विरासत हस्तांतरित करने के पाँच सूत्र
विरासत हस्तांतरित करने के पाँच सूत्र
विरासत हस्तांतरित करने के पाँच सूत्र
हमने विरासत में क्या कुछ नहीं पाया- नाम, वंशावली, गोत्र, जाति, संप्रदाय, देश-
वेश, रिश्ते-नाते, जमीन-जायदाद, सभ्यता-संस्कृति, धर्म व आध्यात्मिक मूल्य युक्त
शिक्षाएँ.
सवाल यह है कि क्या हम अपनी धरोहर को आगे हस्तान्तरित कर पा रहे हैं ?
कहीं ऐसा तो नहीं कि जिन पिता-पितामह ने समाज की रचना की, धर्म स्थान, मंदिर
गुरुद्वारा इत्यादि बनाए, लोक कल्याणकारी केन्द्र बनाए- हमारी वर्तमान व आगामी पीढ़ी
उन सबसे दूर-दूर रह रही है. उसे मानो ये सब चीजें बकवास लगती है. समय एवं धन
की बर्बादी लगती है. विरासत में प्राप्त रिवाजों को वह दकियानूसी समझती है. इस
ज्वलंत प्रश्न को लेकर समाज की बुर्जुग पीढ़ी चिंतित नजर आती है. प्रायः लोग कह
भी देते हैं कि हम हैं तब तक ये संस्थाएँ हैं, धार्मिक व सामाजिक रीति-रिवाज हैं. हमारे
जाने के बाद किसी को फुर्सत ही नहीं होगी. फिर इन रिवाजों व संस्कारों का क्या
हश्र होगा कौन जानें ? या कौन इस ओर झांकेगा भी.
इस समस्या को लेकर कुछ एक बिंदुओं पर हम विमर्श करें ताकि प्रौढ़ वर्ग
कुछ उपाय दृष्टि अपना सकें. सांस्कृतिक धरोहर को हस्तांतरित करने के लिए प्रभावी
उपायों के रूप में सबसे पहला उपाय है-
(1) अपने पुरातन रिवाजों के औचित्य को बताने की क्षमता रखना-
यदि आप
विरासत से प्राप्त सेवा, दान, धर्मकर्म के संस्कारों को भावी पीढ़ी में हस्तांतरित करना
चाहते हों तो उन्हें कभी थोपो नहीं. उनका आग्रह न करो. हो सके तो स्वयं उनका
औचित्य प्राप्त करो व उसे आगे रखो. अगर आपने उन रिवाजों को अपनाकर कुछ अच्छा
अनुभव पाया हो तो उसे अवश्य साझा करो किन्तु कदाचित बुरा अनुभव पाया हो तो
उसे सुधारकर प्रस्तुत करो जैसे कि आपके द्वारा दिए गए दान का किसी ने गलत
इस्तेमाल किया तो आप इसे आगे शेयर करते समय कहो कि दान देना गलत नहीं
है किन्तु सही तरीके से दिया जाना जरूरी है जरूरतमंद को दिया जाए, मानव सेवा के
लिए दिया जाए, शिक्षा व स्वास्थ्य की वृद्धि के लिए दान, सहयोग हो. यह तो एक
उदाहरण है, हकीकत में ऐसे अनेक मुद्दों पर बात करते समय हृदय का विश्वास, प्रेम
व सकारात्मकता आगे हस्तांतरित होती जाएगी.
(2) विश्वासोत्पादक तरीका अपनाओ-आज भी हम किसी के श्रद्धा-विश्वास से
घटित चमत्कारों को सुनते हैं तो प्रभावित हुए। बिना नहीं रहते. अतः हो सके तो अपनी
बातों को विश्वासोत्पादक तरीके से कहो. ‘बात’ चाहे कैसी भी हो, उसे किसी के दिल-
दिमाग में उतारने के लिए आपका निजी अनुभव व विश्वास बल बहुत महत्व रखता
है. अगर अपनी विरासत को संस्कृति को सांस्कृतिक मूल्यों को नई पीढ़ी में पहुँचाना
है तो इस बात की चिंता न करो कि वे इन बातों को तुरंत माने हीं या अनुकरण
करे हीं आप तो बस अपने दिल के प्रेम को व संस्कृति की महिमा को कह
भर दो, बाकी का काम आपका विश्वास करेगा. अगर आपमें वृद्धा, विश्वास है तो
वह स्वतः दूरगामी परिणाम लाएगा.
(3) कथा- दृष्टान्त कहना न भूलो-अपने प्राचीन मूल्यों को कथा दृष्टान्तों के माध्यम
से व्यक्त करो. प्राचीनकाल से लोकमानस पर सर्वाधिक प्रभाव दंतकथाओं का रहा है.
जो दादी नानी की जुबानी सुनाई जाती रही हैं, ऐसी कक्षाएं बाल-वृद्ध सबको प्रभावित
करती ही है. अपने घर-परिवार के बुर्जुगों की यशोगाथा हो, चाहे धर्म व कर्म क्षेत्र के
धुरन्धर विद्वानों व कर्मयोगियों की, देशभक्त वीर बहादुरों की हो. आज तकनीकी व
प्रौद्योगिकी के युग में इन कथाओं को, ऐतिहासिक घटनाक्रमों को फिल्म व सीरियल
के माध्यम से, कार्टून शो व चित्रावलियों के माध्यम से जितना प्रसारित किया जाएगा.
उतनी ही हमारी भावी पीढ़ी विरासत की महिमा समझ पाएगी. सांस्कृतिक मूल्यों की
महत्ता उसके ज़ेहन में अंकित हो पाएगी. कई लोगों ने ऐसा करना प्रारंभ किया भी है.
आजकल ऐसी अनेक फिल्में बहुत प्रसिद्ध हुई हैं जो ऐतिहासिक कथ्यों व तथ्यों को
व्याख्यायित करती हैं भगवान शिव, राम, कृष्ण, बुद्ध, महाराणा प्रताप, शिवाजी आदि
अनेक पुरुषों को रंगमंच से नई पीढ़ी में पहचान प्राप्त हो चुकी है, किन्तु इस संदर्भ
में जैन धर्म व समाज के लोग अभी भी पर्दे पर एक सांस्कृतिक व ऐतिहासिक महिमा-
शाली पहचान नहीं बना पाए हैं. विश्व का बहुत बड़ा हिस्सा प्रभु ऋषभ से महावीर तक
की धर्म संस्कृति से उनके नामों से अनभिज्ञ है, अछूता है. पुरातनवादी लोग
नहीं चाहते कि जैन कथाएँ किन्हीं पात्रों पर फिल्माई जाएं और वे अपनी सीमित सोच
को अनेक तर्कों से सिद्ध भी करने में जुटे रहते हैं. आज के युग में यदि हम ऐतिहासिक
कथा-कथानकों को यू-ट्यूब, फेसबुक, ट्विटर आदि प्लेटफार्म पर पेश करेंगे तो
हर नवयुवक उसके द्वारा अपनी सांस्कृतिक धरोहर को ग्रहण कर पाएगा, क्योंकि आज
की एक परिवार प्रणाली में दादी नानी की कहानियाँ तो न सुनी जाती हैं, न सुनाई
जाती हैं, किन्तु इण्टरनेट पर सभी जुड़े हुए हैं. इन माध्यमों के द्वारा ही बच्चों व युवाओं
को हम नैतिक मूल्यों की जानकारी भी दे सकते हैं.
(4) उत्सव मनाना-जिन पर्वो व त्यौहारों को उत्सव के रूप में मनाया जाता है, वे
सदियों सदियों तक अपनी महत्ता बनाए रख पाते हैं. भारत भर में ऐसे अनेक पर्व व त्यौहार
हैं, जो सम्पूर्ण देश में उत्साह के साथ, रीति-रिवाजों के साथ मनाए जाते हैं, जैसे-होली,
दीपावली, दशहरा, राखी, भैयादूज इत्यादि. कई पर्व प्रान्तीय व राज्य स्तर पर मनाए
जाते हैं. जिस सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखना हो व हस्तान्तरित करना हो उसे
उत्सव के रूप में अवश्य मनाओ. हंसी-खुशी के माहौल को भला कौन पसंद नहीं करेगा.
(5) प्रशिक्षण जिन बातों को आगामी पीढ़ी में हस्तांतरित करना हो, उनका शिक्षण-
प्रशिक्षण भी होना चाहिए इससे नया संवाहक वर्ग तैयार किया जा सकेगा जिस प्रकार
पिता व दादा के साथ दुकान पर बचपन से ही बैठने वाला बालक बड़ा होते-होते अच्छा
व्यापारी बन जाता है, उसी प्रकार जिन अच्छी बातों को हमें नई पीढ़ी में पहुँचाना
उनके लिए शिविर, सेमिनार क्लॉसेज आदि आयोजित करनी चाहिए बाल्यकाल में सीखी
गई बातें सुदीर्घ समय तक साथ चलती हैं. युवावस्था में कुछ नया सीखना हो तो बिना
तार्किकता के सीखना मुश्किल है, किन्तु वे ही बातें बचपन में अनुकरण मात्र से सीख
ली जाती हैं. अतः बच्चों को बुर्जुगों के पास बैठना व उन्हें सुनना चाहिए. कई चीजें
देखकर व सुनकर हमारे भीतर चली जाती हैं, उन्हें सिखाने के लिए अलग से कुछ
व्यवस्थाएँ नहीं करनी पड़ती हैं. फिर भी विद्यालयों व महाविद्यालयों के द्वारा जय
पुरातन विद्याओं व कलाओं के लिए सत्र लगाए जाते हैं तब प्राचीन मूल्य हर पीढ़ी में
अर्थवन्त प्राप्त कर पाते हैं.
अपने अतीत, उद्भव और संस्कृति की जानकारी के बिना कोई व्यक्ति जड़विहीन
वृक्ष की भाँति है,
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