संबंध-तत्व और अर्थ-तत्व का संबंध :
संबंध-तत्व और अर्थ-तत्व का संबंध :
संबंध-तत्व और अर्थ-तत्व का संबंध :
संबंध-तत्व और अर्थ-तत्व के संबंध सभी भाषाओं में अलग-अलग तरह के होते हैं । अस्तु संबंध के प्रकारों
को समझना आवश्यक है।
1. पूर्ण संयोग-कुछ भाषाओं में अर्थ-तत्त्व और संबंध-तत्त्व दोनों एक-दूसरे से इतने मिले रहते हैं कि एक
ही शब्द एक साथ दोनों तत्त्वों को प्रकट करता है। भारोपीय एवं सेमेटिक दोनों ही परिवारों की भाषाएँ ऐसी ही हैं।
अरबी में ‘कतल’ में केवल स्वर या कुछ व्यंजन जोड़कर कई ऐसे शब्द बनाये जा सकते हैं जिनमें दोनों तत्व एक
में मिले हों। जैसे कातिल, कतल, युक्तुलु, उत्कुल आदि । अंग्रेजी के भी सिंग, से सैंग, आदि शब्द भी ऐसे ही हैं।
शून्य संबंध-तत्त्व वाले रूप भी इसी श्रेणी में रखे जा सकते हैं।
2. अपूर्ण संयोग-कभी-कभी ऐसा होता है कि अर्थ और संबंध, ये दोनों ही तत्व एक में मिले रहते हैं, अत:
एक ही शब्द द्वारा दोनों प्रकट होते हैं किंतु यह मिलन अपूर्ण होता है और इस कारण संबंध और अर्थतत्व दोनों स्पष्ट
देखे जा सकते हैं। इनमें दोनों तत्त्व मिले रहने पर स्पष्ट दीखते हैं। जैसे ‘आस्क्ड’ ‘रॉक्ड’ तथा ‘किल्ड’ में ऐसा
है। इनमें प्रधानतः उपसर्ग या प्रत्यय के रूप में संबंध-तत्त्व रहता है। कभी-कभी मध्य प्रत्यय का भी प्रयोग करना
पड़ता है परंतु ये सभी स्पष्टतः अलग रहते हैं; अतः इन्हें अपूर्ण संयोग कहा गया है।
3. दोनों स्वतंत्र-कुछ भाषाओं में दोनों तत्त्वों की सत्ता पूर्णतः स्वतंत्र होती है। इसके अंतर्गत कई भाग किये
जा सकते हैं:-
(क) चीनी भाषाओं में दो प्रकार के शब्द होते हैं-पूर्ण शब्द और रिक्त शब्द । रिक्त शब्दों का प्रयोग सर्वदा
तो नहीं होता क्योंकि यह स्थान-प्रधान भाषा है परंतु कभी-कभी अवश्य होता है। भारोपीय परिवार के प्राचीन इति’,
‘आउ’ आदि तथा नवीन ‘ने’, ‘को’ ‘से’ तथा ‘टू’ भी एक प्रकार से रिक्त शब्द हैं।
(ख) ‘क’ वर्ग में दोनों तत्त्व स्वतंत्र होते हुए भी साथ-साथ थे । वाक्य में संबंध तत्त्व का स्थान अर्थ-तत्त्व
के पास ही कहीं था; पर कुछ भाषाएँ ऐसी भी हैं जिनमें दोनों तत्त्वों का इस प्रकार का साथ नहीं रहता है। वाक्य
में पहले संबंध-तत्त्व का इस प्रकार का साथ नहीं रहता है । वाक्य में पहले संबंध-तत्त्व प्रकट करने वाले शब्द आ
जाते हैं और फिर अन्य शब्द ।
संबंध तत्व का आधिक्य-कुछ भाषाओं में संबंध तत्वों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक होती है। इसका फल
यह होता है कि वाक्य में प्रति शब्द के साथ एक संबंध-तत्त्व रहता है और एक के स्थान पर तीन-तीन, चार-चार
संबंध तत्त्व प्रयोग में आते हैं।
हिन्दी आदि में केवल संज्ञा के साथ बहुवचन की विभक्ति लगाने से काम चल जाता है किंतु इन भाषाओं
में संज्ञा के सभी विशेषणों में भी विभक्ति लगानी पड़ती है। संस्कृत आदि पुरानी भाषाओं में यह ‘आधिक्य’ अधिक
है। यह आवश्यक नहीं है कि एक भाषा में केवल एक ही तरह के संबंध-तत्त्व मिलें और दोनों तत्त्वों का संबंध
भी एक ही तरह का हो। अधिकतर भाषाओं में कई प्रकार के संबंध तत्व मिलते हैं।
हिन्दी में संबंध-तत्त्व :
हिन्दी में अनेक प्रकार के संबंध-तत्व हैं। का, को, से, में, ने, आदि चीनी भाषा की ही भाँति रिक्त शब्द
हैं। वाक्य में एक हद तक कर्ता, क्रिया, कर्म का स्थान प्रायः सुनिश्चित-सा है, अस्तु स्थान प्रकट करने वाला
संबंध-तत्व भी है । बातचीत करते समय वाक्यों में स्वराघात के कारण भी कभी-कभी परिवर्तन हो जाता है। (काकु
वक्रोक्ति) “मैं जा रहा हूँ, तथा ‘मैं जा रहा हूँ’ में अंतर है। इसी प्रकार धातु एवं उसके आज्ञा रूप (जैसे चल-चल,
पी-पी आदि) में भी अंतर है। यह अंतर बलाघात का ही अंतर हैं । कहीं-कहीं तुर्की भाषा की ही तरह अपूर्ण संयोग
भी मिलता है, जैसे बालकों (बालक + ओं) या चावलों (चावल + ओं) आदि । इस तरह स्वर और व्यंजन के
परिवर्तन द्वारा तत्त्वों का पूर्ण संयोग भी मिलता है, जिनमें दोनों को अलग करना नितांत असंभव है, जैसे ‘कर’ से किया
या ‘जा’ से गया। अपश्रुति के उदाहरण के लिये कुकर्म से कुकर्मी, घोड़ा से घोड़ी या करता से करती आदि कुछ
शब्द लिये जा सकते हैं। इस रूप में अनेक प्रकार के संबंध-तत्त्वों के उदाहरण प्रायः सभी भाषाओं में मिल सकते
हैं, परंतु प्राधान्य केवल एक या दो प्रकार के संबंध-तत्त्वों का ही होता है। हिन्दी में स्वतंत्र शब्द तथा स्थान से प्रकट
होने वाले संबंध-तत्त्वों का प्राधान्य है।
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