व्यापक जैविक विलोपन
व्यापक जैविक विलोपन
व्यापक जैविक विलोपन
जैव-मण्डल की तुलना एक बहुत बड़ी दीवार से की जा सकती है, मनुष्य जिसके
ऊपर बैठा है. अगर इस जैव-मण्डल में से हम जानवरों की कुछ प्रजातियाँ गवा भी देते
है, तो दीवार से महज कुछ ईटें गुम होंगी, तो फिर भी दीवार खड़ी रहेगी. परन्तु यदि,
अधिकाधिक जानवर विलुप्त होते जाएंगे, तो पूरी दीवार भी दरक सकती है सवाल है कि
इंटों को हटा कौन रहा है ?
व्यापक जैविक विलोपन ऐसी वैश्विक घटना को कहते हैं जिसके दौरान पृथ्वी के
75 प्रतिशत से अधिक वन्य जीव विलुप्त हो जाते हैं पिछले 50 करोड़ वर्षों में इस तरह
के व्यापक विलोपन की पाँच घटनाएं हुई हैं. इनमें से सबसे हालिया विलोपन ने
डायनासौर को हमेशा के लिए खत्म कर दिया था, लेकिन कितने लोग यह जानते हैं
कि हाल ही में किए गए कई शोध-अध्ययनों ने समय-समय पर यह दावा किया है कि
पृथ्वी एक और व्यापक विलोपन घटना की गिरफ्त में है : छठा व्यापक विलोपन.
प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ जर्नल में हाल ही में
प्रकाशित एक शोध आलेख छठे व्यापक विलोपन के अपने दावों के साथ एक कदम
और आगे बढ़ता है. यह अध्ययन बताता है कि न केवल छठा व्यापक विलोपन एक
वास्तविकता है, बल्कि इसके परिणाम हमारे सोच से कहीं अधिक गम्भीर होंगे. इसके
अलावा यह अध्ययन इसके लिए पूरी तरह मनुष्यों को ज़िम्मेदार ठहराता है. यह काफी
दिलचस्प बात है कि पहला व्यापक विलोपन, जो मनुष्य के अस्तित्व में आने से
बहुत पहले हुआ था, वह भी उल्काओं की बौछार या ज्वालामुखी विस्फोटों के कारण
नहीं, बल्कि जीवों के द्वारा ही हुआ था.
अपने शोध पत्र में लेखक-गेरार्डो सेबालोस, पॉल आर. एयलिच, रोडोल्फो
दिर्जो लिखते हैं कि “पिछले कुछ दशकों में, प्राकृतवासों की हानि, अतिदोहन, घुसपैठी
जीव, प्रदूषण, विषाक्तता, और हाल ही में जलवायु की गड़बड़ी तथा इन कारकों के
बीच परस्पर क्रियाएं आम एवं दुर्लभ कशेरुकी आबादियों की संख्या और उनके
आकार दोनों में भयावह गिरावट का कारण बनी है. इसके अलावा, अध्ययन के
अनुसार, पिछले सौ वर्षों में, “हमारे साथ पृथ्वी पर रहने वाले रीढ़धारी जीवों की 50
प्रतिशत संख्या खत्म हो चुकी है”, और इस तरह से जीवों की आबादी का ऐसा भयावह
पतन इस ओर संकेत देता है कि छठा व्यापक विलोपन शुरू हो चुका है. लेकिन
इस व्यापक विलोपन के कारण यदि 75 प्रतिशत से अधिक जीव भी खत्म हो जाए
मनुष्य होने के नाते हम क्यों परवाह करें? क्योंकि पारिस्थितिक तन्त्र में विभिन्न जीव
एक दूसरे पर निर्भर है, श्रृंखला प्रभाव की तरह मनुष्यों पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव
पड़ेगा. उदाहरण के लिए, कीट-पतंगों को ही लीजिए. यदि कीटों की हजारों प्रजातियाँ
विलुप्त हो जाए, तो पेड़ों की हजारों प्रजातियाँ भी गायब हो जाएगी, क्योंकि पेड़ों
की कई प्रजातियाँ परागण के लिए कीटों पर निर्भर होती हैं, अगर पेड़ गायब हो जाते हैं,
तो मानव जाति के लिए यह मौत की दस्तक होगी.
यह देखते हुए कि यह बड़े पैमाने का विलोपन मानव अस्तित्व के लिए एक
वास्तविक खतरा साबित हो सकता है, यह काफी निराशाजनक है कि इस विलोपन के
प्राथमिक कारण यानी हम इससे बेखबर हैं. इसकी ओर ध्यान न देने के कारण हैं.
पहला कारण है, औसतन हर साल गायब होने वाली प्रजातियाँ ऐसी होती हैं, जो या
तो हमारे लिए आकर्षक नहीं हैं (शेर की तरह आकर्षक नहीं हैं) या दुनिया के
अलग-अलग कोनों में रहती हैं, इसलिए हम उस नुकसान को महसूस नहीं करते हैं.
उदाहरण के लिए, क्या आपने ‘कैटरीना, पपफिश’ का नाम सुना है, या “क्रिसमस
आइलैण्ड पिपिस्ट्रल’ का या ‘पायरेनियन आइबेक्स’ का? हाल ही के दिनों में ये
तीनों प्रजातियों हमेशा के लिए लुप्त हो चुकी हैं. लेकिन हममें से कितने लोग इस
तथ्य से अवगत हैं ? विलोपन के खतरे की सूचना से हमें अनभिज्ञ रखने वाला दूसरा
कारण यह है कि पृथ्वी के वन्य जीवन के स्वास्थ्य का आकलन करने हेतु शोध
अध्ययनों का पूरा ध्यान केवल ‘अन्तिम बिन्दु’ पर रहा है-यानी जीवों की प्रजातियों
का पूरी तरह विलुप्त हो जाना. और वर्तमान अध्ययन यही बताता है कि अन्तिम बिन्दु’
आधारित उन अध्ययनों ने व्यापक विलोपन के परिमाण को कम करके आँका है. अगले
हिस्से में इस बात को विस्तार में स्पष्ट किया गया है तर्क को आगे बढ़ने के लिए,
एक जीव प्रजाति ‘X’ पर विचार करते हैं, यह जीव ‘X’ एशिया के पन्द्रह अलग-अलग
देशों में फैला हुआ है. दूसरे शब्दों में, इस जीव की वैश्विक आबादी’ पन्द्रह अलग-
अलग देशों में फैला हुई ‘स्थानीय आबादियों से मिलकर बनी है. किसी भी
देश में, इस जीव की स्थानीय आबादी में एक निश्चित संख्या में जीव होंगे: किसी
अन्य देश में निश्चित संख्या की स्थानीय आबादी होगी, और इसी तरह सब देशों में
अलग-अलग स्थानीय आबादियाँ होंगी.
मान लीजिए, एक साल के बाद, पन्द्रह स्थानीय आवादियों में से चौदह खत्म हो
जाती हैं और केवल एक अन्तिम स्थानीय आबादी बची रह जाती है. ऐसे परिदृश्य में,
अगर हम केवल ‘अन्तिम बिन्दु’-यानी इस जीव प्रजाति का पूर्ण विलोपन-पर ध्यान
केन्द्रित करेंगे, तो हर साल हम जीव ‘X’ के सामने एक टिक मार्क लगाकर इसे
‘विलुप्त नहीं की श्रेणी में डाल देंगे, क्योंकि एक स्थानीय आबादी तो बची हुई है.
‘विलुप्त’ या ‘विलुप्त नहीं’ का यह सख्त विभाजन जंगल में उपस्थित किसी प्रजाति
के वास्तविक स्वास्थ्य को समझने का एक अपरिष्कृत तरीका है. वर्तमान अध्ययन के
अनुसार, वर्तमान व्यापक विलोपन की घटना का सही अनुमान लगाने के लिए, यह जरूरी
है कि प्रजातियों की स्थानीय आबादियों के विलुप्त होने पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया
जाए, न कि केवल वैश्विक विलुप्ति पर कोई जीव जीवित है इसका मतलब यह नहीं
कि वह फल-फूल रहा है
पिछले सभी अध्ययनों में इसी दोषपूर्ण रास्ते को अपनाया गया है जिनमें केवल
‘अन्तिम बिन्दु’ पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है. इस प्रकार ये अध्ययन इस गलतफहमी
के शिकार हैं कि जैव विविधता के नुकसान का दौर शुरू ही हो रहा है, और मानव
जाति के पास इसका मुकाबला करने के लिए कई दशकों का समय उपलब्ध है. हम
इस बात पर जोर देते है कि छठा सामूहिक विलोपन शुरू हो चुका है और प्रभावी
कार्रवाई के लिए वक्त बहुत कम है पिछले सौ वर्षों में, पृथ्वी की रीढ़धारी
प्रजातियों में से 32 प्रतिशत की आबादी के आकार और भौगोलिक विस्तार में कमी
आई है. अध्ययन में विश्लेषण किए गए सभी 177 स्तनधारियों ने अपने भौगोलिक
क्षेत्रों का 30 प्रतिशत या उससे अधिक हिस्सा खो दिया है, और 40 प्रतिशत से
अधिक प्रजातियों की सीमा 80 प्रतिशत से अधिक घट गई है जीयों की जिन प्रजातियों
को कम चिन्ता की श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है, वे भी इसी तरह के संकटों से पीडित है
और लगातार लुप्तप्राय’ श्रेणी की ओर बढ़ रही हैं.
“हमारा डेटा बताता है कि प्रजातियों के विलुप्त होने से परे, पृथ्वी स्थानीय आबादियों में गिरावट और विलुप्त होने की एक विशाल घटना का सामना कर रही है, जिससे पारिस्थितिकी तन्त्र का कार्य और सेवाओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है. यह पारिस्थितिकी तन्त्र सभ्यता को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण होता है. वर्तमान स्थिति में विभिन्न जीव प्रजातियों की सैकड़ों हजारों स्थानीय आबादियों के कठोर और व्यापक विलोप का संकेत देती है आखिरकार, इस तरह स्थानीय आवादियों और प्राकृतवासों का नुकसान कुछ ही समय में हजारों जीव प्रजातियों के वैश्विक विलोप का कारण बन जाएगा, जिसको व्यापक विलोपन कहते हैं.
कई वैज्ञानिकों ने इसके निष्कर्षों पर सवाल उठाए हैं, इन वैज्ञानिकों को लगता है कि यह अध्ययन फालतू में ‘भेडिया आया, भेडिया आया’ का शोर मचाने जैसा है, क्योंकि व्यापक विलुप्ति की
घटनाओं के इरादे कहीं अधिक सख्त होते हैं. इनका मानना है कि व्यापक विलुप्ति की घटनाएं लाखों वर्षों में सामने आती हैं. इसलिए यह मान लेना जल्दबाजी होगी कि पानी सिर से ऊपर जा चुका है.
आखिरकार इस अध्ययन में मात्र पिछले 100 वर्षों में केवल रीढ़धारी जीवों की विलुप्ति की संख्या पर ही तो विचार किया गया है, यह अवधि पिछले बड़े पैमाने पर विलोपन घटनाओं की तुलना में
पलक झपकाने जैसी है, केवल 27,600 कशेरुकी जीवों पर ध्यान केन्द्रित करके (जो कुल 87 लाख जीव प्रजातियों का अंश-मात्र है)
यह अध्ययन व्यापक विलुप्ति की घटना की एक ऐसी तस्वीर खींचता है जो वास्तविकता से कहीं अधिक गम्भीर और अतिरजित बन गई है, इसके अलावा, एक यह तर्क भी दिया जा सकता है कि
विलोपन के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए मनुष्य नामक प्राणि कोई न कोई समाधान खोज निकालेगा. जैसाकि पहले उल्लेख किया गया है, यह ध्यान रखना समझदारी होगी कि जैविक व्यापक
विलोपन की घटना अचानक होने वाली घटना नहीं है जो पूरी मानव जाति को एक झपट्टा मारकर समाप्त कर देगी. यह सही है कि ऐसी घटना के दौरान अल्पावधि में हजारों जीव प्रजातियाँ उच्च दर
से विलुप्त हो जाती हैं, लेकिन यह अल्पावधि लाखों वर्षों में फैली होती है. ऐसी प्रौद्योगिकियों का निर्माण करने के लिए भी यह पर्याप्त समय हो सकता है, जिससे विलुप्त पेड़-पौधों की नकल कर
वायुमण्डलीय ऑक्सीजन और अन्य गैसों की निश्चित मात्रा को बरकरार रखा जा सके. तब तक, हम अन्य ग्रहों पर बस ही चुके होंगे. तो, व्यापक विलोपन का खतरा उतना बुरा नहीं हो सकता है
जितना लगता है. कम-से-कम मनुष्यों के लिए तो नहीं.
हमने पिछले 100 वर्षों में 50 प्रतिशत कशेरुकी जीवों का सफाया तो कर दिया है, अगर अब कुछ नहीं किया गया तो हम जल्द ही बचे हुए 50 प्रतिशत को भी खो सकते हैं, जैव-विविधता
के नुकसान की ऐसी दर पहले हो चुकी विलोपन की घटनाओं से कहीं अधिक विनाशकारी साबित हो सकती है
जैव-विविधता के सन्दर्भ में वन्य जीव विलुप्ति के साथ-साथ भारत में जंगली पादप प्रजातियाँ/स्पीशीज भी खतरे में है यानि विलुप्ति की ओर हैं, जिनमें वृक्षों की स्पीशीज-188; हस-422, श्रब
क्लाइम्बर्स-66; हर्बेसियस क्लाइम्बर्स-37 एवं बुडी वृया क्लाइम्बर्स- 13 है जो ’21 वीं सदी हेतु एक चिन्ता का विषय हैं. अतः पर्यावरण प्रदूषण के नियन्त्रण पर विशेष ध्यान देना होगा
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