विश्वास और प्रार्थना-आत्मा के पोषक तत्व
विश्वास और प्रार्थना-आत्मा के पोषक तत्व
विश्वास और प्रार्थना-आत्मा के पोषक तत्व
विश्वास और प्रार्थना-यद्यपि दो अलग-अलग शब्द प्रतीत होते हैं, किन्तु हकीकत
यह है कि आपका विश्वास ही आपकी प्रार्थना है और आपकी प्रार्थना आपका
विश्वास प्रकट करने का जरिया, जब आप ईश्वर में परमात्मा में अपना विश्वास प्रकट
करते हुए कहते हैं कि मैं चाहे जानूँ या न जानूँ किन्तु आप हो ! आप हो और सर्वोच्च
हो !! मैं चाहे आपको नहीं देख सकता हूँ, किन्तु आप मुझे देख सकते हो! आप मेरे
सारे कर्मों को चाहे वे मैंने प्रकट रूप से किए हों चाहे गुप्त रूप से आप उन्हें जानते
हो. आप सर्वज्ञ हो ! आपकी कृपा से सब कुछ सम्भव है ! मैं अपने सारे कर्मों को
आपकी साक्षी से सम्पन्न करता हूँ, अपने आपको आप में समर्पित करता हूँ ! मैं यह
जानता हूँ कि आपको समर्पित हुए समस्त कर्म मेरे विकास में सहयोगी होंगे, मुझे सारे
दोषों से बचाकर रखेंगे. मुझमें आपकी प्रेरणाएँ प्रवाहित करेंगे. मुझे सही समय पर
उचित मार्गदर्शन देने वाले बनेंगे. मेरे द्वारा विश्व कल्याण के आपके महा अभियान में
सहयोगी बनेंगे मैं आपकी कृपा को हर क्षण महसूस करता हुआ कृतज्ञ हूँ ! कृतज्ञ
कृतज्ञ हूँ ! आपके दिव्य आशीषों का सतत् आभारी हूँ.
जब कोई व्यक्ति अपने भीतर परमात्मा की शक्तियों को महसूस करते हुए हर एक
घटना के प्रति सकारात्मक भावनाएँ रखता है, तो वह प्रार्थनामय जिन्दगी जीता है. ‘प्रार्थना
परमात्मा से कुछ चाहना या माँगना नहीं है. प्रार्थना परमात्मा से संवाद है. परमात्म शक्तियों
का आभारी बनना है. प्रार्थना में कृतज्ञता है, समर्पण है, जो भी मिला उसके लिए भी और
जो नहीं मिला, उसके लिए भी प्रार्थनाशील हृदय जानता है कि इस प्रकृति में कहीं
कोई अन्याय नहीं है. सब कुछ उसकी रज़ा से हो रहा है, ‘मैं’ अपनी छोटी सोच या
चाहना से इस विराट व्यवस्था को न तोलूँ, न ही इस पर किसी प्रकार का आक्षेप करूं.
प्रश्नचिह्न खड़ा करूँ कि ऐसा क्यों हो रहा है ? इससे अन्यथा होना चाहिए था.
‘विराट’ स्वयं व्यवस्थित है, स्वयं जानता है कि कहाँ कब क्या उचित है. इसलिए मैं
इस विराट ब्रह्माण्ड की व्यवस्था करने वाले से कुछ नहीं माँगता, बस अपनी इच्छाओं
का विलय उसी में कर देता हूँ. इस ब्रह्माण्ड की योग्यता में मैं अपनी योग्यता मिलाता हूँ.
‘स्व’ को सर्व में समर्पित कर देना प्रार्थना है. प्रार्थना अन्तस् के द्वार की उद्घाटना है.
प्रार्थनामय स्वर जब हृदय से तरंगित होते हैं, तब सम्पूर्ण लोक में फैल जाते हैं. वे
हमारी लघु चेतना में विराट का आह्वान बन जाते हैं. हमारी आत्मा को परमात्मा का
साक्षात्कार करा देते हैं. विश्वास और प्रार्थना हमारी आत्मा में परमात्म शक्तियों का सम्पोषण
करते हैं.
इन दोनों तत्वों के अभाव में हम सब डिब्बेबन्द जिन्न की तरह छटपटाते हैं,
पिंजरे में कैद पंछी की तरह तड़पते हैं, स्वयं के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ रहने
के कारण झूठी पहचान बनाने को मचलते हैं. झूठी पहचान बनाने के चक्कर में न
जाने कितने प्रपंच रचते हैं. कभी झूठ, चोरी, बेईमानी भी करने में नहीं संकुचाते हैं. येन-
केन प्रकारेण अपने-अपने स्वार्थों की सिद्धि के लिए यों जुटे रहते हैं. हमें सदा अपने
आप में भय सताता है कि मेरा क्या होगा ? यह भय इस बात का प्रमाण है कि हमारे
भीतर अस्तित्व की बुद्धिमत्ता के प्रति विश्वास नहीं है. आस्था का अभाव है. आस्था का
अभाव परस्पर संदेह का वातावरण निर्मित करता है. संदेहशील चित्त से अपराधों की
श्रृंखला जन्म लेती है. प्रार्थनाशील चित्त से विश्व प्रेम प्रसारित होता है.
कुछ लोग अपने प्रियजनों के कष्टों की मुक्ति के लिए प्रार्थना करते हुए ऐसे भाव
व्यक्त कर देते हैं कि ‘हे प्रभु ! आपकी कृपा से वह स्वस्थ हो जाएं, उसके हिस्से के दुःख,
मुझे मिल जाए.’ गुरुजी फरमाया करते थे कि इस तरह की प्रार्थना नहीं करनी चाहिए.
ऐसी प्रार्थना करने से दूसरों के दुःख नहीं घटते हैं, किन्तु प्रार्थना करने वाला अपने
अतीत के कर्मों के संग्रह (प्रारब्ध) में से स्वयं के लिए दुःखों का आह्वान जरूर कर
बैठता है. प्रार्थना निर्दोष शैली में हो, इस प्रकार की हो कि हे परमात्मा ! हमें कष्टों
में भी सहनशीलता, धैर्य व विवेक देना ताकि मैं इन कष्टों से निखर सकूँ. मेरे साथी के
जीवन में खूब स्वास्थ्य, समृद्धि व समझदारी रहे, ताकि वह अपने जीवन का सार्थक
उपयोग कर सकें. ‘प्रार्थना के भाव प्रसारित करते समय भीतर में जितना आनन्द भाव व
अहो भाव महसूस होगा, प्रार्थना उतनी ही शीघ्र फलदायी होगी. प्रार्थना विश्वस्त हो, धैर्य
के साथ अपनी भाषा व शब्दावली में की जाने पर समुचित परिणाम लाती है. अन्यथा
वह भाषा, जिसे उच्चारित करते समय हमारी भावनाएँ जुड़ ना पाएं, शब्दों के अर्थ समझ
न आएं. ऐसी प्रार्थनाएँ जो सकारात्मक महसूस नहीं दे पाएं, वे सार्थक नहीं होतीं.
एक बालक की भाँति निर्दोष मन से बोली गई प्रार्थनाएँ शीघ्र परिवर्तन लाती हैं.
प्रार्थनाएं मौन भी की जा सकती हैं.
सरलचित्त व्यक्ति का विश्वास उसे वह सफलता दे जाता है, जो तर्किक व्यक्ति
दावपेंच करके भी कभी नहीं पा सकता. प्रार्थनाशील हृदय में कभी संदेह एवं
कर्त्ताभाव जन्म नहीं ले सकता. कर्त्ताभाव अर्थात् आत्मप्रशंसा करते हुए हर
अच्छे कार्य का श्रेय खुद को देना यह कर्त्ताभाव आने पर इंसान अन्धों को हीन व
स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने की मशक्कत करने लगता है, इस मानसिक विकार के
तहत् आत्म-शक्तियों का पोषण होने की बजाय दूषण होने लग जाता है. जीवन को
समझदारी से जीने वाला इन्सान सदैव संदेहमुक्त विश्वासयुक्त जीता है. ‘विश्वास’
अर्थात् स्वयं में मौजूद सर्व की सत्ता, परमात्मा के प्रति आस्थायुक्त भाव. पूज्य
विराट गुरुजी का कहना है कि हमारे विश्वास में ही परमात्मा का वास है-
है खुदा जग में तो वह विश्वास है,
खोजते बाहर मगर वो पास है,
संकटों में क्यों उखड़ती साँस है।
बच के चलना सीख ले बस,
इष्ट पर अवधान होना चाहिए।
जिन्दगी ज्योति है जगमग,
चित्त में सद्भाव होना चाहिए।
हमारे आन्तरिक विश्वास ही हमें कमजोर अथवा सबल बनाते हैं जिनके
विश्वासों में प्रेम, सद्भाव व उदारता है, वे सुखद भविष्य का सृजन करते हैं, इसके
विपरीत नकारात्मक विश्वास वाले लोग दुःखद भविष्य का.
अपने सविश्वासों को प्रार्थना के स्वरों से गुनगुनाओ और सदा सबके मंगल व
कल्याण की दुआ करते हुए जीओ. आपका कल्याण निश्चित तौर से होगा ही.
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