ध्वनि-नियम

ध्वनि-नियम

              ध्वनि-नियम

ध्वनियों में परिवर्तन लगभग स्वाभाविक है । वैसे प्राकृतिक नियम की तरह ध्वनि-नियम नहीं होते । परंतु फिर
भी जिस प्रकार प्रकृति के अनेक कार्यों को देखकर कुछ सामान्य और विशेष नियम बनाए जाते हैं उसी प्रकार ध्वनियों
में विकार के कार्यों को देखकर ध्वनि-नियम स्थिर किये जाते हैं। ध्वनि-नियम किसी भाषा विशेष का होता है। एक
भाषा के ध्वनि नियम का प्रयोग दूसरी भाषा पर नहीं किया जा सकता। ध्वनि-नियम की वैज्ञानिक परिभाषा देने का
प्रयास करते हुए डॉ० भोलानाथ तिवारी ने लिखा है-“किसी विशिष्ट भाषा की कुछ विशिष्ट ध्वनियों में किसी
विशिष्ट काल और कुछ विशिष्ट दशाओं में हुए नियमित परिवर्तन या विकार को उस भाषा का ध्वनि-नियम कहते
हैं।” स्पष्ट है इस परिभाषा के चार अंग हैं (क) ध्वनि-नियम किसी भाषा विशेष का होता है। (ख) एक भाषा
की भी सभी ध्वनियों पर यह नियम लागू न होकर कुछ विशिष्ट ध्वनियों या ध्वनि-वर्ग पर लागू होता है। (ग)
ध्वनि-परिवर्तन का भी एक विशिष्ट काल होता है। (घ) किसी विशिष्ट भाषा के किसी विशिष्ट काल में कोई
विशिष्ट ध्वनि भी यों ही परिवर्तित नहीं हो सकती । उसके लिए विशिष्ट दशा या परिस्थिति की आवश्यकता पड़ती है।
 
कुछ प्रसिद्ध ध्वनि-नियम :
 
(क) ग्रिम-नियम-जर्मनी के भाषाविद् जेकब ग्रिम ने ध्वनि-नियम बनाए थे, जो उन्हीं के नाम पर
‘ग्रिम-नियम’ के नाम से प्रसिद्ध है। ग्रिम ने प्राचीन भारोपीय भाषाओं- संस्कृत, ग्रीक, लैटिन तथा गोथिक और जर्मन
तथा अंग्रेजी भाषाओं का अध्ययन कर ध्वनि-नियम बनाए थे। इस नियम से यह पता चलता है कि किस प्रकार जर्मन
वर्ग की भाषाओं में मूल भारोपीय स्पर्शों का विकास ग्रीक, लैटिन तथा संस्कृत आदि अन्य वर्गीय भाषाओं की अपेक्षा
भिन्न प्रकार से हुआ है। आरंभ में ग्रिम-नियम इस प्रकार से था-
 
1. जहाँ संस्कृत, ग्रीक और लैटिन में अघोष अल्पप्राण स्पर्श रहता है, वहाँ गोथिक अंगरेजी, डच आदि निम्न
जर्मन में महाप्राण ध्वनि और उच्च जर्मन सघोष वर्ण होता है।
2. संस्कृत आदि महाप्राण-गोथिक भाषाओं में सघोष और उच्च जर्मन में अघोष वर्ण होता है।
3. संस्कृत का अघोष, गोथिक में अघोष और उच्च जर्मन में महाप्राण समान रहता है। जैसे-
 
          संस्कृत-ग्रीक-लैटिन       गोथिक (निम्न जर्मन)               उच्च जर्मन
                      ↓                               ↓                                    ↓
1.                  प                               फ                                   ब
2.                  फ                               ब                                   प
3.                  ब                                प                                   फ
 
परंतु इस नियम को दोषपूर्ण मानकर स्वयं ग्रिम ने सन् 1822 ई० में उसमें सुधार किया और उसे इस प्रकार
बनाया-भारतीय अघोष स्पर्श क, त, प जर्मन वर्ग में अघोष स्पर्श ह, थ, फ हो जाते हैं और भारतीय घोष स्पर्श
ग, द, प जर्मन में क, त, प अघोष हो जाते हैं। भारतीय महाप्राण स्पर्श, घ, ध, भ जर्मन में अल्प
प्राण ग, द, ब, हो जाते हैं।
 
इस प्रकार कई कारणों से यह नियम बहुत सुलझा हुआ प्रतीत होता है । हिन्दी तथा अंग्रेजी के बहुत से विद्वानों
ने इसे इसी रूप में स्वीकार किया है। किंतु यथार्थतः बात ऐसी है नहीं। दोनों परिवर्तनों में इस प्रकार की समानता
नहीं है, जैसी ग्रिम ने दिखलाने की कोशिश की है। यह जरूर है कि ग्रिम की दोनों तालिकाओं में प्रथम वर्ण-परिवर्तन
अपवादों के रहते हुए भी ठीक है पर द्वितीय के उदाहरण ठीक उसी रूप में नहीं मिलते । साथ ही इसके अपवाद
भी बहुत हैं। प्रथम वर्ण-परिवर्तन के साथ द्वितीय परिवर्तन का शुद्ध रूप कुछ इस प्रकार हो सकता है-
 
मूल                       निम्न का आदिम जर्मन            उच्च जर्मन
gh, dh, bh                     g, d, b                          xtx
g, d, b                            k, t, p                    x; z, ss, szf.
k, t, p                          kh (h), th, f                 x; d, st, x
 
(ख) गैसमैन नियम:
गेसमैन नामक भाषा वैज्ञानिक ने यह खोज निकाला कि भारोपीय मूल भाषा में यदि शब्द या धातु के आदि
और अंत में दोनों स्थानों पर महाप्राण हों तो संस्कृत, ग्रीक आदि में एक अल्यप्राण हो
जाता है।
 
इसका अर्थ यह हुआ कि भारोपीय मूल भाषा की दो अवस्थाएँ रही होंगी। प्रथमावस्था में दो महाप्राय रहे
होंगे, और दूसरी अवस्था में नहीं। अतः अपवादस्वरूप क, त, प, आदि के स्थान पर जहाँ ग द ब मिलते हैं। प्राचीन
काल में क त प का (पुराना रूप ख ह फ) अर्थात् भारोपीय में घ, ध, भ रहा होगा और घ, ध, भ से ग, द, ब
होगा जो पूर्णत: नियमानुकूल है।
 
वास्तव में ग्रिम-को स्वयं अपने नियम के पर्याप्त अपवाद मिले थे। उनके साधारण नियमानुसार क्रमशः क त
प का ख (ह), थ, फ होना चाहिये पर कुछ शब्दों में क त प का ग द ब मिलता है।
 
इस प्रकार ग्रिम नियम में जितने अपवाद इस तरह के थे, जिनमें ग्रिम-नियम से एक पग आगे परिवर्तन हो जाता
था और. ग्रेसमैन नियम से समाधानित हो गये।
 
(ग) वर्नर नियम:
 
उपर्युक्त दोनों नियमों में भी कुछ अपवाद रह गये थे । वास्तव में वर्नर को पता चला कि ग्रिम-नियम बलाघात
पर आधारित था। ग्रिम ने यह भी कहा था। परंतु वर्नर ने इसे स्वराघात का ही कारण बतलाया । एक तीसरी बात
वर्नर ने यह भी बतलाई कि यदि मूल भारोपीय क त प आदि के पूर्व स मिला हो (अर्थात स्क, स्प) तो जर्मनिक
में आने पर शब्द में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं मिलता । इतने पर भी ग्रिम-नियम में अपवाद हैं, जिनके लिये सादृश्य
ही मूल कारण माना जाता है।
 
(घ) तालव्य नियम :
तालव्य नियम के प्रणेता के रूप में छ: विद्वानों के नाम जुड़े है, यद्यपि इसे कुछ लोग कालित्ज का ‘तालव्य
नियम’ भी कहते हैं।
 
‘तालव्य नियम’ की खोज है कि जिन संस्कृत शब्दों में ‘अ’ स्वर ध्वनि की दृष्टि से ग्रीक या लैटिन ओ (O)
का स्थानापन्न है, उसके पूर्व क या ग ही व्यंजन पाया जाता हैं, पर, यदि ‘अ’ स्वर लैटिन या ग्रीक ई (e) का
स्थानापन्न है तो कंठ्य क या ग न होकर तालव्य च और ज मिलता है। कंठ्य व्यंजन के तालव्य होने के कारण
ही इसे तालव्य नियम कहा जाता है। इस खोज से संस्कृत के मूल से समीप होने की धारणा बदल गयी और अब
संस्कृत की अपेक्षा ग्रीक-लैटिन आदि मूल भारोपीय भाषा के अधिक गमीप समझी जाने लगी।
 
संक्षेप में कहा जा सकता है कि तालव्य नियम के अनुसार मूल भारोपीय भाषा का तृतीय श्रेणी का ‘कवर्ग’
संस्कृत में कहीं तो कवर्ग ही रहा, पर पहले आनेवाले स्वर के कारण कहीं-कहीं चवर्ग (तालव्य) में परिवर्तित हो गया।
 
इन प्रधान ध्वनि नियमों के अतिरिक्त ग्रीक-नियम (मूल भारोपीय शब्द में दो स्वरों के बीच के ‘स’ का ग्रीक
भाषा में पहले ह, हो जाना और फिर लुप्त हो जाना मूल भारोपीय शब्द में दो स्वरों के बीच के ‘स’ का परिवर्तित
होकर ह हो जाना, फारसी नियम (संस्कृत की ‘स’ ध्वनि का फारसी में ह मिलना जैसे सप्त-हप्त । (सिंध-हिंद),
ओष्ठय् नियम तथा मूर्द्धन्य नियम आदि अनेक और भी ध्वनि-नियम हैं।

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