भाषा और संप्रेषण
भाषा और संप्रेषण
भाषा और संप्रेषण
भाषा का मूल आपद्धर्म ही संप्रेषण है । भाषा विचारों और भावों को व्यक्त करने का एक व्यापक माध्यम है जिसका लक्ष्य सामाजिक स्तर पर परस्पर जुड़ा रहता है।
संप्रेषण का सीधा अर्थ है विचार-संचार । एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक विचार का पहुँचना जिसके
परिणामस्वरूप संबंधित व्यक्तियों में, विचारात्मक स्तर पर संपर्क स्थापित हो जाय ।
विचार-संचार की प्रत्येक प्रणाली एक तरह की सांकेतिक प्रणाली हुआ करती है, जिसमें कुछ विशेष संकेतों के द्वारा एक से अधिक व्यक्तियों के बीच विचार-संपर्क स्थापित होता है।
प्रत्येक सांकेतिक पद्धति के निम्नलिखित अंग होते हैं :
(क) संकेत (ख) माध्यम (ग) परिसांकेतिकता (घ) परिसंकेतक (ङ) विसांकेतिकता (च) विसंकेतक।
(क) संकेत-प्रत्येक संचार प्रणाली में कुछ विशेष संकेतों का प्रयोग किया जाता है। उदाहरण के लिये गाड़ी के गार्ड एवं ड्राइवर के बीच प्रयुक्त होने वाली संचार-प्रणाली को लिया जा सकता है। गार्ड और ड्राइवर के बीच (कभी-कभी उसमें यात्री भी सम्मिलित होते हैं) झंडियों द्वारा विचार का संचार होता है। गार्ड हरी झंडी दिखाता है तो ड्राइवर गाड़ी चलाता है; और यदि गार्ड लाल झंडी दिखाता है तो ड्राइवर गाड़ी खड़ी कर देता है। इस संचार-व्यवस्था में जिन झंडियों का उपयोग किया जाता है वे ही इस पद्धति में संकेत हैं।
(ख) माध्यम-विचार-संचार में संकेतों के ही समान अन्य आवश्यक तंत्र है माध्यम । माध्यम से तात्पर्य उस साधन से है जिसके द्वारा संकेतों का प्रयोग किया जाता है। यदि झंडियाँ गार्ड के पास रहें अथवा उसके डिब्बे में
पड़ी रहें तो उनसे विचार-संचार नहीं हो सकता। संचार तो तभी संभव है जब गार्ड उन्हें हाथ में लेकर हिलाता है। यहाँ गार्ड का हाथ (और उस हाथ का विशेष ढंग से हिलना) ही विचार-संचार का माध्यम है।
(ग) परिसांकेतिक-परिसांकेतिकता से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसमें संचार हेतु किसी विशेष परिस्थिति में कुछ विशेष संकेतों का चयन किया जाता है। उदाहरणार्थ सामने स्टेशन अर्थात् परिस्थिति विशेष देखकर, गार्ड संचार-संकेतों अर्थात् हरी और लाल झंडियों में से लाल झंडा को चुनता है और उसे हाथ (माध्यम) द्वारा हिलाता है। इस तरह लाल झंडी हिलाने का अर्थ है-गाड़ी रुकनी चाहिये और यह अर्थ इस प्रणाली का प्रयोग करने वाले गार्ड और ड्राइवर के बीच पहले ही निश्चित है। इस प्रकार परिसांकेतिक परिस्थिति के अनुकूल संकेतों के चयन की प्रक्रिया है।
(घ) परिसंकेतक-परिसंकेतक से तात्पर्य उस साधन (व्यक्ति अथवा यंत्र) से है जिसके द्वारा परिसांकेतिक की प्रक्रिया संपादित होती है। उपर्युक्त झंडियों की संचार-प्रणाली में गार्ड ही परिसंकेतक है। वही एक विशेष परिस्थिति में कुछ विशेष संकेतों का चुनाव करता है। आवश्यकता अर्थात् परिस्थिति के अनुसार वह दो झंडियों में से किसी एक का ही प्रयोग करता है।
(ङ) विसांकेतिकता-विसांकेतिकता वह प्रक्रिया है जिसमें संकेतों द्वारा प्रसारित अर्थ ग्रहण किया जाता है और उसके अनुरूप कार्य भी किया जा सकता है। गार्ड द्वारा दिखाई एवं हिलाई जाने वाली झंडी का ड्राइवर द्वारा भाव ग्रहण करना और उससे प्रभावित होकर कार्य करना (गाड़ी चलना अथवा रोकना) ही विसांकेतिकता की प्रक्रिया है।
विसांकेतिकता की प्रक्रिया एक प्रकार से परिसांकेतिकता की प्रक्रिया के विपरीत है। परिसांकेतिकता की प्रक्रिया में परिस्थिति के अर्थ को संकेतों का रूप दिया जाता है, जबकि विसांकेतिकता में उन संकेतों को परिस्थिति के अर्थ में परिवर्तित किया जाता है। दोनों में मुख्य अंतर यह है कि परिसांकेतिकता के द्वारा परिस्थिति की सूचना दी जाती है, परिस्थिति के अनुरूप कार्य का संपादन नहीं किया जा सकता; कार्य का संपादन विसांकेतिकता के पश्चात् ही होता है, वह भी परिस्थिति विशेष के अनुकूल ही। गार्ड परिस्थिति विशेष की सूचना (स्टेशन आदि की) तो दे सकता है किंतु उस परिस्थिति के अनुसार कार्य (गाड़ी चलाना अथवा रोकना) नहीं कर सकता । यह कार्य तो केवल ड्राइवर ही कर सकता है और यह कार्य वह तभी करता है जब विसांकेतिकता के द्वारा वह विचार-संकेत (लाल अथवा हरी झंडी) के अर्थ को ग्रहण कर लेता है।
(च) विसंकेतक-विसंकेतक से तात्पर्य उस साधन से है जिसके द्वारा विसांकेतिकता का कार्य संपादित होता है। ऊपर के उदाहरण में ड्राइवर ‘विसांकेतक’ है। वही संचार केंद्र को समझता है (और जरूरत पड़ने पर उसके अनुरूप कार्य करता है)।
अभाषायी पद्धतियाँ :
भाषा के सिवा संचार की अन्य जितनी भी पद्धतियाँ हैं वे अभाषायी पद्धतियाँ कही जाएंगी। इनमें से कुछ पद्धतियाँ ऐसी हैं जो भाषा के कथ्य रूप से समीपता रखती हैं और दूसरी कुछ ऐसी हैं जिनका भाषा के लिखित रूप से साम्य है। भाषा के कथ्य-रूप से समीपता रखने वाली पद्धतियों में ‘स्वपन’ का प्रयोग किया जाता है।
विचार-संचार में किसी साधन द्वारा स्वपन की अभिव्यक्ति एवं श्रवण-इंद्रिय द्वारा उसके ग्रहण का विधान रहता है।बिगुल-नगाड़े अथवा सीटी की सहायता से किया गया विचार-संचार इसी श्रेणी में आता है। एक विशेष यंत्र टिक-टिक की ध्वनि उत्पन्न कर उसके माध्यम से विचार-संचार (तार भेजने की प्रक्रिया) की पद्धति भी इसी प्रकार की है।
चित्रों, रस्सी में लगी गाठों, बत्तियों झंड़ियों आदि के संकेतों का प्रयोग करनेवाली पद्धतियाँ भाषा के लिखित रूप से साम्य रखती हैं। इन पद्धतियों में ऐसे संकेतों का प्रयोग किया जाता है जिनको देखकर ही उनका अर्थ ग्रहण किया जा सकता है। हाथ, पाँव आँख आदि के संकेतों का प्रयोग भी इसी प्रकार की पद्धतियों में गिना जाता है।
संचार की भाषायी पद्धति :
भाषा विचार-संचार की अत्यंत सूक्ष्म, शक्त एवं विस्तृत पद्धति है। इसके द्वारा जितने प्रभावशाली ढंग से एवं जितने विस्तार से विचार का संचार किया जा सकता है उतना किसी अन्य पद्धति से संभव नहीं है।
अन्य पद्धतियों के समान भाषा में भी वे समस्त तत्त्व विद्यमान हैं जो किसी भी सांकेतिक पद्धति में होने
चाहिएँ । भाषा स्वन-संकेतों की प्रणाली है। इस पद्धति में स्वग्न ही वें ‘संकेत’ हैं जिनका ‘वायु’ के माध्यम से प्रसार होता है। स्वण्नों का उच्चारण करनेवाला परिसंकेतक का कार्य करता है एवं वक्ता का वह बौद्धिक व्यापार जिसमें वह परिस्थिति के अनुकूल (अर्थात जिस विचार को वह अभिव्यक्त करना चाहता है) स्वण्नों का चयन करता है (अर्थात कुछ विशेष शब्दों को एक विशेष ढंग से कहता है), परिसांकेतिकता की प्रक्रिया है।
स्रोता का वह बौद्धिक व्यापार जिसके अंतर्गत वह स्वण्न- संकेतों से अर्थ ग्रहण करता हैं, विसांकेतिकता की प्रक्रिया है तथा श्रोता स्वयं विसंकेतक है, क्योंकि वही स्वण्न, संकेतों से अर्थ ग्रहण करने का कार्य करता है और आवश्यकता पड़ने पर उसके अनुरूप व्यवहार करता है । यदि श्रोता भी प्रत्युत्तर में कुछ बोलता है तो उपर्युक्त प्रक्रिया का विपरीत दिशा से पुनरावर्तन होता है। ऐसी स्थिति में श्रोता ‘विसंकेतक’ न होकर ‘परिसंकेतक’ बन जाता है और उसका बौद्धिक व्यापार ‘परिसांकेतिकता’।
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