वाक्य-विज्ञान का स्वरूप

वाक्य-विज्ञान का स्वरूप

                              वाक्य-विज्ञान का स्वरूप

भाषा का मुख्य व्यापार होता है विचारों का आदान-प्रदान । विचारों का यह आदान-प्रदान भाषा में वाक्यों द्वारा
ही किया जाता है। जाहिर यह वाक्य ही भाषा का सबसे अधिक स्वाभाविक और महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता है;
क्योंकि वाक्य के बिना विचार संप्रेषित हो ही नहीं सकते । भाषा की विभिन्न उपपत्तियों के अध्ययनार्थ अनेक विज्ञान
या शास्त्र बनाए गये हैं। ऐसे ही भाषा-विज्ञान के जिस विभाग या खंड में ‘वाक्य’ का अध्ययन-विश्लेषण होता है,
उसे ही वाक्य-विज्ञान, ‘वाक्य-विचार’ या ‘वाक्य-रचनाशास्त्र’ कहते हैं।
 
वाक्य-विज्ञान के तीन रूप माने गये हैं :
 
1. समकालिक वाक्य-विज्ञान ।
 
2. ऐतिहासिक वाक्य-विज्ञान, तथा
 
3. तुलनात्मक वाक्य-विज्ञान ।
 
वाक्य-विज्ञान का संबंध बहुत कुछ बोलने वाले समाज के मनोविज्ञान से होता है । वाक्य-विज्ञान में वाक्य का अध्ययन पदक्रम, अन्वय, निकटस्थ अवयव, केन्द्रिकता, परिवर्तन के कारण, परिवर्तन की दिशाएँ आदि दृष्टियों से किया जाता है। रूपकात्मक या वाक्य संरचना की दृष्टि से वाक्य के गठन, उद्देश्य और विधेय का बोध; यानी वाक्य के तत्त्व, ‘भेदक’ का प्रयोग, अशक्त शब्द, विशेषणों का प्रयोग, पदों की पुनरुक्ति, सर्वनाओं का प्रयोग, अनुनासिक-अनुनासिक स्वर, विभक्तियों का प्रयोग, विराम-चिन्ह, वाक्य के प्रकार इन सब पर विचार किया जाता है, क्योंकि इन्हीं से वाक्य का स्वरूप संरचित होता है।

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