Upsc gk notes in hindi-28
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प्रश्न- ‘जाति व्यवस्था नई-नई पहचानों और सहचारी रूपों को धारण कर रही है, अत: भारत में जाति व्यवस्था का उन्मूलन नहीं किया जा सकता है.’ टिप्पणी कीजिए. (150 शब्द)
उत्तर- भारतीय समाज में जाति व्यवस्था सदियों से विद्यमान रही है. यह व्यवस्था जन्म के आधार पर
लोगों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक विशेषाधिकार प्रदान करती है. डॉ.
अम्बेडकर, दयानंद सरस्वती, ज्योतिबा फूले तथा पेरियार जैसे सामाजिक चिंतक जाति व्यवस्था
के विनाश के पक्षधर रहे हैं, किन्तु यह जाति व्यवस्था ‘नई सदी में नई विशेषताओं के साथ उदित
हो रही है.
जाति व्यवस्था की नई-नई पहचानों और इसके सहचारी रूपों पर, यदि विचार करें तो यह
वर्तमान में निम्नलिखित रूपों में देखी जा सकती है. भारतीय लोकतंत्र में जातिगत राजनीति के. उभार
ने जातीय पहचान व जातीय संगठनों को महत्वपूर्ण बना दिया है. जिससे जाति व्यवस्था को नवीन शक्ति
मिली है. अपमानजनक जातिगत अभ्यासों, जैसे- मंदिरों में प्रवेश से रोकना सार्वजनिक स्थलों पर जाने
पर प्रतिबंध लगाना आदि ने भी जाति व्यवस्था में निम्न कही जाने वाली जातियों को संगठित होने के लिए
उत्प्रेरित किया है. यह भी जाति व्यवस्था द्वारा अर्जित एक नई पहचान है, जाति आधारित आरक्षण की
व्यवस्था ने भी जाति व्यवस्था के अंतर्गत जातीय पहचान को उपयोगी बना दिया है.
इस प्रकार जातिगत आन्दोलनों के अंतर्गत तथा जातियों व शक्ति सम्पन्नीकरण की
प्रक्रिया में जाति व्यवस्था नई-नई पहचानों एवं सहचारी रूपों को धारण कर रही है जिससे ऐसा प्रतीत
होता है कि इसका उन्मूलन नहीं किया जा सकता किन्तु बेहतर सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक
अवसरों उपस्थिति जाति व्यवस्था के बंधनों को कमजोर कर सकती है. अवसरों की बेहतर उपस्थिति
जाति आधारित आरक्षण की बढ़ती तथा जातीय संघर्ष जैसी समस्याओं को समाप्त कर सकती है, इसमें
भारतीय समाज में जाति आधारित अभिवृत्ति में भी रचनात्मक परिवर्तन की जरूरत है.
प्रश्न- अमरीकी क्रांति “एक वयस्क होते उपनिवेशों के समाज के इतिहास में प्राकृतिक और अपेक्षित घटना थी.” टिप्पणी कीजिए. (150 शब्द)
उत्तर-अमरीकी क्रांति के घटित होने के कई कारणों में एक महत्वपूर्ण कारण थाब्रिटिश सत्ता द्वारा अमरीकी
समाज के स्वरूप को नहीं समझ पाना अर्थात् अमरीका के बदलते स्वरूप तथा उसके परिपक्वता की
स्थिति को नहीं देख सके. उनकी नजर में अमरीका महज एक औपनिवेशिक क्षेत्र या जिसका साम्राज्यिक
दृष्टि से दोहन किया जाना था, लेकिन 1776 के आते और यह अमरीका महज औपनिवेशिक बस्ती से ऊपर
उठकर एक उदित होता | राष्ट्र था राष्ट्रीय चेतना की लहर इन उपनिवेशों में बहने लगी थी तथा पाश्चात्य चिंतकों
का दर्शन यहाँ भी लोकप्रिय होने लगा था जो उपनिवेशे के वयस्क होने का करण था इस प्रकार प्रतिनिधित्व के
बिना कर नहीं जागृत अमरीकी जन-मानस अपने राजनीतिक एवं आर्थिक अधिकारों को पाने के प्रति दृढ प्रतिज्ञ
हो गया तथा यहाँ ‘राष्ट्र की अवधारणा पनपने लगी. यह इसकी परिपक्वता को दर्शा रहा था और इस स्थिति में
किसी क्रांति का घटित हो जाना अनापेक्षित नहीं था. अमरीकी क्रांति के लिए परिस्थितियों के साथ-साथ
जागरूकता भी मौजूद थी.
प्रश्न- धर्मनिरपेक्षतावाद की भारतीय सकल्पना, धर्मनिरपेक्षताबाद के पाश्चात्य मॉडल से किन-किन बातों में भिन्न है? चर्चा कीजिए. (150 शब्द)
उत्तर- धर्मनिरपेक्षतावाद लैटिन शब्द “Seculam से निकला है जिसका शाब्दिक अर्थ है इहलोक से
सम्बन्धित वास्तव में धर्मनिरपेक्षतावाद आधुनिककाल की एक भौतिकवादी तथा मानववादी
विचारधारा है जो वैज्ञानिक मनोवृत्ति के आधार पर इहलोक के महत्व की स्थापना करती है,
जहाँ तक भारतीय व पाश्चात्य सन्दर्भ में भिन्नता की बात है तो उसके मूल में मुख्यतः दो बातें
हैं-एक दोनों/ स्थानों पर धर्म के अर्थ में अंतर है, दो, दोनों स्थानों पर धर्मनिरपेक्षतावाद की
अवधारणा का उदय अलग-अलग परिस्थितियों में हुआ है.
उपर्युक्त दोनों बातों अर्थात् धर्म के अर्थ एवं धर्मनिरपेक्षता के उदय की परिस्थितियों
को ध्यान में रखकर जब हम भारतीय एवं पाश्चात्य धर्मनिरपेक्षतावाद के मॉडल का सम्यक
परीक्षण करते हैं तो दोनों के अर्थ, स्वरूप एवं लक्ष्य में भी अन्तर देखा जा सकता है. इस
अंतर को निम्नलिखित बिन्दुओं में प्रस्तुत किया जा सकता है. भारत में धर्मप्रिपेक्षतावाद का
विकास धार्मिक विविधता के वातोश्रण में हुआ. यहाँ धर्म एवं राज्य का कभी सत्तो संघर्ष नहीं
हुआ जिससे धर्मनिरपेक्षतावाद का स्वसेप मुख्यतः सकारात्मक है. यहाँ राज्य किसी धर्म का
विरोध नहीं करता बल्कि ‘सर्वधर्म समभाव’ का पालन करता है. जबकि पाश्चात्य जगत में
धर्मनिरपेक्षतावाद का विकास मध्यकाल में चर्च राज्य ‘धर्मतंत्र की प्रतिक्रिया में हुआ है जिससे
यहाँ राज्य, धर्म को पूरी तरह अस्वीकार करता है. अतः पश्चिम में धर्मनिरपेक्षता का नकारात्मक
स्वरूप अपनाया गया है. भारत में ‘धर्म का अर्थ सदगुण व स्वकर्त्तव्य-पालन से है जिससे यहाँ
धर्मनिरपेक्षता का मूल निहितार्थ धर्म से पृथक्करण नहीं बल्कि पंथ / सम्प्रदाय से राजनीति का
पृथक्करण है. जबकि पाश्चात्य जगत् में धर्म का अर्थ ‘मजहब’ है जो किसी अतींद्रिय सत्ता पर
आधारित है. अतः पाश्चात्य मॉडल में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्म से तटस्थता है. भारत में धर्मनिर
पेक्षतावाद का उद्देश्य साम्प्रदायिकता के विरोध से है जबकि पाश्चात्य जगत् में धर्मनिरपेक्षतावाद
का उद्देश्य धर्म की उपेक्षा, तटस्थता तथा विरोध से है.
अतः धर्मनिरपेक्षतावाद के भारतीय एव पाश्चात्य मॉडल में देश व परिस्थितिजन्य
भिन्नताएँ अवश्य हैं, किन्तु दोनों स्थानों पर इस विचारधारा का उद्देश्य मानववाद, नैतिकता तथा
तार्किकता की स्थापना है.
प्रश्न-प्रारम्भिक बौद्ध स्तूप कला, लोक वर्ण्य विषयों एवं कथानकों को चित्रित करते हुए बौद्ध आदशों की सफलतापूर्वक व्याख्या करती है. विशदीकरण कीजिए. (200, शब्द)
उत्तर-कला की विशेषता होती है कि वह अपने देश काल की प्रवृत्तियों और आदर्शों को सफलतापूर्वक
व्यक्त करती है. प्रारम्भिक बौद्ध स्तूप भी, कला की इस विशेषता का अपवाद नहीं है. इन स्तूपों
में चित्रित साधारण जन-जीवन के विषयों एवं कथानकों के द्वारा बौद्ध आदर्शों की व्याख्या की
जा सकती है.
प्रारम्भिक बौद्ध स्तूप के उदाहरण हमें सांची, भरहुत, बोधगया, अमरावती इत्यादि स्थानों
से प्राप्त होते हैं. इन बौद्ध स्तूपों में जातक कथाओं के माध्यम से बुद्ध के पूर्व जन्मों को दर्शाया गया
है, जिनमें बुद्ध को बोधिसत्व के रूप में बताया गया है. इन कथाओं में बुद्ध की उपस्थिति को संकेतों
के माध्यम से इंगित गया है, जो कि प्रारम्भिक बौद्ध धर्म में व्यक्ति पूजा या मूर्तिपूजा निषेध का संकेत
करते हैं. इन स्तूपों में आम जनजीवन के कथानकों के द्वारा बौद्ध आदर्शों को दर्शाया गया है. भरहुत
स्तूप में कमल का अंकन आत्मा की शुद्धता को व्यक्त करता है, यह निरर्थक कर्मकांड की जगह
‘आत्मदीपोभव’ के आदर्श को सामने रखता है. भरहुत स्तूप में ही रुरु नामक मृग की जातक कथा के
द्वारा कर्मवाद के सिद्धांत को आम जन जीवन तक पहुँचाया गया है. इसी तरह सांची के स्तूप में वेसांतर
जातक की कथा के द्वारा उदारता और सहदयता के मूल्य को दर्शाया गया है. सांची स्तूप के तोरण में
उत्कीर्ण महाकपि जातक कथा के द्वारा करुणा, प्रेम और निःस्वार्थता के मूल्य चित्रित किए गए हैं. इन
सारे मूल्यों का उल्लेख प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अष्टांगिक मार्ग में मिलता है. प्रारम्भिक काल में स्तूपों
में भय रहित विचरण करते पशु-पक्षियों का अंकन अहिंसा के आदर्श को इंगित करता है. सांची स्तूप के
तोरण द्वार पर चक्र का अंकन, निर्वाण प्राप्ति के लिए आवश्यक अष्टांगिक मार्ग के आदर्श को बताता है.
इन स्तूपों में चित्रित कथानक ही नहीं वरन् इन स्तूपों की वास्तुकला भी बौद्ध आदर्शों की सफलतापूर्वक
व्याख्या करती है. अतः बौद्ध स्तूप कला को हम समग्रतापूर्वक तभी जान सकते हैं, जबकि हमें बौद्ध
आदर्शों की भी समझ हो.
प्रश्न- फ्रांसीसी क्रांति जैसी सर्वसमावेशी कोई भी घटना कभी बौद्धिक शून्य में नहीं घटती है. टिप्पणी कीजिए (200 शब्दों में)
उत्तर- फ्रांसीसी क्रांति न केवल यूरोप की बल्कि विश्व की एक युगान्तरकारी घटना थी. जब इस क्रांति
को सर्वसमावेशी कहा जाता है तो इसका अर्थ है-मानवमात्र के कल्याण के लिए कार्य करना
क्रांति को व्यापकता प्रदान करने और इसके औचित्य को सिद्ध करने के लिए क्रांतिकारियों
द्वारा मानव और नागरिक अधिकारों की घोषणा की गई. इस क्रांति का मूल तत्व था- समानता,
स्वतंत्रता और बंधुत्व इन्हीं तत्वों को समाहित करने के कारण इसे सर्वसमावेशी रह गया. क्रांति
के लिए सिर्फ परिस्थितियों का ही नहीं बल्कि उसके प्रति वैचारिक और बौद्धिक जागरण भी
आवश्यक है. इस बौद्धिक जागरण को लाने में फ्रांसीसी दार्शनिकों ने अहम् भूमिका निभाई
जिसमें वॉल्टेयर, मॉण्टेस्क्यू, रूसो, दिदरो आदि प्रमुख थे. वॉल्टेयर ने जहाँ चर्च और राजतंत्र
पर प्रहार किया, वहीं मॉण्टेस्टक्यू ने शक्ति के पृथक्करण की अवधारणा के द्वारा सत्ता की
निरंकुशता को नियंत्रित करने का प्रयास किया. रूसों ने ‘सामान्य इच्छा’ और लोकप्रिय
प्रभुसत्ता के द्वारा लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना का प्रयास किया. इससे न केवल तत्कालीन
व्यवस्था से जनता का मोहभंग हुआ बल्कि वैकल्पिक व्यवस्था का मार्ग भी प्रशस्त हुआ. इस
प्रकार दार्शनिकों ने क्रांति को बौद्धिक और वैचारिक आधार प्रदान किया इसलिए यह कहा
जा सकता है कि, फ्रांसीसी क्रांति जैसी सर्वसमावेशी कोई भी घटना कमी बौद्धिक शून्य में
नहीं घटती है.
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