सामाजिक न्याय की कसौटी पर भारतीय लोकतंत्र
सामाजिक न्याय की कसौटी पर भारतीय लोकतंत्र
सामाजिक न्याय की कसौटी पर भारतीय लोकतंत्र
“मैं प्रजातंत्र का अर्थ यह समझता कि इसमें नीचे से नीचे और ऊँचे-से-ऊँचे आदमी को आगे बढ़ने का समान अवसर मिले.”
भारतीय लोकतंत्र अपने आप में एक विस्तृत अर्थ समेटे हुए है, जिसमें सामाजिक न्याय की कसौटी स्वतः विद्यमान है सामाजिक न्याय समाज में एक ऐसी व्यवस्था उत्पन्न करने का मानदण्ड है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक क्षेत्र में समान रूप से भागीदार बन सके और किसी भी मनुष्य के साथ जाति, लिंग, वर्ग, क्षेत्र, भाषा, समुदाय इत्यादि सम्बन्धी भेदभाव न किया जाए और सभी को समान रूप से अपने जीवन में आवश्यक व मौलिक अधिकारों का उपभोग करने का समान अवसर प्राप्त हो जॉन रॉल्स ने अपने चिन्तन में कहा था समाज के कमजोर वर्गों की भलाई व संरक्षण के लिए राज्य को सक्रिय हस्तक्षेप करना चाहिए. रॉल्स अपने सिद्धान्तों में शुद्ध प्रक्रियात्मक न्याय की अवधारणा प्रस्तुत करते हुए वितरणात्मक न्याय के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहते हैं. ताकि एक न्यायसंगत समाज का निर्माण किया जा सके.
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत अंग्रेजी दासता की बेड़ियों से मुक्त हुआ, उसके बाद देश में लोकतंत्र के संचालन के साथ ही सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में परिवर्तन की लहर चली भारतीय संविधान की भूमिका में स्पष्ट किया गया है कि संविधान का निर्माण सबकी स्वतंत्रता, सबकी समानता व पारस्परिक भातृत्व की
मान्यता के आधार पर हुआ है, संविधान के निर्माण में केवल समान अवसर की वकालत नहीं की गई है, बल्कि प्राचीन समय से ही चली आ रही सामाजिक असमानता को भी दूर करने के प्रयत्नों का समावेश भी किया गया है. बाबा साहेब अम्बेडकर का सामाजिक
न्याय रूपी व्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान है. अम्बेडकर के अनुसार, “जाति-प्रथा हिन्दू समाज की सबसे बड़ी विकृति है और यह सामाजिक एकता में बाधक है.” भारतीय संविधान का प्रारूप प्रस्तुत करते समय अम्बेडकर ने संविधान सभा में कहा था कि “इस संविधान को अपनाकर हम विरोधा-भासों से भरे जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं. इससे राजनीतिक जीवन में तो समानता प्राप्त हो जाएगी, परन्तु सामाजिक और आर्थिक विषमता बनी रहेगी.” अतः स्पष्ट है कि सामाजिक न्याय को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक सामाजिक असमानता एवं आर्थिक असमानता हैं.
सामाजिक असमानता की जड़ का सूत्रपात प्राचीन भारत की वर्ण व्यवस्था से माना जाता है. भारत में जातियों को चार वर्गों में बाँटा गया था, जो इस प्रकार है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद, भारतीय समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य को उच्च वर्ग में तथा शूद्र को निम्न वर्ग में मान्यता दी गई थी. जो पहले व्यवसाय प्रधान थी, बाद में जाति-प्रधान हो गई इसी तरह की सामाजिक असमानता लोकतंत्र के सुचारू संचालन में बाधक बनती है फिर भी समाज में जातिगत नीतियाँ बनाई गई हैं, जिससे समाज में एकरूपता लाई जा सके, समाज में सभी को मुख्य धारा में लाने के लिए सबसे पहले अन्य पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लोगों को ही आरक्षण दिया गया. 26 जनवरी, 1950 को लागू होने वाले इस संविध ने कुछ बुनियादी सिद्धान्त और मूल्य सामने रखे, जिनमें से एक था सामाजिक न्याय अर्थात् जनता के कमजोर और पिछडे वर्गों मुख्यतया अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के शैक्षिक और सामाजिक हितों के प्रोत्साहन के लिए उन्हें जातिगत आधार पर आरक्षण प्रदान करना. संविधान के अनुच्छेद 16 में लोक नियोजन के विषय में अवसर
की समानता प्रदान की गई है
सरकार द्वारा पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के नागरिकों के लिए, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, उन्हें नियुक्तियों या पदों के लिए जातिगत आरक्षण प्रदान किया गया है. 73वें 17वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायती राज एवं नगर निकायों में महिलाओं को 33% आरक्षण का प्रावधान भी किया गया है. साथ ही अनुच्छेद 330 एवं 332 में क्रमशः लोक सभा तथा विधान सभाओं में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए स्थानों का आरक्षण दिया गया है. सामंतशाही सोच के ऐसे लोग, जो खुद को हमेशा औरों से अलग तथा ऊपर समझते हैं
और जो कभी भी सबका एक साथ विकास होते नहीं देखना चाहते, उन्होंने हमेशा ही आरक्षण को गलत बताकर इसका विरोध किया है, लेकिन समाज का एक पक्ष का मानना है कि जातिगत व्यवस्था के आरक्षण को समाप्त करके आर्थिक व्यवस्था को ही आधार मानकर आरक्षण दिया जाए जिससे भारत सरकार सभी जातियों के पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में जानकारी लेकर ही उसमें जो लोग एकदम गरीब हैं उन्हीं को ही आरक्षण दिया जाए जिससे भारत जैसे देश से गरीबी मिट सके.
सामाजिक न्याय के लिए आर्थिक असमानता भी बहुत अधिक हद तक जिम्मेदार है अरस्तू ने तो असमानताओं को सभी प्रकार की क्रांतियों का मूल माना है. सामाजिक न्याय को तहस-नहस करने में आर्थिक असमानता की भी महत्वपूर्ण भूमिका है. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद औपनिवेशिक शासन के प्रभाव के रूप में आर्थिक पिछडा- पन भी सामाजिक न्याय के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती के रूप में उभरा है, गरीबी तथा पिछडेपन की यह विविधता भारत जैसे लोकतात्रिक देश के लिए सबसे बड़ी समस्या है
सामाजिक न्याय को देखते हुए स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए अनेक संवैधानिक प्रावधान किए गए राज्य के नीति निर्देशक तत्व तथा मौलिक अधिकारों में इस बात का विशेष ध्यान रखा गया कि देश के लोगों को राजनीतिक तथा सामाजिक न्याय के साथ-साथ आर्थिक समानता भी प्राप्त हो. लेकिन
इसके सही क्रियान्वयन के अभाव में आजादी के 71 साल के बाद भी स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ आर्थिक स्रोतों का अभाव इसका एक प्रमुख कारण है, लेकिन साथ ही साथ राजनीतिक एवं प्रशासनिक प्रतिबद्धता की कमी भी इसके लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार है
लोकतंत्र एवं विकास निर्वाध रूप से साथ-साथ चल सकते. अमरीका, जापान, दक्षिण कोरिया, इण्डोनेशिया, इंगलैण्ड, आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड जैसे लोकतात्रिक देशों के तीव्र आर्थिक विकास इस बात की पुष्टि करते हैं कि लोकतंत्र आर्थिक विकास की प्रक्रिया में बाधक नहीं है दुनिया का पुराना लोकतात्रिक देश संयुक्त राज्य अमरीका आज दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति है न्यूनाधिक यही स्थिति जापान की भी है दरअसल लोकतंत्र एवं लोकतांत्रिक प्रक्रिया देश में भी आर्थिक विकास का समान अवसर प्रदान करती है जरूरत है तो सिर्फ उचित कार्य नीति बनाने
तथा उसके सुचारु संचालन की. उपर्युक्त लोकतात्रिक देशों का विकसित देशों की कतार में खड़ा होना, तो यही साबित करता है. हमारे देश में गरीबी-अमीरी का अनुपात भी सामाजिक न्याय को बाधित करता है और इसी कारण लोकतंत्र का संतुलन बिगड़ता है.
अल्पसंख्यक समुदाय के परिप्रेक्ष्य में सामाजिक न्याय एक महत्वपूर्ण घटक है. संवैधानिक उपबन्धों के आधार पर अल्पसख्यकों के साथ सामाजिक न्याय करना शासन का कानूनी एवं नैतिक कर्तव्य बनता है. देश में अल्पसंख्यक समुदाय की भलाई हेतु भारत सरकार के अन्तर्गत अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय अपनी अहम् भूमिका निभा रहा है, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 के तहत् पाँच धार्मिक समुदायों, मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध तथा पारसी को अल्पसंख्यक अधिसूचित किया गया है, इनकी जनसख्या देश की कुल जनसंख्या/आबादी का 18.47% हिस्सा है, अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय का गठन 29 जनवरी, 2006 को किया गया था. कम समय में ही मंत्रालय ने न केवल पूरी तरह से काम करना शुरू कर दिया है. बल्कि चल रही योजनाओं व कार्यक्रमों को सरल और कारगर भी बनाया है. साथ ही अल्पसंख्यक समुदायों के कल्याणार्थ रचनात्मक व प्रभावी योजना/कार्यक्रम भी शुरू किए गए हैं जैसे
प्रधानमत्री का 15 सूत्री कार्यक्रम, विद्यार्थियों के लिए छात्रवृत्ति योजना, मैट्रिक पूर्व स्कॉलरशिप, निशुल्क कोचिंग इत्यादि अल्पसंख्यक बाहुल जिलों की पहचान.
देश की जनसंख्या वृद्धि जनगणना 2011 के अनुसार 125 करोड़ को पार कर गई है. अतः स्पष्ट है कि समूची जनसंख्या के लिए मूलभूत आवश्यकताएं रोटी, कपड़ा, मकान एवं शिक्षा इत्यादि को मुहैया कराना सरकार के समक्ष एक चुनौती होती है. साथ ही शासन का मूल कर्त्तव्य यह बनता है कि समस्त अल्पसंख्यकों के साथ सामाजिक न्याय हो तथा उनके साथ किसी तरह का भेदभाव न हो, जिससे लोकतंत्र के संचालन में किसी प्रकार की बाधा न हो सके.
सामाजिक न्याय दिलाने में न्यायिक सक्रियता की महत्वपूर्ण भूमिका है. संवैधानिक दृष्टिकोण से हमारा देश एक लोकतांत्रिक समाजवादी एवं कल्याणकारी देश है. न्यायिक सक्रियता बदलते समय में न्यायिक दृष्टिकोण की एक गतिशील प्रक्रिया है, जो न्यायाधीशों को प्रेरित करती है कि वे परम्परागत उदाहरणों को अपनाने की अपेक्षा प्रगतिशील दृष्टि और नई सामाजिक नीतियों को अपनाएं न्यायपालिका अपनी न्यायिक शक्तियों का प्रयोग मौलिक अधिकारों की रक्षा और देश के नागरिकों की स्वतन्त्रता के लिए करती है लोकतन्त्र के तीन प्रमुख स्तम्भ है-कार्यपालिका, विधायिका एवं
न्यायपालिका भारतीय संविधान में व्यवस्थापिका, कार्यपालिका एव न्यायपालिका के कार्यों का स्पष्ट उल्लेख है. जब कार्यपालिका और विधायिका द्वारा अपने उत्तरदायित्वों का वहन ठीक प्रकार से नहीं किया जाता, तो न केवल लोगों के बुनियादी अधिकारों पर प्रभाव पड़ता है, बल्कि समाज में अन्याय और अशान्ति को प्रोत्साहन प्राप्त होने लगता है. देश को सक्षम सहयोग देने के लिए न्यायपालिका जनहित को दृष्टि में रखती है तथा कार्यपालिका एवं विधायिका के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करती है.
लिंगानुपात सामाजिक न्याय के लिए एक कलक है और लोकतंत्र के लिए एक प्रश्नचिह्न है. जनगणना 2011 के अनुसार भारत में प्रति 1000 पुरुषों पर 943 महिलाएं है. वर्तमान में यह स्थिति और विषम होती नजर आ रही है कि एक हजार पुरुषों की तुलना महिलाओं की संख्या में वृद्धि नहीं हो रही है. इस प्रकार लिंगानुपात की स्थिति में सुधार नहीं हो रहा है, अपितु अन्तर बढ़ता जा रहा है. जबकि परिवार, समाज एवं राष्ट्र के चहुंमुखी विकास में पुरुष एवं महिला विकास रथ के दो पहिए रथ के दोनों पहिए गतिशील हों, तो मंजिल पर पहुंचने में देर नहीं लगती. एक पहिया कमजोर होने पर दूसरे पहिए का महत्व भी नहीं के बराबर रह जाता है. अतः पुरुषों एवं महिलाओं का अनुपात समान रहना चाहिए अन्यथा सम्पूर्ण विकास सम्भव नहीं होगा. सामाजिक न्याय की दृष्टि से लिंगानुपात में विषमता होना एक गहरा आघात है, परन्तु वर्तमान शासन व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में कन्याओं को बचाने के लिए केन्द्र सरकार एवं विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा नई प्रोत्साहन योजनाएं चलाई जा रही हैं एवं कन्या भ्रूण हत्या के लिए कानून बनाकर कठोर दंड के प्रावधान किए गए हैं,
इस कारण अब समाज में लिंगानुपात में कुछ हद तक सुधार की स्थिति भी नजर आ रही है. महिलाओं को सामाजिक न्याय दिलाने के लिए लिंग सम्बन्धी भेदभाव को जड़ से उखाड़ फेंकने की जरूरत है सामाजिक न्याय के अन्तर्गत महिलाओं को पुरुषों जैसी ही राजनीतिक सहभागिता का प्रश्न विश्व की आधुनिक सभ्यता का सर्वाधिक ज्वलंत विषय है. विश्व महिला सम्मेलनों में पुरुषों के साथ महिलाओं की समान भागीदारी के लिए सकल्प लिए जाते रहे हैं तथा सभी राष्ट्रों पर यह मनोवैज्ञनिक दबाव बनाने का प्रयास किया जाता रहा है कि राजनीतिक निर्णय प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की जाए. इसी प्रक्रम में संयुक्त मोर्चा सरकार ने संसद व विधान सभाओं में महिलाओं की अधिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण देने की व्यवस्था की है,
देश में आधी आबादी महिलाओं की है. इसलिए यह स्वभाविक ही है कि उन्हें देश के विकास में पुरुषों के समान भूमिका निभाने का अवसर मिलना चाहिए. जबतक महिलाएं जागरूक नहीं होंगी तथा राष्ट्रीय विकास की धारा में अपनी सक्रिय भूमिका तथा भागीदारी नहीं निभाएंगी, तबतक राष्ट्र का सर्वांगीण विकास सम्भव नहीं है. महिलाओं में जागृति फैलने से पूरा परिवार, गाँव, शहर और अंततः देश में जागृति फैलती है और समूचा राष्ट्र उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है.
महिलाओं को हमेशा से दबाकर रखा गया था, अतः निरक्षरता, गरीबी तथा परम्परा के बंधनों को तोड़ना जरूरी है. आज भी ज्यादातर महिलाएं संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद अशिक्षित तथा बिना जायदाद के रूढ़िवादी भारतीय समाज में रहती हैं. रूढिवादी प्रथाएं पुराने रीति-रिवाज एवं समाज विरोधी कायदे-कानूनों को समाप्त करने के लिए राजनीतिक तौर पर जाग्रत महिलाएं ही आगे आएगी. पेयजल, चिकित्सा परिवार नियोजन, स्त्री शिक्षा, साक्षरता, दहेज प्रथा, ग्रामीण विकास एवं कुटीर उद्योग जैसी गतिविधियों में भी महिलाएं अधिक दक्षतापूर्वक कार्य करेंगी 73वाँ संविधान
संशोधन इस दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है, क्योंकि इससे पचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित की गई हैं भारतीय समाज में महिलाओं का स्थान सर्वोपरि है.ये राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में अहम भूमिका निभाती हैं. जब तक महिलाएं जागरूक नहीं होंगी तथा राष्ट्रीय विकास की धारा में अपनी सक्रिय भूमिका तथा भागीदारी नहीं निभाएंगी. तब तक राष्ट्र का सर्वांगीण विकास सम्भव नहीं है।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि समाज के प्रत्येक तबके के लोगों को सभी मूलभूत सुविधाएं प्रदान करना तथा समस्त जाति, धर्म, समुदाय व वर्ग इत्यादि के साथ समानता का व्यवहार करना अर्थात् किसी के साथ भी किसी तरह का भेदभाव नहीं करना ही सही मायने में ‘सामाजिक न्याय है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में समानभाव तथा सहभागिता व सामाजिक सक्रियता रूपी गुण बहुत अधिक आवश्यक हैं और ये सामाजिक न्याय को मजबूत करते हैं. समाज में समानता स्थापित करने के लिए शासन तथा प्रत्येक व्यक्ति को भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, अराजकता, अव्यवस्था, अनाचार, वैमनस्य, घृणा, द्वेष, अनैतिकता. मानसिक कुंठा, अलगाववाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद आदि कुकृत्यों से बचना होगा. यह सब तभी सम्भव होगा जय वर्तमान शिक्षा पद्धति में संस्कारों, नैतिकता एवं मानवीय मूल्यों को समाविष्ट किया जाएगा और राजनेताओं को वोट बैंक रूपी नीतियों को अपनाना बन्द कर जनहित व जनकल्याण के लिए कार्य करना होगा.
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