वैदिक शिक्षा बनाम आधुनिक शिक्षा
वैदिक शिक्षा बनाम आधुनिक शिक्षा
वैदिक शिक्षा बनाम आधुनिक शिक्षा
वह शिक्षा ही मनुष्य को सच्चे अर्थों में मानव बनाने का सामर्थ्य रखती है जो मानव मूल्यों से युक्त हो. जिस शिक्षा में मानव मूल्यों का अभाव हो या अत्यंत अल्प हो, वह शिक्षा कभी भी मानव का निर्माण नहीं कर सकती है, जैसा कि हम सभी
जानते हैं, शिक्षा संस्कारों का भी निर्माण करती है. यदि शिक्षा में मानव मूल्यों का समावेश है तो ऐसी शिक्षा मानव को सच्चे अर्थों में मानव बनाने का सामर्थ्य रखती है, अन्यथा वह मात्र आधुनिक स्कूली शिक्षा के सदृश्य ही हो जाएगी जिसे प्राप्त कर मनुष्य मानव नहीं, वरन् यंत्र या मशीन बनता है. स्पष्ट है, आज की आधुनिक शिक्षा का स्वरूप यही है जिससे मानव का निर्माण नहीं अपितु दो हाथ-पैर वाले एक ऐसे यंत्र का निर्माण हो रहा है जो देखने-सुनने में तो मनुष्य जैसा लगता है, लेकिन उसकी सारी गतिविधियाँ यंत्र जैसी होती हैं, वह आधुनिक औद्योगिकीकरण, बाजारीकरण और वैश्वीकरण का एक सहायक भाग (पार्ट) भर बनकर रह जाता है. यही कारण है कि आज मानव में संवेदना, प्रेम, सत्य, अहिंसा, दयालुता, सहिष्णुता, सदाशयता, न्याय, परोपकार, करुणा, दया और शान्ति जैसे अनेक सद्गुणों का नितांत अभाव हो गया है. यदि मूल्य दिखाई भी देते हैं तो अत्यन्त अल्प मात्रा में, जिसका कोई विशेष अर्थ नहीं समझ में आता है. वहीं पर, वैदिक शिक्षा का आधार ही मानव मूल्यों पर आधारित है. वैदिक शिक्षा का प्रत्येक अक्षर, वाक्य और सूत्र मानव मूल्यों को ही पिरोता हुआ आगे बढ़ता है.
वेदों में शिक्षा विषय पर अनुसंधानकों, शोधकों, विद्वानों और साधकों ने जो भी मथा है और उससे जो नवीनतम निकला है, वह भी अत्यंत पावन, मौलिक, उपयोगी और नवीन लगता है, विश्व शिक्षा पटल पर यदि वेदों की शिक्षाओं को सामूहिक रूप से रखा जाए और उस पर मिलकर चर्चाएँ, परिचर्चाएँ और खुले संवाद आयोजित किए जाएँ तो विश्व जगत् को यह जानकर अत्यंत आश्चर्य होगा कि वे सब जिस शिक्षा को मानव समाज के लिए उपयोगी, आदर्श और लाभदायक मान रहे थे, वह तो वेदों की शिक्षा के आगे कहीं दूर-दूर तक नहीं ठहरती है. इसका सबसे बड़ा कारण है वेदों की शिक्षा में मानव मूल्यों को आधार के रूप में समावेशित करना. आज विश्व में जिस शिक्षा की सबसे अधिक आवश्यकता है, वह शिक्षा मानव मूल्यों से युक्त होनी चाहिए, निश्चित ही ऐसी शिक्षा वेदों के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं द्रष्टव्य होती है.
शिक्षा का उद्देश्य क्या है ? इस प्रश्न से पता चलता है कि हम यह समझ सकें कि शिक्षा किसलिए दी जा रही है. आधुनिक शिक्षा और प्राचीन शिक्षा के उद्देश्यों में मूलभूत अंतर दिखाई पड़ता है. यह अन्तर है, शिक्षा में निहित मूल्यों को
लेकर. यदि हम वैदिक शिक्षा के उद्देश्यों की विवेचना करें तो पता चलता है कि वैदिक शिक्षा का उद्देश्य अत्यंत विस्तृत, पवित्र, लक्ष्ययुक्त व्यावहारिक और सर्वहितकारी है इसे यदि हम एक-एक करके विवेचित करें तो इसे निम्नलिखित
बिन्दुओं में विभाजित कर सकते हैं. वैदिक शिक्षा का सबसे पवित्र उद्देश्य जीवन को तपस्वी बनाना है. (अथर्व 7/61/2) मंत्र में इसकी प्रेरणा दी गई है. द्वितीय उद्देश्य के रूप में बुद्धि का परिष्कार करना है तो तीसरा उद्देश्य विद्या और बुद्धि का समन्वय करना है. इसी तरह वैदिक शिक्षा के उद्देश्यों में व्रतधारी बनना और श्रद्धा को जीवन का अंग बनाए रखना भी है. वैदिक शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान और कर्म में समन्वय करना है जिससे व्यक्ति का व्यक्तित्व प्रखर और तेजयुक्त हो सके. (यजु. 40/14) अध्यात्म और भौतिकवाद का समन्वय करने के साथ ही साथ ज्ञान की ज्योति को प्रज्वलित करना तथा तप और दीक्षा को ग्रहण करना भी वैदिक शिक्षा के उद्देश्यों में सम्मिलित है. इसी तरह लोकहितकारी सदबुद्धि को बढ़ाना, चिन्तन शक्ति की वृद्धि के साथ ही साथ अज्ञान और अशिक्षा का उन्मूलन करना भी सम्मिलित है.
वैदिक शिक्षा के उद्देश्यों और आधुनिक शिक्षा के उद्देश्यों में प्रत्येक स्तर पर भेद है. सबसे बड़ा भेद आज की शिक्षा में चरित्र निर्माण, अध्यात्म और भौतिकवाद का समन्वय न होना है. यही कारण है कि उच्च शिक्षित व्यक्ति भी चरित्र के मामले में अत्यंत निम्न स्तर का देखा जा सकता है. मानव मूल्यों का जीवन में समावेश न होने का सबसे बड़ा कारण यही है. वैदिक शिक्षा में चारों आश्रमों की शिक्षा विस्तार से दी जाती है. सौ वर्षों की आयु में मानव चार भागों में चार आश्रमों के माध्यम से अपने जीवन को पूर्ण बना सकता है. वैदिक दर्शन में वर्णित चारों आश्रमों में आपस में एक समन्वय है. इसलिए ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास का सामंजस्य निरन्तर बना रहता है, वैदिक शिक्षा के मानवीयकरण का यह रूप विश्व में सबसे अद्भुत और मौलिक है.
मानव मूल्य ही, सर्वहितकारी शिक्षा के आधार होते हैं. वेदों की शिक्षा उक्त आधार से सर्वदा और सर्वथा युक्त है, इस दृष्टि से यह सर्वहितकारी और सर्व-उपयोगी है. वैदिक शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य अविद्यादि बंधनों एवं क्लेशों से मानव को छुटकारा दिलाना है. जीव अविद्या, अस्मिता राग, द्वेष और अभिनिवेश इन पाँच क्लेशों के पाशों से अनेक जन्म-जन्मांतरों तक बंधन में पड़ा रहता है. यजुर्वेद (40/14) में स्पष्ट उद्घोष विद्ययाऽमृतमश्नुते के रूप में किया गया है. जब मानव अविद्या से मुक्त हो जाता है तब वह विद्यामार्गी बन जाता है और अपने परम लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने लगता है, लेकिन वहीं दूसरी ओर यजुर्वेद में लौकिक और पारलौकिक दोनों तरह की शिक्षाओं की आवश्यकता बतलाई गई है. अविद्ययां मृत्यु ती विद्ययाऽमृतमश्नुते. अब प्रश्न उठता है कि जिस विद्या और अविद्या को वेद में आवश्यक बताया गया है
क्या सामान्य रूप से अविद्या के प्रचलित रूप से भिन्न तरह का है, फिर अविद्या से छुटकारा पाने की बात वेद में क्यों कही गई है?
सामान्य रूप से भौतिक जगत में जिस अविद्या को बंधन का कारण माना गया है, वह भौतिक जगत् के ऐसे तत्व हैं जो मानव को सांसारिक जीवन में किसी-न-किसी रूप में किसी-न-किसी कारणवश अपनाना पड़ता है, लेकिन जिस अविदया अर्थात् भौतिक साधना की वात वेद में कही गयी है वह लौकिक जीवन में प्रचलित अविद्या से भिन्न प्रकार का है।
मानव जीवन की पूर्णता के लिए वैदिक शिक्षा या विद्या में मानव जीवन के लिए अनिवार्य चार पुरुषार्थ मानव मूल्यों पर ही आधारित हैं. प्रथम धर्म को ही लीजिए. धर्म किसे कहते हैं इसे समझने के लिए महर्षि मनु ने जो धर्म के लक्षण बताए हैं वे सभी मानव मूल्य ही हैं. मानव जीवन का आधार धर्म है. धर्म का मतलब ही होता है मानव मूल्यों से ओत-प्रोत जहाँ मानव मूल्य नहीं है वहाँ धर्म भी नहीं है. वैदिक शिक्षा की उत्कृष्टता और उत्तमता इसलिए है क्योंकि यह धर्म को अपना आधार बनाकर चलती है. इसी प्रकार शिक्षा मानव की उसकी जीविका का साधन भी बने, ऐसी शिक्षा ही उपयोगी और विकासोन्मुख होती है, लेकिन वैदिक शिक्षा में जिस अर्थ को जीविका का साधन बताया गया है वह धर्म युक्त होना
चाहिए. तृतीय, पुरुषार्थ काम को बताया गया है. यह काम मानव के चिंतन, कार्य और कामना से सम्बन्ध रखता है. वैदिक शिक्षा में स्वस्थ चिंतन, शुभ कार्य और शुभत्व की कामना को ही उत्तम बताया गया है. श्रेष्ठ ज्ञान, श्रेष्ठ विचार और श्रेष्ठ कार्य
करने की कामना वैदिक शिक्षा की उत्कृष्टता है. तीनों पुरुषार्थ का सम्यक पालन करते हुए जो मनुष्य सत्य, प्रेम, करुणा, दया, न्याय, अहिंसा और परोपकार के कार्यों में निरन्तर रत रहता है, वह श्रेष्ठ संस्कार को आत्मा में रोपित करता हुआ अंततः मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी होता है, अर्थात् वैदिक शिक्षा मानव मूल्यों से संपृक्त होती है और लौकिक तथा अलौकिक जीवन को संतुलित करते हुए अंततः मोक्ष प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करती है.
वैदिक शिक्षा में पग-पग पर सद्गुणों को प्रतिष्ठा देते हुए उसे अपनाए रहने पर विशेष बल दिया गया है. ब्रह्म, क्षत्र, श्री और श्रम चारों की अनिवार्यता शिक्षा में होनी चाहिए. एकांगी शिक्षा व्यक्ति को कभी भी ज्ञानवान सुविज्ञानवान् और सुप्रतिष्ठावान् नहीं बना सकती है. यह पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय मूल्यों के लिए भी आवश्यक है. वैदिक शिक्षा में इसका समग्रता के साथ वर्णन किया गया है. इसी प्रकार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का भी सम्यक् ज्ञान वैदिक शिक्षा का आधारभूत तत्व है. अथर्ववेद में वैदिक शिक्षा की पूर्णता के लिए यह प्रेरणा अत्यंत प्रभावशाली है. मंत्र इस प्रकार है―
ओजश्च तेजश्च सहश्च बलं च वाक् चन्द्रियं च श्रीश्च धर्मश्च।।
ब्रह्म च क्षत्र च राष्ट्र च विशश्च त्विषिश्च यशश्च वर्चश्च द्रविणं च।
आयुश्च रूपं च नाम च कीर्तिश्च प्राणश्चापानश्च चक्षुश्च क्षोत्रं च।।
पयश्च रसश्चान्न चान्नायं च ऋतं च सत्यं चेष्टं च पूर्त च प्रजा पश्वश्च।
अर्थात् ओज, तेज, पराक्रम और इनके प्रयोग का ज्ञान, स्तुति, निंदा, हानि, लाभ एवं शोक के सहन और इनके साधन. बल, बुद्धि सत्य और इनकी वृद्धि का ज्ञान, शान्त, धर्मयुक्त अंतःकरण और शुद्धता व जितेन्द्रियता, श्री लक्ष्मी, सम्पत्ति और इसकी प्राप्ति के लिए धर्मयुक्त साधन. इसी तरह पक्षपात रहित, न्यायाचरण, वेदोक्त धर्म और जो इसके साधन हैं उन्हें प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना. कहने का भाव यह है कि वैदिक शिक्षा में उन सभी वस्तुओं, विषयों और विचारों को सम्मिलित किया गया है जो मानव को मर्यादायुक्त सुखमय, शान्तिदायक और निरापद प्रगति के आधार हों.
मानव की उन्नति, उत्तमता, पूर्णता और मौलिकता के लिए वैदिक शिक्षा में जितने अवसर, ज्ञान, संस्कार और विषय है विश्व में किसी शिक्षा पद्धति में नहीं हैं मानव मूल्यों के कारण ही वैदिक शिक्षा में सम्मिलित कोई भी विषय हो, वह मानव की उन्नति के साथ-साथ परिवार, समाज, संस्कृति, धर्म, अध्यात्म और विश्व की उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है यहाँ तक कि युद्ध भी धर्म के साथ किए जाने की अनिवार्यता रही है शिक्षा में निहित मानव मूल्य ही सर्वकल्याण के आधार हैं.
मानव जीवन को परिपूर्ण बनाने में दो तत्व प्रमुख है प्रथम है सस्कार और द्वितीय है शिक्षा शिक्षा का सस्कार और संस्कार की शिक्षा, ये दोनों आपस में पूरक है एक दूसरे के बिना अधूरे हैं वही शिक्षा सबसे उत्कृष्ट मानी जाती है जिसके सस्कार उत्कृष्ट कोटि के हों और वे संस्कार ही उत्कृष्ट होते हैं जिनकी शिक्षा सर्वोत्कृष्ट हो दोनों मानव मूल्यों के सहोदर है. कहने का भाव यह है कि मानव मूल्यों के बिना दोनों का आधार कायम नहीं रह सकता है.
वैदिक शिक्षा में नैतिक शिक्षा, धर्म शिक्षा, समाज शिक्षा व्याकरण शिक्षा विज्ञान शिक्षा दर्शन शिक्षा, साहित्य शिक्षा भाषा शिक्षा और अध्यात्म शिक्षाको मानव जीवन के लिए अति आवश्यक माना गया है सभी विषयों में मानव मूल्यों को महल दिया गया है उदाहरण के लिए, नैतिक शिक्षा को ही लीजिए मैतिक मूल्य के बिना नैतिक शिक्षा का कोई अर्थ नहीं होता है संतान को नैतिक शिक्षा में सर्वप्रथम सत्य बोलना. अहिंसा का पालन करना, शिष्टाचार के नियमों का पालन करना प्रेम पूर्वक मधुर वाणी बोलना, मर्यादा का पालन करना, पवित्रता से रहना और ज्ञानपूर्वक सभी विषयों को समझकर ही अमल में लाना चाहिए सम्मिलित किया गया है. ऐसी नैतिक शिक्षा संतान को देकर हम उसमें एक आदर्श मानव बनने के संस्कार का बीजारोपण कर देते है इससे जहाँ सन्तान का एक श्रेष्ठ मानव के रूप में निर्माण होता है वहीं पर परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व का भी हित होता है इसी तरह वैदिक विज्ञान शिक्षा में मानव मूल्यों के कारण वैदिक विज्ञान किसी भी स्तर पर किसी भी क्षेत्र में मानव और बमोड के लिए कभी विनाशकारी नहीं बनता है इसी सरह वैदिक शिक्षा में सम्मिलित साहित्य सदाचार परोपकार, अहिता पाटन, प्रेम सुपिता और करुणा जैसे मानवीय मूल्यों से ओत प्रोत होता है. कहने का तात्पर्य यह है कि वैदिक शिक्षा का प्रत्येक क्षेत्र, विषय और स्थान मानव मूल्यों से परिपूर्ण है, जिसे अपनाकर
सारा विश्व मानवता के रास्ते पर आगे बढ़ सकता है.
आज जब विश्व न्यायालय, विश्व सरकार, विश्व धर्म की बात हो रही हो ऐसे यह विचार करना लाजमी हो जाता है कि विश्व न्यायालय, विश्व सरकार, विश्व धर्म और विश्व मानव का निर्माण क्या आज की शिक्षा के द्वारा सम्भव है? ऐसा कौनसा
भार्ग, सिमान्त, प्रणाली, विधि, दर्शन, विचार और साधन हो सकते हैं, जिन्हें अपनाकर इन्हे मूर्तरूप दिया जा सकता है? यन्त्र विश्व भवति एकनीसम्’ का वैदिक संदेश क्या इस दिशा में उपयोगी भूमिका निभा सकता है। वसुधैव कुटुम्बकम पैदिक शिक्षा का ही संदेश है. वैदिक मूल्य चेतना भारतीय शिक्षा दर्शन का वैशिष्ट्य है. यह मूल्य चेतना विश्व की किसी भी शिक्षा पद्धति में नहीं दष्टव्य होता है यही कारण है कि आज जय कि विश्व चरित्रहीनता, आतंक, हिंसा, स्वार्थ, व्यभिचार, कटुता, साम्प्रदायिकता, पणा, अधर्म, अन्याय, शोषण, जुल्म करता और भ्रष्टाचार के दौर से गुजर रहा है ऐसे में वैदिक शिक्षा में मूल्य चेतना का महत्व और भी बढ़ जाता है.
वेदों में वर्णित शिक्षा के विषय अत्यंत विस्तृत है. अथर्ववेद में निम्नलिखित विषयों का उल्लेख मिलता है-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अर्थर्ववेद के अतिरिक्त इतिहास, पुराण, गाथा, नाराशसी, सर्पवेद, विशाचवेद, असुरवेद, इतिहास वेद, पुराण वेद के अतिरिक्त दूसरे वैदिक वागमय के ग्रंथों में अन्य विषयों को शिक्षा में सम्मिलित किए जाने का वर्णन किया गया है जिसमें नारद स्मृति में नारद मुनि द्वारा किया गया उल्लेख प्रमुख है जो विषय वैदिक शिक्षा वर्णित हैं उनकी अनेक तरह से उपयोगिता है, जिसमें शिक्षा की सामाजिक उपयोगिता, शिक्षा की आर्थिक उपयोगिता, व्यावहारिक ज्ञान और उपयोगिता, मानव जीवन दर्शन, सामाजिक एवं राजनीतिक चेतना, परमार्थ विवेकजीवन-परिष्कार, बुद्धि-परिष्कार, उच्च ज्ञान-विज्ञान की उपयोगिता, तत्वचितन की धारा का बढ़ना, विश्वबंधुत्व का उदबोधक होने से जगतभर के लिए
हितकारी, नीति शिक्षा और आचार-शिक्षा प्रमुख हैं. ये जितने भी विषय हैं सभी विषय मूल्यों पर ही आधारित हैं. वेद के अतिरिक्त इतने विस्तृत रूप में अन्य कहीं भी शिक्षा को समगता से नहीं लिया गया है.
महर्षि दयानंद ने वैदिक शिक्षा के महत्व के सम्बन्ध में अत्यंत ज्ञानपूर्ण और व्यावहारिक वर्णन किया है. सत्यार्थप्रकाश के द्वितीय समुल्लास में महर्षि कहते हैं-मातृमान् पितृमानाचार्यवान् पुरुषो वेद (शतपथ ब्राह्मण) ये जीवन को परिपूर्ण बनाने वाले तीन आचार्य हैं. जीवन को पूर्ण बनाने और मोक्ष मार्ग का ज्ञान, इन तीनों आचार्यों के माध्यम से प्राप्त होता है जीवन विज्ञान का पथ इन आचार्यों के माध्यम से ही निर्मित होता है वैदिक शिक्षा से ही आनन्द का अनंत सोत हमारे अंदर झरता है हमारा जीवन विज्ञान अत्यंत रहस्यमय और भावनापूर्ण है. जिस तरह से हमारा जीवन चार भागों में विभाजित है उसी तरह ज्ञान को वेद के माध्यम से चार भागों में बांटा गया है. इनमें मानव के हित के आवश्यक सभी प्रकार की शिक्षाएँ, विषय, ज्ञान, विज्ञान, कर्मकांड, कर्म साधना और तंत्र-मंत्र (व्यवस्था के मंत्र) दे दिए गए हैं. ऋग्वेद में वर्णन आता है―
ऋचां त्वं पोषमास्ते पुपुष्वान् गायत्रं त्वो गायति शक्वरीषु।
ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्यां यज्ञस्य मात्रां विमिमीत उ त्वः।।
चारों वेदों में चार विभाग किए गए हैं. जिसमें प्रथम अग्नि का ज्ञान, द्वितीय साम- गान की विद्या, तृतीय ब्रह्म विज्ञान का ज्ञान और चतुर्थ कर्म की विधि का ज्ञान होता है. इसे हम इस प्रकार भी समझ सकते हैं. 1-कर्म प्रधान, 2-भक्ति प्रधान, 3-ज्ञान-
प्रधान, 4-विज्ञान प्रधान. इस तरह जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वैदिक शिक्षा का मूल्यांकन करना आवश्यक है, इसे हम जब मानव मूल्यों से जोड़ते हैं तो इसकी उत्कृष्टता, नवीनता और उपयोगिता का पता चलता है.
जीवन विज्ञान, अध्यात्म और संस्कृति में मानव मूल्यों को जब हम समावेशित करके देखते हैं तो पता चलता है कि मानव मूल्यों से जीवन विज्ञान, अध्यात्म एवं संस्कृति का तर्पण होता है. जीवन का धर्म इनसे आप्लावित होता है. मानव जीवन को पूर्ण बनाने वाले सोलह संस्कारों, चारों आश्रमों, चारों वर्गों और चारों वेदों में वर्णित ज्ञान में मानव मूल्यों का समावेश है. वैदिक शिक्षा मानव को पूर्ण बनाने में इन्हीं विषयों, क्षेत्रों और धाराओं के साथ आगे बढ़ती है. हम इसे निष्पक्ष ढंग से देखने का प्रयास करें तो, वैदिक शिक्षा की महत्ता और उपयोगिता दोनों समझ में आ जाती हैं.
मानव समाज के चार वर्ण और मानव मूल्य
हम कह सकते हैं कि वैदिक शिक्षा मानव मात्र को मर्यादित, गौरवपूर्ण, ज्ञानी, संस्कार युक्त और जिम्मेदार पूर्ण मानव बनाने की दृष्टि से की जाती है. मनुर्भव मानव मूल्यों की विस्तारवादी व्याख्या है जिसे हम वेद के माध्यम से प्राप्त करते हैं.
विश्व समाज पहले से कहीं अधिक जटिल, स्वार्थी, अहंकारी, अधार्मिक और मूल्य रहित है. ऐसे में सम्पूर्ण विश्व को एक ऐसी शिक्षा पद्धति, शिक्षा प्रणाली और शिक्षा दर्शन की आवश्यकता है जो सभी तरह की समस्याओं, संकटों, प्रवृत्तियों, संस्कृतियों जातियों, मतों, सम्प्रदायों और वर्गों को एक कर सके और ज्ञान के पावन पथ पर संवाहित करने के लिए संस्कार दे सके.
यह प्रश्न उठ सकता है विश्व समाज के सम्मुख वर्तमान समस्याओं, संकटों, दुर्वृत्तियों और अंधविश्वासों को समाप्त कर सर्व-उपयोगी विज्ञान युक्त शिक्षा का मॉडल क्या होगा ? ध्यान रहे, पिछले एक हजार वर्षों में वैदिक शिक्षा ने ऐसी कोई आदर्श शिक्षा प्रणाली नहीं विश्व के सामने प्रस्तुत की जो विश्व समाज को प्रभावित करने में समर्थ होती. इसलिए सबसे पहले वैदिक शिक्षा पद्धति और प्रणाली को आज के अनुरूप बनाने के लिए इसे शोध के दायरे में लाने की आवश्यकता है. फिर भी वेद में वर्णित शिक्षा का जो स्वरूप है उसका कोई विकल्प विश्व के सामने अभी तक नहीं
प्रस्तुत किया जा सका है, जो समग्र रूप में सर्वोपयोगी, कल्याणकारी और मानव के परम लक्ष्य को प्राप्त करने की विधि प्रस्तुत करता हो.
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