 रचनायें प्रसिद्ध हैं। इनके प्राय: 300 दाहे ‘दोहावली’ नाम से संगृहीत हैं दोहों में रचित इनकी
एक स्वतंत्र कृति ‘नगर शोभा’ है । उसमें 142 दोहे हैं । इसमें विभिन्न जातियों की स्त्रियों का शृंगारिक वर्णन है ।
रहीम अपने बरवै छन्द के लिए प्रसिद्ध हैं। रहीम-काव्य के कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें ‘रहीम रत्नावली’
(सं. मायाशंकर याज्ञिक, 1928 ई.) और रहीम विलास (सं. व्रजरत्नदास, 1948 ई.) प्रामाणिक और वसनीय हैं। इसके
अतिरिक्त रहिमन विनोद (हि.. सा. सम्मेलन), रहीम कवितावली (सुरेन्द्रनाथ तिवारी), रहीम (राम नरेश त्रिपाठी),
रहिमन चंद्रिका (रामनाथ सुमन), रहिमन शतक (लाल भगवानदीन) आदि संग्रह भी महत्वपूर्ण हैं ।
 
यहाँ संकलित दोहों से जीवन को मानवीय दृष्टि से सुन्दर और प्रीतिकर बनाने के उद्देश्य से सामान्य जीवन से ली गयी 
उपमाओं एवं रूपकों द्वारा जीवन-मर्म की गहरी बातें अत्यन्त सहज एवं सरस भाषा में कही गयी हैं ।
 
प्रथम दोहे में कवि ने मनुष्य के आत्मगौरव की महिमा का बखान किया है वह व्यक्ति मर चुका है जो कहीं किसी
के सामने याचक की भाँति हाथ फैलाता है। लेकिन उससे पहले उसकी मृत्यु हो जाती है, जो किसी विवशता के कारण याचक के रूप में आये हुए व्यक्ति की याचना अस्वीकार कर देता है। दूसरे दोहे में कविवर रहीम ने मनुष्य
के जीवन में पानी के महत्व को व्यंजित किया हैं एक ही पानी है जो मोती, मनुष्य तथा चूने को सार्थकता प्रदान करता
है यहाँ मोती के संदर्भ में उसका अर्थ चमक है तो मनुष्य के प्रसंग में पानी उसकी प्रतिष्ठा का प्रतीक है, उसी प्रकार
चूने के संदर्भ में पानी जल के अर्थ में सार्थक है । इसीलिए पानी को बचाकर रखने का संदेश दिया गया है। तीसरी
दोहे में कवि ने विवेकशून्य जीभ के द्वारा होने वाले अनर्थ का वर्णन किया है कि बिना विचारे जीभ तो स्वर्ग-पाताल
जैसी बड़ी-बड़ी गर्वोक्तियाँ करके स्वयं तो मुँह के अन्दर चली जाती है, लेकिन बेचारे सिर को मार खानी पड़ती है।
चौथे दोहे में रहीम ने धन के लिए हाय-हाय करने वाले कृपण व्यक्तियों को पशुओं से भी अधिक निकृष्ट माना है,
क्योंकि मधुर संगीत सुनकर हिरण अपने प्राण दे देता है, लेकिन धनलोलुप व्यक्ति प्रसन्न होकर भी कुछ भी नहीं देता
है । पाँचवें दोहे में उस शासन-व्यवस्था की प्रशंसा की है जो चन्द्रमा के समान सबों को सुख प्रदान करती है उस सूर्य
की क्या प्रशंसा करें जो अपने आप से लोगों को जलाता है । छठे दोहे में कवि ने कुपुत्र की तुलना दीपक से की है, 
जो जलने पर प्रकाश देता है लेकिन जैसे-जैसे वह बढ़ता है अंधेरा छाने लगता है । कपूत भी जन्म लेने पर आनंद
का प्रकाश फैलाता है लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ा होता है अपने गलत आचरण से घर की प्रतिष्ठा नष्ट कर देता है। 
 
सातवें दोहे में कवि ने यह स्पष्ट किया है कि माँगने से मनुष्य की महत्ता घट जाती है चाहे वह कितना ही बड़ा काम
क्यों न करे। विष्णु ने मात्र तीन पंग चलकर पूरी पृथ्वी को नाप लिया फिर भी वह वामन ही कहलाते हैं। आठवें दोहे
में इस कुटिल संसार के व्यवहार को देखते हुए कवि ने अपनी व्यथा दूसरों के सामने न प्रकट करने की सलाह दी है,
क्योंकि कोई व्यक्ति दुःख बाँटता नहीं है लेकिन दुःख का मजाक जरूर उड़ाता है नौवें दोहे में कवि रहीम ने उस
लघुता की प्रशंसा की है जो अपनी लघुता के बावजूद दूसरों को तृप्ति प्रदान करती है जबकि वह निरर्थक है जिससे
किसी का उपकार नहीं होता उस समुद्र की क्या प्रशंसा जिससे किसी की प्यास नहीं बुझ पाती ? महत्ता तो उस लघु
सरोवर या नदी की है, जो लोगों की प्यास बुझाती हैं दसवें दोहे में कवि रहीम ने उन क्षुद्र लोगो पर व्यंग्य किया है जो
अपनी जरा-सी समृद्धि या विकास पर इठलाने लगता है वे लोग शतरंज के प्यादों के समान हैं, जो मात्र फर्जी बनने
पर ही टेढ़ी चाल चलने लगते हैं ।
 
                                                                       दोहे
 
                                            रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहिं ।
                                           उनते पहले वे मरे, जिन मुख निकसत नाहिं || ||
 
                                           रहिमन, पानी राखिये, बिन पानी सब सून ।
                                           पानी गये न ऊबरै, मोती मानुस चून ||2||
 
                                          रहिमन, जिहवा बावरी, कहि गयी सरग-पतार ।
                                          आपु तो कहि भीतर गयी, जूती खात कपार || 3 ||
 
                                           नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेतु-समेत ।
                                           ते रहीम पसु ते अधिक, रीझेहु कछू न देत ||4||
 
                                           धनि रहीम जल पंक को, लघु जिय पियत अघाइ ।
                                            उदधि बड़ाई कौन है, जगत पियासो जाइ ||5||
 
                                           रहिमन, राज सराहिये, ससि सम सुखद जो होई ।
                                           कहा बापुरो भांनु है, तपै तरैयनि खोइ ||6 ||
 
                                          ज्यों रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोइ ।
                                          बारे उजियारो करै, बढ़े अँधेरो होइ ||7 ||
 
                                          माँगे घटत रहीम पद, कितौ करौ बड़ काम ।
                                          तीन पैर बसुधा करी, तऊ बावनै नाम ||8||
 
                                           रहिमन, निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय ।
                                          सुन अठिलैहैं लोग सब, बाँटि न लैहैं कोय ||9||
 
                                           जो रहीम ओछौ बढ़े, तो अति ही इतराइ ।
                                          प्यादा सों फरजी भयो, टेढो-टेढो जाइ ||10||

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