बाबा साहेब के सामाजिक न्याय की झलक
बाबा साहेब के सामाजिक न्याय की झलक
बाबा साहेब के सामाजिक न्याय की झलक
बाबा साहेब दरिद्र व अस्पृश्य समाज में जन्मे थे, परन्तु उनका ग्रन्थ प्रेम एवं उनकी विद्वता को जानकर आश्चर्य होता है. उन्होंने पुस्तकों के अध्ययन व विद्या हासिल करने के क्षेत्र में कई लोगों को पीछे छोड़ दिया. उनका ज्ञानार्जन आजीवन बना रहा. उन्हें ज्ञान का महत्व समझ में आ गया था. वे बचपन से गम्भीरता के साथ अपनी शिक्षा प्राप्त करते रहे और अन्य छात्रों को पीछे छोड़ते हुए काफी आगे निकल गए. उनके शिक्षा अध्ययन में कई प्रकार की सामाजिक-आर्थिक बाधाएं आई, उन्हें समाज में सम्मान- पूर्वक नहीं देखा जाता था, फिर भी वे रुके नहीं, अपितु पढ़ते हुए आगे बढ़ते चले गए.
डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने समाज के लिए बहुत कुछ किया, वे अन्त्यज जाति में पैदा होकर भी बड़े विचार वाले व्यक्ति हुए. उन्होंने दीन-हीन को उठाने के साथ-साथ समाज के अन्य वर्गों के साथ भी न्याय का प्रयास किया. उन्होंने भारतीय समाज को एक बड़े फलक पर देखा. उन्होंने सुधार करने की दिशा में सामाजिक बुराइयों एवं सामाजिक असमानता को दूर करने का काफी प्रयत्न किया.
डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने भारतीय जाति प्रथा का विश्लेषण करते हुए अपने विचार दिए जो उनकी पुस्तक ‘कास्ट इन इण्डिया देयर मेकैनिज्म, जेनेसिस एण्ड डेवलपमेंट (1915)’ में द्रष्टव्य है. उन्होंने इस रचना में प्राचीन समय से भारत में चली आ रही सामाजिक व्यवस्था व बंधन आदि पर अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया. उन्होंने सम्पूर्ण समाज की भलाई व विकास हेतु चली आ रही जाति प्रथा, सती प्रथा आदि
को सामाजिक उन्नति के पथ का रोड़ा माना, उन्होंने बताया कि समाज में महिला- पुरुष का क्या स्थान हो ? विवाह कैसा हो ? जातिवाद क्यों हानिकारक है ? सचमुच उनका दृष्टिकोण उच्च रहा जिसे मानवतावादी व बहुत हद तक वैज्ञानिक नजरिया भी कहा जा सकता है.
वेद हिन्दुओं का प्राचीन काल से एक महत्वपूर्ण धार्मिक ग्रन्थ रहा है, हमारा हिन्दू समाज वेदों से काफी अंश तक प्रभावित होता रहा है. बाबा साहेब ने कहा कि “सही सामाजिक दृष्टिकोण रखकर ही वेदों के मायने लगाए जाएं तो अच्छा होगा”.
‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट (1936)’ में डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने भारतीय सामा- जिक इतिहास के सन्दर्भ में बताया कि हमारी जाति प्रथा एवं वर्णवैषम्यता से भारतीय सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हो रही हैं. उन्होंने इस रचना में महात्मा गांधी के जाति विद्वेषात्मक मनोभाव व उनके प्रतिउत्तर पर भी चर्चा की. उन्होंने बताया कि जातपाँत की प्राचीन काल से चली आ रही व्यवस्था से एवं वर्ण को लेकर विषमता से श्रम का ही विभाजन नहीं होता है, अपितु हमारे मजदूर भाई लोग भी अलग-अलग समुदाय में विभाजित हो रहे हैं. इन सभी के साथ छुआछूत, दीन-हीन के
शोषण, निम्न जाति के ऊपर लगाए गए सामाजिक प्रतिबंधों आदि से हमारा समाज बँटता जा रहा है और भारतीय जातीय एकता भी भीतर ही भीतर खोखली होती जा रही है. उनका विचार था कि काफी समय से हिन्दू धर्म की परम्परा व व्यवस्था के कारण बहुत लोगों को नुकसान पहुँचा है, जिसकी वजह से जातपाँत की कुव्यवस्था, अंधी-सी वर्णाश्रम व्यवस्था, अस्पृश्यता और सामाजिक असमानता आदि बरकरार हैं.
बाबा अम्बेडकर आधुनिक भारत के एक महान् समाज सुधारक हुए, जिन्होंने सामाजिक भलाई में अपनी सारी जिन्दगी गुजार दी. उन्होंने दलितों, वंचितों, दीन-हीन सदस्यों, श्रमिक जनता निम्न जाति के लोगों के लिए प्रेरणा का कार्य किया. आज सारी दुनिया उनके क्रांतिकारी सामाजिक-धार्मिक विचार से अनजान नहीं है. उन्होंने भारतीय समाज की मूढ़ता, जड़ता व विडम्बना को बहुत करीब से देखा और वे पूरे समाज के उत्थान में कतिपय हिन्दू रूढ़िवादिता व कट्टरपन को बाधा समझा. उन्होंने पूर्ण भारतीय समाज को यथार्थ के चश्मे से देखा और तब इसका बौद्धिक विश्लेषण किया. उन्होंने भारतीय समाज के कट्टर व रूढ़िवादी विचारों को नकारा और एक नए समाज का आह्वान किया.
उन्होंने हिन्दू धर्म के दर्शन पर अपने विचार रखे. उनका हिन्दू धर्म के प्रति तर्कपूर्ण नजरिया रहा. उन्होंने प्राचीनकाल से चले आए हिन्दू धर्म के दर्शन पर भी प्रहार किया. उन्होंने बताया कि हिन्दू धर्म के धार्मिक अनुशासन अर्थात् कट्टरपन के कारण हमारी जाति व्यवस्था की रूढ़िवादिता बढ़ी और हमारा समाज तितर-बितर हो गया
है. उन्होंने आगे बताया कि हिन्दू धर्म के कतिपय प्रावधानों / व्यवस्था के कारण हमारे समाज में ऊँच-नीच की भावना, शासित व वंचित की भावना, द्वेष व विद्वेष आदि की भावना फैली, उन्होंने सामाजिक मूल्यों को परखा और सामाजिक व्यवस्था में मानवीय मूल्यबोध का प्रवेश चाहा. उनका विचार था कि धार्मिक कुरीतियों, कुविचार व ढोंग वाली परम्परा की वजह से लोग आपस में बँट गए हैं और जातीय एकता का अभाव देखा जा रहा है.
वे भारत के सभी वर्ग वर्ण के सदस्यों को मिलाकर चलना चाहते थे, ताकि सभी के कल्याण होने के साथ भारतीय समाज की मजूबती आ सके और हम सब मिलकर उन्नति की राह पर अग्रसर हो सकें. उनके लिए वंचित सभी समान थे-चाहे वे किसी वर्ग, जाति या वर्ण के रहे हों, वे सभी तरह के वंचितों को उनके अधिकार दिलाना चाहते रहे. उन्होंने कभी अपने फायदे के लिए भारतीय समाज को जोड़ना-तोड़ना नहीं चाहा, उन्होंने कभी उच्च या निम्न वर्ग के लिए ही काम करना नहीं चाहा, अपितु उन्होंने अधिकारविहीन सदस्यों के लिए एक सम्पूर्ण समाज के विकास के विशाल फलक
पर काम किया. उन्होंने शोषितों के लिए चाहे वे जिस वर्ग से आते हों, के लिए अपना एक दृष्टिकोण रखा-“मजदूरों का शोषण कम-से-कम हो, उनके वेतन पर सरकारी नियंत्रण हो उन्हें उनकी छुट्टी, काम की अवधि, सवेतन छुट्टी, बोनस व
पेंशन आदि देने की भी कानूनी व्यवस्था हो.”
इस तरह, बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने सामाजिक-धार्मिक सुधार की बातें करते हुए एक बड़े फलक पर समाज परिवर्तन का प्रयास किया. उन्होंने भारतीय समाज के दबे-कुचले व नकारे लोगों के आत्मसम्मान व अधिकार के लिए जीवन- पर्यन्त संघर्ष किया. वे एक ऐसी समाजवादी व्यवस्था चाहते थे जिसमें सभी के लिए समता व स्वतंत्रता का स्थान हो.
बाबा साहेब ने अपने उच्च शिक्षा एवं विदेश भ्रमण के क्रम में कई नई चीजों व मूल्यों को देखा-परखा. उन्हें जो अच्छे व मूल्यवान विचार समझ में आए उन्हें अपनाने की कोशिश की उनके विचार उच्च रहे और एक विशाल फलक पर
भारतीय समाज को लाभ पहुँचाना चाहते थे. वे कुएं के मेढक बने रहना नहीं चाहते थे. वे सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में सुधार लाकर भारतीय समाज को एक महत्वपूर्ण उच्च स्थान देना चाहते थे उनका विचार रहा कि हमारे भारत राष्ट्र का भविष्य तब ही उज्जवल हो सकता है, जब तक यहाँ जातपाँत की बुराइयाँ, ऊँच-नीच की भावना, दलितों के प्रति छुआछूत के भाव, धार्मिक कट्टरवाद, सामाजिक-धार्मिक रूढ़िवादिता एवं हिन्दू संस्कृति के प्रदूषित विचार इसमें आई अशुद्धियाँ दूर नहीं होंगी. उन्होंने भारतीय समाज का बहुत हद तक बौद्धिक विश्लेषण किया और इसके फलस्वरूप भारतीय समाज के यथार्थ से लोगों को अवगत कराया. सामाजिक-धार्मिक-सांस्कृतिक कमियों की ओर इशारा करते हुए ऐसी समस्याओं का निदान बताया,
बाबा डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने तत्कालीन भारतीय समाज को बहुत करीब से देखा और परखा. उन्होंने अपनी जिन्दगी में कई कटु अनुभव प्राप्त किए और निश्चय किया कि वे दलितों के उत्थान हेतु काम करेंगे एवं उन्हें एकजुट कर समाज की मुख्य धारा में लाते हुए उनके उत्थान के लिए हर सम्भव प्रयास करेंगे. यद्यपि वे देश- विदेश भ्रमण कर शिक्षा की उच्च डिग्रियों को प्राप्त कर चुके थे. उन्होंने दलितों को जगाने, शिक्षित करने एवं सामाजिक-सांस्कृतिक न्याय दिलाने के लिए संकल्प लिया. उन्होंने देखा कि जब उनके जैसे पढ़े-लिखे इंसान को नौकरी करने में इतनी परेशानी व अपमान झेलना पड़ा, तो अन्य दलित लोगों की क्या स्थिति होगी.
बाबा अम्बेडकर साहेब ने जातिवाद के कुचक्र में दलितों को पिसते देखा और उन्होंने अपने जीवन में कई उद्देश्यों के बीच सर्वोपरि तौर पर जातिवाद की समाप्ति हेतु आगे बढ़ने का संकल्प लिया तत्कालीन भारतीय समाज में जाति प्रथा अपनी ऊँचाई पर कोढ़ की तरह व्याप्त रही थी. उन्होंने देखा कि अधिकांश दलित लोग अशिक्षित हैं, आर्थिक रूप से पिछड़े हैं और उनमें एकता नाम की कोई भावना नहीं है. उन्हें प्राचीन भारतीय समाज व संस्कृति के नाम पर आगे बढ़ने से रोका जा रहा है. ऐसे में दलितों के मसीहा के रूप में डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने दलितों के लिए शिक्षित होने, एकजुट होने एवं संघर्ष करने का मंत्र दिया.
उन्होंने दलित आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए कई कार्य किए जिनमें से मराठी पाक्षिक पत्रिका ‘मूकनायक’ का 31 जनवरी, 1920 को प्रकाशन भी एक है. इसमें उन्हें बड़ोदा के शाह महाराजजी की वित्तीय सहायता मिली और वे गद्गद् हो गए. उन्होंने इस मौके को हाथ से जाने न दिया. वे पत्रिका के माध्यम से सामाजिक- सांस्कृतिक व धार्मिक सुधार की बात करने लगे. उन्होंने जातिवाद, वर्ण-भेद एवं हिन्दू धर्म की कटटर विचारधारा पर प्रहार किया और इस पत्रिका के माध्यम से सामाजिक- सांस्कृतिक व धार्मिक सुधार की बात की. उन्होंने आगे भी जातिवाद, वर्ण भेद हिन्दू धर्म की कटटर विचारधारा पर प्रहार किया और इस पत्रिका के माध्यम से अपने ‘दलित आन्दोलन’ को विस्तार दिया.
बाबा साहेब अम्बेडकर : राइटिंग्स एण्ड स्पीचेज, खण्ड-8 के पृष्ठ 130 में उन्होंने राजनीति, धर्म एवं समाज का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए उल्लेख किया कि राजनैतिक तथा धार्मिक होने से अधिक मनुष्य एक सामाजिक पशु है, इसे धर्म की जरूरत नहीं भी रह सकती, ऐसे ही इसे राजनीति की भी आवश्यकता नहीं पड़ सकती है परन्तु उसे समाज की आवश्यकता होती ही है. वह समाज के बगैर नहीं रह सकता है.
बाबा साहेब ने अपनी पुस्तक ‘भगवान बुद्ध और उनका धर्म में जो मूल्यवान विचार प्रकट किए, वे काफी क्रांतिकारी हैं. उन्होंने लोक प्रशासन को समाज से जुड़ा एक विषय बताया, जो व्यक्ति के सार्वजनिक जीवन को तय करता है. उन्होंने लिखा- समाज को तीन विषयों में से एक का चयन करना ही होगा. समाज चाहे तो अपने अनुशासन’ के निमित्त धर्म का चयन नहीं कर सकता, अगर धर्म अनुशासन’ नहीं करता तो वह ‘धर्म’ ही नहीं है, स्पष्ट है कि समाज अराजकता के रास्ते पर आगे चलना उचित समझता है. दूसरे समाज पुलिस अथवा डिक्टेटर को अनुशासन हेतु चयन कर सकता है. तीसरा कि समाज धर्म एवं ‘मजिस्ट्रेट’ दोनों का ही चयन कर सकता है, जितने अंश में समाज धर्म का पालन करे उतने अंश में ‘धर्म’ तथा जहाँ ‘धर्म’ का पालन न करे, वहाँ मजिस्ट्रेट, बाबा साहेब ने भारतीय समाज को काफी गहराई में जाकर जाना व समझा था. उन्होंने सामाजिक स्वरूप व व्यवस्था का ठोस अध्ययन कर कहा था स्वतंत्रता न अराजकता में है और न डिक्टेटर राज्य में है.
आधुनिक भारत के क्रांतिदूतों एवं मानवतावादियों में डॉ. भीमराव अम्बेडकर साहेब का नाम अग्रगण्य है. उन्होंने दलितों को एक सम्मानजनक स्थान दिलाने, सामा- जिक-धार्मिक बुराइयों व रूढ़िवादिता को दूर करने, समता व स्वतंत्रता जैसे विचारों के प्रचार-प्रसार करने में अपना जीवन अर्पण कर दिया. आधुनिक भारत के ऐसे कई महान् चिन्तक एवं समाज सुधारक हुए, लेकिन बाबा साहेब का एक अलग ही महत्वपूर्ण स्थान है. वे सदियों से सताए गए लोगों अर्थात् दलितों के मसीहा होने के साथ-साथ अन्य पिछड़े उपेक्षित व पीड़ित मानव के लिए भी इस धरती पर एक अवतार साबित हुए.
अंग्रेजी हुकूमत से भारत को आजादी मिलने जा रही थी. भारतीय नेताओं में गजब का उत्साह था. कई लोग अपनी चिन्ता कर रहे थे, तो कई नेता दिल्ली की कुर्सी पर अपनी निगाह लगाए हुए थे. वहीं डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने समझा कि ऐसी आजादी से क्या, जब शोषित-दलित लोग सही में आजाद न हों. उन्होंने कई नेताओं के साथ महात्मा गांधी से भी सैकड़ों वर्षों से सताए गए शोषित-दलितों के उत्थान, सामाजिक प्रतिष्ठा, राजनीतिक अधिकार आदि की बातें कीं, परन्तु उन्हें कोई ठोस नतीजा न मिला और इस प्रकार दलित समुदाय के ज्वलंत मुद्दा पर किसी बड़े नेता का ध्यान न गया और मामला यूँ ही लटका रहा. दूसरी तरफ 15 अगस्त, 1947 ई. को भारत में योजनाबद्ध तरीके से सत्ता का हस्तांतरण हो गया. बाबा साहेब को सन्तुष्टि नहीं थी. उन्होंने ‘स्टेट्स एण्ड माइनोरिटीज’ नामक एक ज्ञापन को प्रकाशित कराया जिसमें उन्होंने सन्देश दिया कि समाज हेतु लोकतंत्र अपरिहार्य है और सामाजिक संगठन रूढ़ सामाजिक परम्पराओं से मुक्त होना चाहिए. उन्होंने तथाकथित त्याज्य जातियों के सही में उत्थान व विकास हेतु कार्य किया. वे नीची जाति के लोगों को एक सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने के लिए आजीवन संघर्षरत रहे. इन सभी का नतीजा हुआ कि संविधान सभा ने 29 अप्रैल, 1947 को घोषणा की “छुआछूत को समाप्त किया जाता है. वह किसी भी क्षेत्र में बर्दाश्त नहीं होगी तथा तदनुरूप किसी भी तरह की भेदभाव वाली भावना पाई गई तो कानूनन इसे अपराध माना जाएगा.”
श्री विधा प्रकाशन, पुणे की रचना ‘आम्बेडकरी आन्दोलन (1990) में वर्णित है कि डॉ. अम्बेडकर ने सन 1939 में बम्बई विधानमण्डल में भाषण में अपनी श्रद्धा को इस प्रकार उजागर किया-“जब जब मेरे वैयक्तिक सम्बन्ध एवं पूरे देश के सम्बन्ध में संघर्ष होने की सम्भावना……. तब मेरे व्यक्तिगत हित से अधिक मैंने देश के हित के लिए ज्यादा महत्व दिया है, लेकिन मेरी एक और निष्ठा है. जिस अस्पृश्य समाज में मैंने जन्म लिया, उसे में कभी बीच में नहीं छोड़ूँगा अपने समाज पर जो मेरी निष्ठा है वह कायम रहेगी. यदि देश एवं समाज के सम्बन्ध में संघर्ष का वक्त आएगा, तब मैं देश से ज्यादा समाज से सम्बन्ध रखने में अधिक प्रयासरत् रहूँगा”. बाबा साहेब ने आमलोगों को बताया कि तथाकथित ब्राह्मणवाद एवं पूँजीवादी वैचारिकता भारतीय शोषित वर्ग के खास दुश्मन हैं, जिन पर प्रहार की जरूरत आ पड़ी है
आधुनिक भारत के निर्माता एवं समाज सुधारक व चिन्तक डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने भारतीय समाज को बहुत कुछ दिया. उन्होंने अपने जीवन में कई कटु अनुभव किए थे. वे हिन्दू समाज की कुरीतियों एवं सामाजिक असमानता व जातिगत अन्याय के विरुद्ध थे. उन्होंने सामाजिक व सांस्कृतिक कुव्यवस्था पर कुठाराघात किया. उन्होंने समाज में फैली विषमता यथा छुआछूत एवं नीचभावना का विरोध किया. वे दलितों/अस्पृश्यों को सम्मानपूर्वक जीने का हक दिलाने के लिए आगे बढ़े और इस दिशा में उन्होंने अपना जीवन न्योछावर कर दिया. उन्होंने दलितों / अस्पृश्य जाति के लोगों का मनोबल ऊँचा किया और सामाजिक व सांस्कृतिक कुरीतियों, अव्यवस्था, अंधविश्वासों, मनगढ़त रीति-रिवाजों एवं विषमता
के खिलाफ लड़ने के लिए लोगों को प्रेरित किया. वे इन दलित समाज के सदस्यों पर होने वाले प्रहार पर आहत थे, वे इन सामाजिक बुराइयों को जड़ से उखाड़ देना चाहते थे. उन्होंने ऐसी फालतू एवं दमनात्मक व्यवस्था के विरुद्ध बिगुल फेंक दिया. उन्होंने दलितो/ अस्पृश्यों को सम्मानपूर्वक जिन्दगी बिताने के लिए लोगों का आह्वान किया. उन्होंने पाया कि जब तक दलित / अस्पृश्य जाति के लोग शिक्षित नहीं होंगे, तब तक वे अन्य लोगों के बराबर नहीं उठ सकते हैं, फिर उन्होंने बताया कि आज तक दलित/ अस्पृश्य लोग दबे-कुचले रहे हैं. अतः अब समय आ गया है कि ऐसे लोग सामाजिक-
सांस्कृतिक विसंगति/विकृति को दूर करें एवं संघर्ष करना सीखें, ताकि उन्हें भी अन्य की भाँति समाज में सम्मानपूर्वक जिन्दगी गुजर-बसर करने का अधिकार मिल सके.
डॉ. सुकन पासवान प्रज्ञाचक्षु ने अपनी पुस्तक ‘भारतरत्न डॉ. भीमराव अम्बेडकर सृष्टि और दृष्टि (भावना प्रकाशन, दिल्ली-91) में लिखा है- आर्यसमाजी लोग वर्ण व्यवस्था की काल्पनिक उपयोगिता का समर्थन कर सामाजिक सुधार का बहुत नुकसान करते जा रहे हैं, जातिभेद की वजह से हिन्दुओं का नाश हुआ. वर्ण व्यवस्था के आधार पर हिन्दू समाज का पुनर्गठन असम्भव है, वर्ण व्यवस्था काननून बन्द होनी चाहिए, वर्ण व्यवस्था के आधार पर हिन्दू समाज का पुनर्गठन श्रेयस्कर नहीं है, क्योंकि यह व्यवस्था सामान्य जनता के ज्ञान का अधिकार नकार कर उसकी अधोगति करती है एवं शास्त्र का अधिकार नकार कर उसे पौरुषहीन बनाती है. हिन्दू समाज के पुनर्गठन की जरूरत ऐसे धर्मतत्वों के आधार पर सम्भव है, जिनका सम्बन्ध समता, स्वतंत्रता और बन्धुभाव से जुड़ा है. इस उद्देश्य की सफलता के लिए जातिभेद एवं वर्ण को, जिस पर धर्म का आधार है, उस आधार को ही नष्ट करना चाहिए शास्त्रों को जब भगवद्गीता मानने की मानसिकता समाप्त हो जाएगी, तभी जाति तथा वर्ण का आधार नष्ट हो सकता है।
धनंजय कीर अनुवादक गजानंद सुर्वे की पुस्तक बाबा साहेब अम्बेडकर जीवन चरित्र’ (पॉप्यूलर प्रकाशन, नई दिल्ली) में डॉ. अम्बेडकर के हिन्दू समाज की कुरीतियों पर विचार वर्णित हैं हिन्दू समाज में जाति मात्र अपने तक ही सीमित है, जहाँ हिन्दुओं के रीति-रिवाज एक समाज हों, तो भी, न तो वे एक हैं और न ही ठीक अर्थों में एक राष्ट्र ही हैं, बल्कि वे जातियों का एक समूह है और यही जाति विभेद हिन्दुओं के विनाश का मूल कारण भी है. इसी ने हिन्दू समाज को गहन अन्धकार में ढकेल दिया है.………..समाज एवं राष्ट्र का विकास तो तब सम्भव है, जब मानवीय गत्यात्मकता
एक ही स्तर पर हो.’
डॉ. भीमराव अम्बेडकर एक महान् सामाजिक चिन्तक के साथ सामाजिक विश्लेषक भी हुए. उनका मत. रहा कि सामाजिक व आर्थिक स्वतन्त्रता के बिना राज- नीतिक आजादी कालक्रम में कोई मायने नहीं रखती है. उन्होंने धर्म व राजनीतिक जरूरतों से ऊपर सामाजिक न्याय की आवश्यकता को समझा और सामाजिक-धार्मिक व सांस् कृतिक विवेकशीलता पर जोर दिया. उनका विचार रहा कि अस्पृश्यता तो गुलामी से भी बदतर है. आज भी लोगों की अस्पृश्य जाति के व्यक्तियों के प्रति मानसिकता पूर्ण- रूप से नहीं बदली है. अतः बाबा साहेब अम्बेडकर के सामाजिक पुनर्रचना के काम को आगे बढ़ाने की जरूरत है.
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