राजभाषा : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

राजभाषा : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

                             राजभाषा : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

हिन्दी भाषा हमारे देश में गोदावरी के उत्तर वाले लगभग-समस्त भाग में बोली जाती है. ब्रिटिश शासकों ने प्रशासन और न्यायालय में सीमित प्रयोजन के लिए स्थानीय भाषाओं का प्रयोग करने की अनुमति दे दी थी, किन्तु उन्होंने हिन्दी के
प्रयोग को अनुज्ञात नहीं किया समस्त उत्तर भारत में उर्दू को न्यायालयों की भाषा के रूप में थोपा गया. इस प्रकार न्यायालयों में और हस्तान्तरण पत्र आदि (विक्रय, विलेख, बंधक विलेख, पट्टे आदि) लिखने में उर्दू का प्रयोग किया जाने लगा. जब 1906 में मुस्लिम लीग स्थापित की गई तब से यह कहा जाने लगा कि उर्दू भारत के मुसलमानों की भाषा है. यह कथन तथ्यों को देखते हुए तब भी सही नहीं था और आज भी मिथ्या है, केरल का मुसलमान ‘मलयालम और तमिलनाडु का ‘तमिल’ बोलता है. पाकिस्तान में पंजाबी मुसलमान की मातृभाषा ‘पंजाबी’ है और सिंधी मुसलमान अपनी मातृभाषा के लिए ‘जिये सिंध’ आन्दोलन चला रहा है. बांग्लादेश पाकिस्तान से इसलिए अलग हुआ, क्योंकि वहाँ का मुसलमान बंगाली को अपनी राष्ट्रभाषा मानता है. 1916 में जब लखनऊ में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच एकता करार (यूनिटी पैक्ट) हुआ तब से कांग्रेस यही दिखाने का प्रयत्न करती रही कि वह मुसलमानों सहित सम्पूर्ण भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था है. मुस्लिम लीग यह दावा करती थी कि केवल उसे ही मुसलमानों की ओर से बोलने का अधिकार है. कांग्रेस को लीग हिन्दू कांग्रेस कहती थी. लीग यह मानती थी कि कांग्रेस में जो मुस्लिम नेता हैं वे
दिखावे के लिए रखे गए हैं, अंग्रेजों ने भी कांग्रेस के इस दावे को कभी स्वीकार नहीं किया कि कांग्रेस मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती है.
 
                भाषा एकता के रूप में
 
गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस ने जो भाषा की नीति अपनाई वह कांग्रेस की हिन्दू-मुस्लिम एकता लाने की पद्धति से मेल खाती थी. इस नीति के अंग के रूप में गांधीजी ने यह कहा कि कांग्रेस हिन्दुस्तानी का समर्थन करती है. हिन्दुस्तानी न तो 
हिन्दी होगी और न उर्दू बल्कि दोनों का मिश्रण होगी. उसे देवनागरी’ और ‘फारसी’  दोनों लिपियों में लिखा जा सकेगा. हिन्दुस्तानी भाषा कहीं भी नहीं बोली जाती थी. वह साहित्य तथा विज्ञान की भी भाषा नहीं थी. यह एक ऐसी भाषा थी जिसे
प्रयोगशाला में कृत्रिम रूप से बनाया जाना था. इसका बहुत से देशभक्त विद्वानों ने विरोध किया. विरोध करने वालों में प्रमुख थे-पुरुषोत्तम दास टंडन, रविशंकर शुक्ल, सेठ गोविन्द दास, घनश्यामदास गुप्ता और बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’. जिन लोगों ने हिन्दुस्तानी भाषा विकसित करने का प्रयल किया उनमें सुन्दरलाल और श्री मन्नारायण प्रमुख थे. हिन्दी और हिन्दुस्तानी के विवाद में गांधीजी ने 1945 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन से त्यागपत्र दे दिया, गांधीजी सम्मेलन के अध्यक्ष रह चुके थे और दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रसार के प्रयोजन हेतु दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के गठन में उनका विशेष योगदान था.
      जब स्वतन्त्रता के साथ-साथ देश का विभाजन हो गया तो जनसाधारण ने यह अनुभव किया कि हिन्दुस्तानी एक मृगतृष्णा है जो हिन्दू-मुसलमानों के बीच एकता उत्पन्न करने का साधन नहीं हो सकती. हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने एक संकल्प पारित करके यह कहा कि हिन्दी को ‘राष्ट्रभाषा’ का स्थान दिया जाना चाहिए.
 
                  नियमित समिति
 
संविधान सभा की नियमित समिति ने एक नियम (नियम-29) बनाया जिसमें यह उल्लेख था कि-“सभा में काम काज हिन्दुस्तानी (हिन्दी या उर्दू) या अंग्रेजी में किया जाएगा…… सभापति की अनुमति से कोई भी सदस्य सदन को अपनी
मातृभाषा में सम्बोधित कर सकता है.”
         मूल अधिकार उपसमिति ने एक प्रारूप तैयार किया था जिसके अनुसार हिन्दुस्तानी को ‘राजभाषा’ का स्थान दिया गया था जो ‘देवनागरी या ‘फारसी’ लिपि में लिखी जा सकती थी.
 
                 कांग्रेस संसदीय दल
 
संविधान सभा में कुल 298 सदस्य थे, विभाजन के पश्चात् जिनमें से 208 कांग्रेस दल के सदस्य थे, कोई भी प्रस्ताव या प्रारूप संविधान सभा के समक्ष रखे जाने से पूर्व उस पर कांग्रेस संसदीय दल में विचार विमर्श किया जाता था. सन् 1947 की 16 जुलाई को कांग्रेस संसदीय दल में इस बात पर विचार किया गया था कि ‘राजभाषा’ किसे बनाया जाए. ‘हिन्दी को या ‘हिन्दुस्तानी’ को हिन्दुस्तानी के समर्थकों में जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद, सरदार पटेल थे किन्तु जब मतदान हुआ तो हिन्दी के पक्ष में 63 और हिन्दी के विपक्ष में 32 मत पड़े देवनागरी लिपि के पक्ष में 63 और विपक्ष में 18 मत थे. इस मतदान का परिणाम सविधान के प्रारूप में तुरन्त प्रतिबिम्बित हुआ. फरवरी 1948 में जब संविधान के प्रारूप को अन्तिम रूप दिया गया तो उसमें हिन्दी शब्द था. हिन्दुस्तानी (हिन्दी या उर्दू) शब्द हटा दिए गए.
 
                 संविधान सभा में राजभाषा
 
संविधान सभा में संघ की राजभाषा के रूप में हिन्दी के बारे में कोई विवाद नहीं था जो संघर्ष और ताप उत्पन्न हुआ. वह दो बातों के बारे में था. एक तो वह अवधि जिसके दौरान अंग्रेजी बनी रहेगी और दूसरे ‘देवनागरी’ अर्को का प्रयोग राजभाषा से सम्बन्धित भाग का प्रारुप तैयार करने के लिए एक प्रारूप समिति का गठन किया गया जिसमें 16 सदस्य थे. इनमें डॉ. अम्बेडकर, मौलाना आजाद और श्यामा प्रसाद मुखर्जी प्रमुख थे. किन्तु दो सदस्यों ने मुख्य रूप से यह कार्य किया. वे थे गोपालास्वामी आयगर और कन्हैयालाल मणिकलाल मुशी. इन्होंने परिश्रमपूर्वक एक प्रारूप तैयार किया जिसे अन्य सदस्यों ने अनुमोदित किया इसीलिए इस भाग को ‘मुशी-आयगर सूत्र भी कहते हैं.
        कुछ अग्रेजी के चाहने वाले तथा राष्ट्र विरोधी तत्वों ने एक झूठी बात फैलायी जिसे अज्ञानवश लोग दोहराते है यह प्रचार किया गया कि सविधान सभा में हिन्दी को राजभाषा के रूप में जब स्वीकार गया तो हिन्दी के पक्ष में केवल एक मत अधिक था कुछ लोग तो इससे भी आगे बढ़कर यह झूठ फैलाते हैं कि संविधान सभा के सभापति ने अपना निर्णायक मत देकर हिन्दी को राजभाषा बनाया. क्योंकि दोनों को एक बराबर मत मिले थे. इन व्यक्तियों-संगठनों को सत्य के प्रति कोई लगाव या आदर नहीं था.
           ‘ग्रेनविल आस्टिन ने ‘इण्डियन कांस्टिट्यूशन-कार्नर स्टेन ऑफ ये नेशन’ में इन्हीं तथ्यों का उल्लेख किया है, ‘ए जी नुरानी’ ने लिखा है- कोई भी व्यक्ति जो संविधान सभा की बहस को पदेगा वह जान जाएगा कि सविधान सभा में किसी भी प्रश्न पर कोई विभाजन नहीं हुआ राजमाता, से सम्बन्धित भाग सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया. हिन्दी में यह भी कह सकते है कि यह एकमत से स्वीकार हुआ अर्थात इस विषय पर पूर्ण मतैक्य था.
 
                  संघ की राजभाषा
 
अनु. 343 यह घोषित करता है कि संघ की ‘राजभाषा हिन्दी’ और लिपि देवनागरी’ होगी. किन्तु अक देवनागरी लिपि में नहीं लिखे जाएंगे अकों के जिस रूप का शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग किया जाएगा उसे ‘भारतीय अकों का
अन्तर्राष्ट्रीय रूप’ कहा गया है।
 
                      संवैधानिक लक्ष्य और वास्तविक व्यवहार
 
सविधान का लक्ष्य यह था कि अंग्रेजी का स्थान हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाए लेगी राजभाषा आयोग और राजभाषा से सम्बन्धित संसदीय समिति ने एक योजना तैयार की. सन् 1960 में राष्ट्रपति के आदेश द्वारा कुछ निदेश दिए गए, किन्तु
इसके पश्चात् राजभाषा अधिनियम 1963 अधिनियमित किया गया सन् 1967 में इस अधिनियम का संशोधन करके अग्रेजी को सदैव के लिए स्थापित कर दिया गया. वास्तविक व्यवहार में संघ के शासकीय प्रयोजन के लिए अंग्रेजी का प्रयोग चल रहा है हिन्दी का शासकीय प्रयोजनों के लिए, प्रयोग वहीं पर हो रहा है जहाँ पर राजभाषा अधिनियम और उसके अधीन बनाए गए नियमों के अधीन हिन्दी का प्रयोग अनिवार्य है अन्यथा संघ में सरकारी कामकाज में हिन्दी का स्थान अत्यन्त गौण है
        यह इस बात का उदाहरण है कि किस प्रकार राजनेता संविधान के उद्देश्यों को विफल कर देते हैं और किस प्रकार अंग्रेजी जानने वाला अभिजात्य वर्ग, जो सत्ता को नियत्रित करता है, एक विदेशी भाषा में प्रशासन चला रहा है जिसे जनता समझ भी नहीं पाती है यह लोकतत्र का उपहास है भारत एक ऐसा लोकतंत्रात्मक गणराज्य है जिसकी सघ सरकार पूर्ववर्ती शासकों की भाषा के माध्यम से कार्य करती है.
 
                     प्रादेशिक भाषाएँ
 
राज्य की राजभाषा-सविधान में यह घोषित नहीं किया कि विभिन्न राज्यों की अपनी राजभाषा क्या होगी ? अनु 345 में राज्यों को यह शक्ति दी गई कि वे राज्यों में प्रयोग होने वाली भाषाओं में से किसी एक या अधिक को या हिन्दी को राज्य की राजभाषा के रूप में अगीकार कर सकेंगे ऐसा करने के लिए विधि या अधिनियमित करना आवश्यक है. अधिकतर बडे-बड़े राज्यों ने राज्य की प्रमुख भाषा को अपनी राजभाषा बना दिया है उदाहरणार्थ महाराष्ट्र ने मराठी को राजभाषा बनाया है तमिलनाडु ने तमिल को. उत्तर प्रदेश ने हिन्दी को पंजाब और गुजरात ने क्रमश पंजाबी और गुजराती के साथ साथ हिन्दी को भी राजभाषा के रूप में स्वीकार किया है आश्चर्य की बात तो यह है कि पूर्वोत्तर के छोटे-छोटे राज्यों, नागालैण्ड, मिजोरम, मेघालय और अरुणाचल प्रदेश ने अंग्रेजी को अपनी राजभाषा स्वीकार किया है. किसी विशिष्ट भारतीय भाषा को राजभाषा घोषित करने से अंग्रेजी का प्रयोग प्रतिषिद्ध नहीं हो जाता और अंग्रेजी में लिखा गया कोई आदेश या कार्यवाही अवैध नहीं हो जाती.
             उत्तर प्रदेश सरकार ने अनु. 345 के अधीन, 1951 में हिन्दी को राजभाषा घोषित किया था. राज्य ने 1989 में द्वितीय राजभाषा अधिनियम द्वारा उर्दू को द्वितीय राजभाषा घोषित किया. उच्चतम न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि द्वितीय राजभाषा घोषित करना अनुज्ञेय है. राजभाषा अधिनियम पारित करने पर अनु. 345 निःशेष नहीं रह जाता. इस अनुच्छेद के अधीन राजभाषा घोषित करने की शक्ति का उपयोग समय- समय पर किया जा सकता है.
       अनु. 347 के अधीन राष्ट्रपति द्वारा दिए गए निर्देशों के अभाव में कोई भी राज्य, उस राज्य में प्रयोग की जाने वाली भाषाओं में से किसी एक भाषा को अनु. 345 के अधीन अपनी राजभाषा के रूप में अपना सकता है. उस पर कोई निबंधन नहीं है.

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