प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ कृति बनना
प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ कृति बनना
प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ कृति बनना
प्रकृति ने हमको वरदानस्वरूप कतिपय अधिकार (शक्तियाँ) प्रदान किए हैं साथ
ही उनके विलोम भी उपस्थित हैं. दोनों के मध्य अन्तर स्थापित न करने वाला मनुष्य
अपने जीवन को दुःखमय बना लेता है. उचित है कि मनुष्य अपने स्वरूप और
अधिकारों के प्रति सदैव सचेत रहे. ऐसा करके ही वह मनुष्य होने का दावा पूरा कर
सकता है.
हम सामान्यतः यही कहते हैं कि मनुष्य प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ कृति है, परन्तु अन्य
जीवधारियों के साथ तुलनात्मक अध्ययन करने पर उक्त कथन के सम्बन्ध में संदेह
उत्पन्न होना स्वाभाविक है. उदाहरणार्थ, एक साधारण से कुत्ते की सूँघने की शक्ति के
मुकाबले मनुष्य बहुत पीछे है. एक सामान्य से गिद्ध अथवा चील की तीक्ष्ण दृष्टि के समक्ष
मनुष्य कितनी अल्प दृष्टि वाला है, आने वाले भूकम्प और तूफान का अनुमान पशु-पक्षी
बहुत पहले लगा लेते हैं. ज्ञानेन्द्रिय क्षेत्र में ही नहीं, अपितु शारीरिक शक्ति में भी उससे
अधिक शक्तिशाली न जाने कितने जीव और भी हैं ? यदि कोई यह कहे कि मनुष्य ने
अन्य समस्त जीवों पर अपना आधिपत्य जमा रखा है, अतः वह श्रेष्ठतम कहलाता है. फिर
वह साँप से, शेर से, बिच्छू से एकाएक सामना होने पर भयभीत क्यों हो जाता है ?
तब विचारणीय यह है कि उसके श्रेष्ठतम होने का अधिकार किस तथ्य पर आधारित
है ? गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर यह तथ्य सामने आता है कि प्रकृति ने मनुष्य को कुछ
ऐसे अधिकार प्रदान किए हैं जो अन्य किसी जीवधारी को प्राप्त नहीं हैं, जैसे-विवेक की
शक्ति, स्वतः अपना विकास करने का अधिकार, अपने अहंकार के शमन का
अधिकार, दूसरे के दुःखों को स्वेच्छा से बाँटने का अधिकार, दूसरों को सुख पहुँचाने
का अधिकार, सृजन करने का अधिकार, संकल्प शक्ति का अधिकार, सामान्य से
महान बनने का अधिकार, पूर्णता को प्राप्त करने का अधिकार.
इन अधिकारों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इन सभी अधिकारों का प्रयोग
करने के लिए प्रकृति ने मनुष्य पर कोई सीमा नहीं लगाई. इन सभी अधिकारों को
अपने स्तर तक प्रयोग करने के लिए मनुष्य स्वतंत्र है.
इन अधिकारों को प्राप्त करके मनुष्य असीम सम्भावनाओं से युक्त हो गया है,
परन्तु दुर्भाग्यवश मनुष्य अपने इन सीमा-रहित अधिकारों को विस्मृत करके पशुओं
से भी निम्नतर दयनीय अवस्था में पहुँचने पर उद्यत हो जाता है. अतः महत्वपूर्ण यह
है कि मनुष्य बनने का अधिकार पूर्ण करने के लिए आवश्यक है कि इनका सम्यक्
प्रयोग किया जाए.
द्रष्टव्य यह है कि प्रकृति में किसी भी तत्व की उसके विलोम के बिना रचना नहीं
हुई है अर्थात् जिस क्षण प्रकृति ने मनुष्य को ये अधिकार दिए तो उसी क्षण मनुष्य
को उनके विलोम भी मिल गए. जहाँ इन अधिकारों का प्रयोग करके मनुष्य ‘मानव’
बनता है, वहीं उनके विलोम का प्रयोग करके वह ‘अमानुषिक’ बन जाता है. इस
प्रकार मनुष्य अपने दिव्य अधिकारों का सदुपयोग करके जहाँ एक ओर अपने
जीवन को एक अद्भुत वरदान बना सकता है, वहीं उसके विलोमों का प्रयोग करके
मनुष्य अपने जीवन को अभिशाप में परिणत कर लेता है.
इन अधिकारों के विलोमों को जानना अत्यन्त आवश्यक है जिससे मनुष्य सचेत रहे
और इनके जाल में न फँस जाए. ये विलोम क्रमशः इस प्रकार हैं-अपने विवेक को कुंठित
करने का अधिकार, स्वतः अपना विकास न करने का अधिकार, अपने अहंकार को बढ़ाने
का अधिकार, दूसरों को जान-बूझकर दुःख पहुँचाने का अधिकार, दूसरों के सुख छीनने
का अधिकार, संहार करने का अधिकार, स्वेच्छा से अपने को दूसरों के अधीन बना
देना तथा भविष्य की चिन्ता से ग्रसित रहने का अधिकार, एकाएक अपनी सामर्थ्य को
न्यूनतम कर देना अपने व्यक्तित्व को विघटित करने का अधिकार.
आत्म-निरीक्षण द्वारा हम यह जान जाते हैं कि हम अधिकारों का और उनके विलोमों
का प्रयोग किस प्रकार कर रहे हैं? तब हमको यह सहज ही विदित हो जाता है कि
हमारी मनुष्यता किस स्तर की है ? यह एक विचित्र अनुभव है कि समस्त
सम्पदाओं से युक्त अनेक व्यक्ति दुःखी और बेचैन पाए जाते हैं. स्पष्ट है कि वे अपने
प्रकृति प्रदत्त अधिकारों का सम्यक् प्रयोग नहीं करते हैं और विलोमों के मकड़जाल में
उलझकर ऐसे कार्य करते रहते हैं, जो मानवता के विरुद्ध हैं. ऐसे व्यक्तियों के बारे
में यही कहा जाएगा कि यद्यपि प्रकृति ने उन्हें मनुष्य योनि प्रदान की है, तथापि वे
प्रकृति प्रदत्त अधिकारों का बोध भी प्राप्त नहीं कर सके हैं.
अधिकारों का एक दुःखद पक्ष यह है कि व्यक्ति उन अधिकारों के बल पर अन्य
व्यक्तियों पर अधिकार करना चाहता है. ऐसा करने में उसे अपने अहंकार की तात्कालिक
तृप्ति तो हो जाती है पर जब सर्वदा अतृप्त रहने वाले अहंकार की तृप्ति नहीं होती है,
तो वह दुःखी और बेचैन रहने लगता है.
पशु-पक्षियों को अपने भविष्य की चिंता नहीं सताती और वे आनन्दपूर्वक जीवन
व्यतीत करते हैं. एकमात्र मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो अपने अस्तित्व की दिव्यता को
नहीं पहचानता है, भविष्य के प्रति चिन्तित रहता है तथा प्रकृति की रचना में अपनी
अभीष्ट भूमिका निभाने में असफल रहता है. इसी असफलता के कारण जीवन का
खोखलापन मनुष्य के हाथ लगता है. यदि हम निरन्तर सतर्क नहीं रहेंगे, तो हम जीवन
को प्रकृति की निकृष्ट रचना बना देंगे. अतः मनुष्य को इन विलोमों की प्रलयंकारी
सम्भावनाओं से सदैव सचेत रहना चाहिए.
अधिकार परम दिव्य हैं, इनमें किंचित भी संशय नहीं है. उन्हें अपने लिए वरदान
बना लेना अथवा अभिशाप बना लेना, प्रत्येक मनुष्य का नितान्त स्वेच्छा से लिया गया
निर्णय होता है, जो व्यक्ति अपने वास्तविक हित का सतत् ध्यान रखते हैं, वे इन
अधिकारों को अपने लिए वरदान बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ सकते. अतः हमारा
कर्त्तव्य है कि हम अपने दिव्य अधिकारों को पहचानें और उनका नित्य प्रयोग करें.
हमारे जीवन की विडम्बना यह है कि हमने अपने विवेक का प्रयोग न करके अपने
चारों ओर धन, वैभव, ख्याति प्रभुसत्ता, साम्राज्य आदि की सीमाएं बाँध रखी हैं.
फलतः, हम अपने मौलिक स्वरूप को विस्तृत कर बैठते हैं और जीवन के अन्तिम क्षणों में
सोलोमन की तरह हम खाली हाथ जाते हैं.
जब मनुष्य अपना वास्तविक परिचय प्राप्त करके, वह जो कुछ भी है, वही बन
कर जिए तथा यह जाने कि मनुष्य कौन है और अपने जीवन के उद्देश्य को पहचान
कर जीवनपर्यन्त उस उद्देश्य को पूरा करने में लगा रहे, तो उसका जीवन अर्थपूर्ण बन
जाता है.
हमारे युवा वर्ग को चाहिए कि वह प्रकृति प्रदत्त अधिकारों को पहचाने, उनके
विलोमों के अभिशाप को समझे इस प्रकार मानव होने का दावा पूरा करे.
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