रूप-परिवर्तन की दिशाएँ:
रूप-परिवर्तन की दिशाएँ:
रूप-परिवर्तन की दिशाएँ:
सामान्य दृष्टि से रूप-परिवर्तन और ध्वनि-परिवर्तन में अंतर नहीं दिखाई देता, पर यथार्थत: दोनों में अंतर होता
है। यद्यपि कभी-कभी ये दोनों इतने समान या समीप हो जाते हैं कि इन्हें अलग कर पाना यदि असंभव नहीं तो
कष्ट-संभव अवश्यक हो जाता है।
ध्वनि-परिवर्तन या संबंध किसी भाषा की विशिष्ट ध्वनि से होता है और उसका परिवर्तन ऐसे सभी शब्दों का
प्रायः प्रभावित कर सकता है (और प्रायः करता भी है, जिसमें वह विशिष्ट ध्वनि हो । ध्वनि-परिवर्तन के नियमों ने
कुछ अपवादों को छोड़कर किसी भाषा में आनेवाले विशिष्ट ध्वनि-तत्त्वों को प्राय: सर्वत्र प्रभावित किया, पर
रूप-परिवर्तन का क्षेत्र अपेक्षया सीमित होता है। वह किसी एक शब्द या पद के रूप को ही प्रभावित करता है।
उससे भाषा के पूरे संस्थान से कोई संबंध नहीं। इस प्रकार ध्वनि-परिवर्तन अपेक्षाकृत व्यापक है और रूप-परिवर्तन
सीमित तथा संकुचित ।
इस संबंध में एक और बात भी स्मरणीय है। ध्वनि-परिवर्तन होने पर पुराने अवशेष बहुत कम मिलते हैं पर
रुप-परिवर्तन होने पर बहुत-से पुराने रूप भी मिलते हैं और उनका प्रयोग भी होता रहता है। एक पद के रूप इसी
कारण मिलते हैं
पदों या शब्द के रूपों का परिवर्तन प्रमुखरूपेण दो दिशाओं में होता है:
1. अपवाद स्वरूप प्राप्त रूप मस्तिष्क के लिये बोझ होते हैं। अतएव उनके स्थान पर अनेकरूपता हटाकर
एकरूपता लाकर नियमानुसार या एक प्रकार से बने रूपों का प्रयोग हम करने लगते हैं। अंग्रेजी में बली और निर्बल
दो प्रकार की क्रियाएँ हैं। बली क्रियाओं का रूप किसी नियमित रूप से नहीं चलता, जैसे गो, वेंट, गान, या पुट,
पुट, पुट या बीट, बेट, बीटेन; या राइट, रोट, रीटेन आदि । इसके विरुद्ध निर्बल क्रियाओं में ‘इड’ लगाकर रूप बना
लिये जाते हैं। अंग्रेजी भाषा के इतिहास के आरंभ में बली क्रियाएँ बहुत अधिक थीं, पर इन्हें याद रखना एक बोझ
था, इसलिये जन-मस्तिष्क ने धीरे-धीरे निर्बल क्रियाओं के सादृश्य पर बली क्रियाओं के रूपों को भी चलाया और
धीरे-धीरे बहुत-सी बली क्रियाएँ निर्बल हो गयीं और उनके पुराने अनियमित रूप समाप्त हो गये तथा उनके स्थान
पर नियमित रूप आ गये । इस प्रकार उनके रूप परिवर्तित हो गये । वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत के व्याकरणों
की तुलना की जाय तो यह स्पष्टतः दिखाई पड़ता है कि वैदिक संस्कृत में संज्ञा तथा क्रिया के रूपों में अपवाद बहुत
अधिक थे; पर लौकिक संस्कृत तक आते-आते अपवाद रूप में प्राप्त रूपों का स्थान नियमित रूपों ने ले लिया ।
संस्कृत से प्राकृत की तुलना करने पर यह एकरूपता या नियमितता लाने का प्रयास स्पष्ट दिखाई पड़ता है। संस्कृत
में अकारांत संज्ञाओं की संख्या बहुत बड़ी है, अतएव उनके रूपों के नियम अपेक्षाकृत अधिक प्रचलित हैं।
प्राकृत-काल में आते-आते हम देखते हैं कि कुछ अकारांत से इतर संज्ञा-शब्दों के रूप भी अकारांत की भाँति चलते
और मिलते हैं। उदाहरणार्थ, प्राकृत ‘पुत्तस्य’ (संस्कृत पुत्र से पुत्रस्य) और सब्बस्स (संस्कृत सर्व से सर्वस्य) के वजन
पर अग्गिस्स् संस्कृत ‘अग्गि’ जिसका (संस्कृत रूप अग्नेः था) तथा वाउस्स (संस्कृत ‘वायु’, जिनका संस्कृत रूप
वायोः था,) यद्यपि ये इकारांत तथा उकारांत हैं। इस प्रक्रिया में सादृश्य काम करता है और इसकी शुरूआत बच्चों
या अनपढ़ों से होती है। इसके पीछे मानसिक प्रयत्न-लाघव की भावना रहती है। हिन्दी में चला, लिखा, पढ़ा के
सादृश्य पर ‘करा’ का प्रयोग कुछ क्षेत्रों में होता है । छठा के स्थान पर अब छठवाँ या छवाँ का प्रयोग भी यही है।
2. अभिव्यंजना की सुविता का भ्रम दूर करने या नवीनता के लिये भी लोग बिल्कुल नये रूपों का प्रयोग करना
पसंद करते हैं। इसे एकरूपता के स्थान पर अनेकरूपता का प्रयास कह सकते हैं। हिन्दी के ‘परसर्ग’ इसी कारण
प्रयोग में आते हैं। विभक्तियों के घिसने से जब विभिन्न कारकों के रूप एक हो गये तो अर्थ की स्पष्टता के लिये
उन्हें अनेक करना आवश्यक प्रतीत हुआ और इसके लिये प्राकृत-अपभ्रंश-काल में अलग से शब्द जोड़े गये । अवधी
बोली में कर्ता कारक के एकवचन और बहुवचन के रूप एक हो गये थे। जैसे-
बरधा खात अहैं (एक वचन)
बरधा खात अहैं (बहु वचन)
पर इस गड़बड़ी को दूर करने के लिये बाद में बहुवचन में ‘न’ जोड़ा जाने लगा और अब वे कहते हैं:
बरधवन या बरधन खात अहैं।
या घोडवन दौड़त अहैं।
या बछवन दूध पियत अहैं।
यद्यपि अब भी यह नियम पूर्णत: लागू नहीं होता और घोड़ा दउड़त अहें, ‘घर गिर हैं’ तथा ‘लरिका जात है’
जैसे प्रयोग भी मिलते हैं।
भोजपुरी भाषा में भी यह गड़बड़ी है-
एकवचन बहुवचन
चोर जात है। चोर जात हउन
घर गिर गयल घर गिर गइलँड
पर कुछ में यहाँ भी ‘न’ जोड़ने लगे हैं-
बरध मर गयल बरधन मर गइलँड
लइका डूबि जाई लइकन डूबि जइहें।
ध्वनि-परिवर्तन से भी शब्द या पद के रूप में परिवर्तन आ जाता है, जैसे संस्कृत ‘वर्तते’ से भोजपुरी ‘बाटे’ ।
इसे रूप-परिवर्तन न कहकर ध्वनि-परिवर्तन कहना अधिक समीचीन है। यों ध्वनियों के परिवर्तन के कारण
इस रूप में पर्याप्त परिवर्तन हो गया है, इसमें संदेह नहीं।
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