शब्द-विज्ञान बनाम व्युत्पत्ति-शास्त्र

शब्द-विज्ञान बनाम व्युत्पत्ति-शास्त्र

                       शब्द-विज्ञान बनाम व्युत्पत्ति-शास्त्र

शब्दों के निर्माण का यथार्थ इसकी व्युत्पत्ति से जुड़ा होता है। कभी-कभी तो शब्द व्युत्पत्ति के हो आधार
पर रखे जाते हैं। यह व्युत्पत्ति-शास्त्र शब्द-विज्ञान का एक प्रमुख अंग है। यह ध्वनि-विज्ञान, शब्द-विज्ञान और
अर्थ-विज्ञान का सम्मिलित योग है। इसी के आधार पर शब्द का मूल खोजा जाता है। इसमें यह पता लगाया जाता
है कि कोई शब्द विशेष मूलतः किस भाषा का है। मूल शब्द के अर्थ तथा रूप का भी पता लगाने का प्रयास किया
जाता है। उसकी ध्वनि या अर्थ में हुए परिवर्तनों के कारणों एवं तत्संबंधी परिस्थितियों का भी पता लगाया जाता है।
यही कारण है कि शब्दकोशों में मूल शब्द देने के साथ ही मूल शब्द कहाँ का है, यह भी देने का प्रयास किया जाता
है। अन्य भाषाओं से तुलनात्मक सामग्री भी देने की चेष्टा की जाती है। व्युत्पत्ति-शास्त्र के आधार पर किसी भाषा
विशेष के किसी एक समय में प्रयुक्त शब्द-समूह का विश्लेषण कर इस बात का भी पता लगाते हैं कि उसमें कितने
शब्द (कितने प्रतिशत शब्द) अपने हैं तथा कितने प्रतिशत विदेशी या अन्य भाषाओं के।
 
व्युत्पत्ति शब्द यूनानी शब्द (etymos) यथार्थ, और (logos) शब्द या लेखा-जोखा है। इसका अर्थ हुआ
यथार्थ लेखा-जोखा । यूनानी भाषा में ‘एटिमॉलोजी’ मूलतः दर्शन की एक शाखा थी न कि भाषा-विज्ञान की; जिसमें
यूनानी दार्शनिक किसी शब्द द्वारा व्यक्त भाव या विचार की यथार्थ जानकारी के लिये शब्दों के मूल अर्थ का अध्ययन
करते थे। हिंदी में इसके लिये व्युत्पत्ति-शास्त्र शब्द है। पुराने समय में भारत-वर्ष में इस शास्त्र को निरुक्त कहते
थे और यह छह वेदांगों में एक था। लोगों का विश्वास है कि उस समय ‘निघंटु’ के शब्दों की व्याख्या और व्युत्पत्ति
को स्पष्ट करने के लिये बहुत से निरुक्त ग्रंथों की रचना हुई होगी। उन्हीं में से एक सबसे प्रसिद्ध यास्क का निरुक्त
है। आज केवल वही उपलब्ध है। इस दृष्टि से संभवतः यास्क विश्व के प्राचीनतम व्युत्पत्तिकार हैं। उन्होंने अपने
निरुक्त में कुल बारह सौ अंठानवे व्युत्पत्तियाँ दी हैं जिनमें दो सौ चौबीस बहुत ही वैज्ञानिक एवं युक्तियुक्त हैं । यास्क
ने एक शब्द की एक ही व्युत्पत्ति न देकर एक से अधिक व्युत्पत्तियाँ दी हैं।
 
        व्युत्पत्ति और भ्रामक व्युत्पत्ति :
 
ध्वनि साम्य देखकर किसी और शब्द को और समझ लेना भ्रामक व्युत्पत्ति है। इसके कारण बहुत से शब्दों
में ध्वनि-परिवर्तन हो जाते हैं। पहरा देने वाले संतरी का ‘हू कम्स देअर? का ‘हुकुम सदर’ कहना, ग्रामीण जनता
का लायब्रेरी को ‘रायबरेली’ ‘कहना, ‘चार्जशीट’ को चारशीट कहना ‘आनरेरी’ को ‘अन्हेरी’ कहना ऐसे ही उदाहरण
हैं। ऐसे ही अरबी शब्द ‘जात’ को संस्कृत जाति, अफगानिस्तान को संस्कृत का आवागमन-स्थान, चीन को संस्कृत
का च्यवन देश, क्राइस्ट को संस्कृत का कृष्ण तथा मिस्टर को मित्र समझना ऐसी ही भूलें हैं।
 
शब्द की व्युत्पत्ति देने में बहुत-सी बातों पर ध्यान देना पड़ता है, जिनमें प्रधान ये हैं :
 
(1) जिस शब्द को व्युत्पत्ति देनी हो, उसके जीवन का पता लगाकर उस पर कालक्रमानुसार विचार करके उसके
पुराने रूप, अर्थ और प्रयोग को निश्चित कर लेना चाहिये । जिस शब्द के संबंध में ये बातें निश्चित हो जाएँ, उसकी
व्युत्पत्ति देने में भटकने का भय नहीं रह जाता।
 
(2) दो भाषाओं में एक ध्वनि तथा एक अर्थ के शब्द पाकर बिना और छानबीन किये दोनों को सम्बद्ध नहीं
मानना चाहिये । उदाहरण के लिये भोजपुरी का ‘नीयर’, ‘नियर’ या नियरा (नजदीक) और अंग्रेजी का ‘नीअर (near)
नजदीक, शब्दों को लें। दोनों में ध्वनि तथा अर्थ का साम्य है, पर यथार्थतः भोजपुरी का ‘नियर’ या नियरा’ शब्द
संस्कृत शब्द ‘निकट’ से निकला है। अंग्रेजी के ‘नीअर’ से इसका कोई संबंध नहीं है।
 
(3) दो शब्दों को संबद्ध सिद्ध करने में या किसी पुराने शब्द से किसी बाद में शब्द को व्युत्पन्न सिद्ध करने
में ध्वनि या रूप के अतिरिक्त अर्थ पर भी विचार करना चाहिये और यदि कोई अर्थ-परिवर्तन दिखाई पड़े तो भूगोल,
इतिहास तथा सामाजिक नियमों एवं रूढ़ियों के प्रकाश में उस परिवर्तन का कारण समझ लेना चाहिये ।
 
(4) किसी भी ध्वनि का न तो यों ही लोप होता है और न कोई अतिरिक्त ध्वनि यों ही किसी शब्द में जुड़
जाती है। अकारण अनुनासिकता भी इसका अपवाद नहीं । इस प्रकार के परिवर्तन में मुख-सुख, सादृश्य, किसी और
शब्द का साथ में जुड़ना तथा स्वराघात (बलाघात तथा संगीतात्मक) आदि काम करते हैं। इन दृष्टियों से भी दो शब्दों
(यदि उनके रूप अभिन्न न हों) को संबद्ध सिद्ध करने में विचार आवश्यक है। इस संदर्भ में ध्वनि-नियम रखा जाना
चाहिये।
 
(5) भाषा के विकास के साथ शब्द उच्चारण की दृष्टि से सरल तथा लम्बाई में प्रायः छोटे होते जाते हैं।
एक शब्द के दो रूपों में प्राचीन तथा नवीन रूप पहचानने के लिये इस सिद्धांत को अपनाया जाना चाहिये ।
 
(6) यदि किसी अन्य भाषा से उधार लिये जाने की संभावना हो तो ऐतिहासिक और भौगोलिक दृष्टि से उस
पर विचार अपेक्षित है। दो भाषाभाषियों के प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से संपर्क होने पर ही, एक भाषा के शब्द दूसरी
भाषा में पहुँचते हैं।
 
(7) किसी भी भाषा के शब्द प्रमुखतः तीन प्रकार के हो सकते हैं। शब्द की व्युत्पत्ति निश्चित करने में उनका
ध्यान रखना आवश्यक है। संभव है देखने में कोई शब्द विदेशी लगे पर यथार्थ में वह अपनी प्राचीन भाषा से
विकसित हुआ हो, और उसी जननी भाषा से अतीत में कभी विदेशी भाषा में चला गया हो। कभी विदेशी भाषा से
ही वह आधुनिक काल में लिया गया संभव हो। अंग्रेजी शब्द ‘शैम्पू’ का प्रसाधन-सामग्री में प्रमुख स्थान है। इसे
प्रायः लोग अंग्रेजी का शब्द समझते हैं परंतु यथार्थ में यह हिंदी शब्द चाँपना से ही अंग्रेजी में लिया गया है। इस
प्रकार मूलतः हिंदी शब्द चाँपना से विकसित हुए ‘शैम्पू’ अंग्रेजी में लिया गया शब्द माना जाता है।
 
(8) दो भाषाओं के दो शब्द यदि अर्थ एवं ध्वनि की दृष्टि से समान या समीप हों, संभव है कि वे दोनों भाषाएँ
कहीं एक ही परिवार की तो नहीं हैं ? संस्कृत का ‘पितृ’ अंग्रेजी का फादर या फारसी का हफ्त और संस्कृत सप्त
ऐसे ही शब्द हैं।
आधुनिक युग के प्रसिद्ध व्युत्पत्ति-शास्त्रियों में ‘नेपाली डिक्शनरी’ के सुयोग्य संपादक टर्नर के अतिरिक्त
अंग्रेजी भाषा के प्रसिद्ध व्युत्पत्तिकार स्कीट, यूल और बर्नेल आदि के नाम लिये जा सकते हैं। भारतीय
व्युत्पत्तिशास्त्रियों में मुनि रत्नचंद्रजी महाराज (अर्धमागधी) हर गोविंद दास विक्रमचंद्र सेठ (प्राकृत), ज्ञानेन्द्र मोहन
दास (बंगला), गोपालचंद्र (उड़िया), कृष्णाजी पांडुरंग कुलकर्णी (मराठी), हरिवल्लभ भायाणी (गुजराथी) तथा
वासुदेव शरण अग्रवाल (हिंदी) आदि मुख्य हैं। व्युत्पत्तिशास्त्र के ही आधार पर किसी भाषा के समस्त शब्दों की
संपूर्ण जीवनी देकर उस भाषा का सुंदर कोश बनाया जा सकता हैं। इससे भाषा के अतिरिक्त समाज-विज्ञान तथा
विज्ञान संबंधी कितनी ही समस्याओं पर प्रकाश पड़ सकता है।

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