सुमित्रानंदन पन्त
सुमित्रानंदन पन्त
सुमित्रानंदन पन्त
हिन्दी की आधुनिक कविता को प्रकृति और नई मानवीय चेतना से सम्पन्न
करनेवाले, खड़ीबोली की अभिव्यंजना शक्ति को नवोन्मेषी पर-विन्यास और
प्रयोगशील छन्द-बंध से समृद्ध करनेवाले शब्द-शिल्पी सुमित्रानंदन पंत का जन्म
20 मई 1900 ई. को उत्तरांचल राज्य के कौसानी में हुआ था। शैशवावस्था में
माँ के निधन के कारण पिता और दादी की छाया में पले पंत की काव्य प्रतिभा
के पंख अल्मोड़ा की नैसर्गिक सुषमा के बीच खुले । 1918 में अपने मँझले
भाई के साथ बनारस आने पर पंतजी का भारत कोकिला सरोजनी नायडू और
विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर से साक्षात्कार हुआ और अंग्रेजी की रोमांटिक
काव्यधारा से भी परिचय हुआ । फलतः काव्य प्रतिभा को नया आकाश मिला
और वे 1922 में ‘उच्छ्वास’ और 1928 में ‘पल्लव’ के प्रकाशित होने पर एक
प्रमुख छायावादी कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो गये।
पंत के काव्य में जग-जीवन के सामाजिक, भौतिक और नैतिक मूल्यों की
प्रेरणा के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नयन का स्वर भी मिलता है । ‘युगान्त’ से
प्रारम्भ प्रगतिशीलता ‘ग्राम्या’ तक चली और उसके बाद महर्षि अरविन्द के
प्रभाव स्वरूप ‘स्वर्णधूलि’ एवं ‘उत्तरा’ में अरविन्द दर्शन के नवमानवतावाद के
दर्शन होते हैं। उनकी निरन्तर परिवर्तित और विकसित काव्यधारा उनकी
वैचारिक गत्यात्मकता का प्रमाण है। काव्य के अतिरिक्त उन्होंने नाटक, कहानी
और निबन्ध के क्षेत्र में भी रचनाएँ प्रस्तुत की लेकिन वह मूलत: कवि के रूप
में ही समादृत रहे। शब्द-शिल्पी के रूप में विख्यात पंतजी की काव्यभाप कवि
की कल्पना और मन की तरंग के अनुरूप ही माधुर्य एवं प्रसाद गुण से युक्त
और व्यंजक है ।
पंतजी की प्रमुख कृतियों में उच्छवास, ग्रंथि, वीणा, पल्लव, गुंजन,
युगान्त, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्णकिरण, स्वर्णधूलि, उत्तरा, रजत शिखर,
कला और बूढ़ा चाँद, ज्योत्सना (नाटक) तथा लोकायतन विशेष रूप से
उल्लेखनीय है ।
कवि ने भारतमाता ग्रामवासिनी शीर्षक कविता में भारतमाता को देश की
आत्मा-गाँवों में निवास करनेवाली माँ के रूप में चित्रित किया है, जो अपनी
तीस करोड़ संतानों को भूखा नंगा, अभावग्रस्त और शोषित देखकर अत्यन्त दुखी
और उदास है ।
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