सही रास्ते को पहचानना
सही रास्ते को पहचानना
सही रास्ते को पहचानना
घर्षण द्वारा ऊर्जा (अग्नि) की उपलब्धि के साथ विज्ञान का शुभारम्भ
हुआ था. अब ऊर्जा की उपलब्धि का माध्यम संयोग है. आदि मानव संघर्षमय
जीवन को स्वाभाविक जीवन मानता था. अब वह विश्व बन्धुत्व, अन्तर्राष्ट्रीयता की
परिकल्पना को साकार करने के लिए प्रयत्नशील है. विज्ञान और सभ्यता के
विकास की कहानियाँ समान्तर चलती रही हैं. वैज्ञानिक चिन्तन एवं जीवन पद्धति के
मध्य यदि सामंजस्य हो, तो हमारे जीवन में सुख शान्ति सम्भव है.
हमारे जीव का संचालन सूत्र इस प्रकार निर्धारित होता है-चेतना प्राणशक्ति
द्वारा हमारी ऊर्जा अथवा हमारे भौतिक जीवन का नियन्त्रण करती है. पदार्थ, प्राण
एवं चेतना को लक्ष्य करके ही समस्त वैज्ञानिक, दार्शनिक एवं आध्यात्मिक चिन्तन-
पद्धतियों का विकास हुआ तीनों के मध्य सामंजस्य स्थापित करके संश्लिष्ट मानव
का निर्माण किया जा सकता है. जीवन की विसंगतियों को दूर करने के लिए हमारी
चिन्तन पद्धति और जीवन शैली के मध्य सामंजस्य स्थापित करना चाहिए. डॉ.
आइन्स्टीन के सापेक्षिता सिद्धान्त ने इस प्रकार की परिकल्पना को साकार करने का
मार्ग प्रशस्त कर दिया है.
आधुनिक वैज्ञानिक यन्त्रों के विकास द्वारा ज्ञानेन्द्रियों की कार्य क्षमता की वृद्धि में
प्रयत्नशील है. प्राचीन भारतीय दार्शनिक चेतना के विकास द्वारा उक्त क्षमता का
विकास करने के लिए साधना करता था. यही कारण है कि उसके लिए मनीषी होने
की अपेक्षा सन्त होना, विज्ञानी होने की अपेक्षा ज्ञानी होना अधिक आवश्यक था.
उसके निकट विश्व बन्धुत्व विवेचन योग्य एक सम्भावना न होकर प्रकृति और जीवनी
का एक स्वयं सिद्ध सत्य था साधन-साध्य की विभिन्नता जीवन को विशृंखलित बना
देती है. सन्त और ज्ञानी के साधन साध्य चेतना- विकास के पर्याय रहते हैं. अतः ज्ञान
के क्षेत्र में आरम्भ से अन्त तक जीवनी-पद्धति संश्लेषणपरक बनी रहती है. इसी
प्रक्रिया के अन्तर्गत जीवन-कलिका पुष्प रूप में विकसित होकर रंजनकारी स्वरूप की
प्राप्ति में समर्थ होती है. विकास की प्रक्रिया के सफल संचालन के लिए यह आवश्यक है
कि जीवन में प्रत्येक पग पर पदार्थ, जीवनी शक्ति एवं चेतना की त्रिवेणी का निर्माण
और उसमें अवगाहन का निर्वाह होता रहे. कविजन ने कृष्ण-राधा के चरणों के प्रति
प्रीति के निर्वाह में इस त्रिवेणी में अवगाहन की परिकल्पना की है.
पदार्थ और चेतना का योग जीवन का स्पन्दन उत्पन्न करता है वनस्पति तथा
प्राणि-जगत के आधार तत्व को जैविक द्रव कहते हैं, जैविक द्रव द्वारा कोशिका की
उत्पत्ति होती है जो प्राणियों के जीवन का आधार तत्व है. कोशिका को हम जीवनरूपी
भवन का निर्माण करने वाली जीवंत ईंट कह सकते हैं. परमाणु पदार्थ की इकाई है, कोशिका
जीवन की इकाई है. कोशिका के निर्माण के साथ ही जीवन के लक्षण प्रकट होते हैं वृद्धि
प्रजनन, संवेदना व्यवहार कुशलता आदि इन गुणों को सम्यक् विकास जीवन विकास का
मापदण्ड माना जाता है. सम्यकता को धर्म कहकर भारतीय मनीषा ने धर्म द्वारा अर्थ
और काम के निर्वाह को विकास का मार्ग बताया है अथवा धर्माचारण को मानव धर्म
एवं मानवता की पहचान ठहराया है.
प्रकृति की आत्मकथा भग्नावशेषों के शब्दों द्वारा चट्टानों के पृष्ठों में सुरक्षित है.
ज्ञानवर्द्धन एवं मार्गदर्शन के लिए हमें इस आत्मकथा द्वारा लाभान्वित होने का प्रयत्न
करना चाहिए. इस आत्मकथा में सुरक्षित लाखों वर्षों के इतिहास का अध्ययन अनेक
महत्वपूर्ण निष्कर्ष प्रस्तुत करता है वजन और आकार का स्थान बौद्धिकता एवं स्फूर्ति
लेती गई है और इसी के साथ यथाकाल एवं देश के अनुसार व्यवहार करने की
कुशलता का विकास हुआ है. विपत्तकाल में अन्तर्निहित शक्ति प्रकट होकर हमारी सहायता
करती और हम यह सोचकर आश्चर्यचकित हो जाते हैं कि यह सब क्योंकर सम्भव हो सका.
इसी प्रकार अन्य प्राणियों से प्रकट होने वाली आत्मरक्षा की शक्ति भी विस्मयकारिणी होती है.
प्रकृति के प्रकोप, झंझा भूचाल प्रलयकारी वर्षा आदि के अवसरों पर लता, पादप तथा
छोटे-छोटे जीव आदि जिस प्रकार अपनी रक्षा करते हुए सुरक्षित बने रहते हैं, उसको
देखकर आश्चर्यचकित हो जाना पड़ता है. अनेकानेक प्रयोगों के बाद प्रकृति ने इन
उपलब्धियों को हमारे लिए सुलभ किया है. उपलब्धियों की वृद्धि में सहयोग प्रदान
करना हमारा कर्तव्य होना चाहिए.
व्यक्तित्व का वैशिष्ट्य अथवा स्वतन्त्र व्यक्तित्व की प्राप्ति मानव यौनि की उपलब्धि
है. मानव अपने विकास का मार्ग निर्धारित ह करने में सर्वथा स्वतन्त्र है, वह अपनी इच्छानुसार
पुरुषार्थ करने में सर्वथा सक्षम है. परन्तु उसका स्वतन्त्र व्यक्तित्व उसके जीवन
का अभिशाप भी बन जाता है, क्योंकि वह अपने को सर्वथा भिन्न एवं अकेला पाता है.
होता यह है कि अन्य व्यक्तियों के व्यक्तित्व वैभिन्न के कारण वह छिन्द्रान्वेशी बन जाता
है और पग-पग पर टकराव का सामना करता है, वह अन्य व्यक्तियों के साथ रहने
में असुविधा और कठिनाई का अनुभव करता है. इस प्रकार स्वतन्त्र व्यक्तित्व प्राप्त
मानव जीवन की सबसे बड़ी समस्या यह है कि जिनके साथ उसे रहना पड़ता है, उनके
साथ उसे रहना नहीं आता है और उनसे वह जब बिछुड़ जाता है, तो उनके अभाव
में दुःखी होता है. आत्मचेतना के वैशिष्ट्य के फलस्वरूप वह दुःखी तो होता ही है,
कभी-कभी विद्रोही भी बन जाता है, यदि वह अपने साथियों, सहयोगियों, परिजन आदि
के साथ सद्भावपूर्वक रहने की कुशलता का सम्पादन कर सके तो वह मानव-जीवन
को सार्थक कर सकता है. संघर्ष और विरोध साध्य तो हो ही नहीं सकते हैं. भिन्नत्व में
अभिन्नत्व की अनुभूति इच्छाशक्ति की श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति है. समस्त धर्मग्रन्थ
विश्व चेतना अथवा अखण्ड चेतना के प्रतीक रूप में अवतारी जन की अवधारणा
करते आए हैं. शत्रुभाव अथवा विपक्षी भाव का तिरोभाव श्रेष्ठ मानव की पहचान है.
वृद्धि और विकास के क्षणों में आत्मतत्व (चेतना) और पदार्थ के मध्य संघर्ष अनिवार्य
है. अतएव जीवन में कष्ट एवं दुःख की अनिवार्यता स्वयंसिद्ध है. महात्मा बुद्ध ने
इसको जीवन का प्रथम श्रेष्ठ सत्यं स्वीकार किया है. शिवाशिव के ज्ञानरूपी वृक्ष के
फलों को प्राप्त करने के लिए मानव अपनी जय (विकास) यात्रा पर अग्रसर होता है,
जीवन-यात्रा में प्राप्त कटुंतिक्त अनुभवों के फलस्वरूप उसकी अन्तर्निहित मानसिक और
आत्मिक शक्तियाँ विकसित होकर क्रियाशील होती हैं. यही जीवन का उद्देश्य और चेतना
का विकास है. हथौड़े की चोटें खाकर पत्थर उपास्य पूर्ति बन जाता है. व्यवहारकुशलता,
संत्यासत्य का विवेक, वाणी की मधुरता, व्यवहार की कोमलता तथा विनयशीलता
विकास के लक्षण हैं विकास के पथ पर अग्रसर व्यक्ति के वचन और कर्म में विशेष
प्रकार के मार्दव का समावेश हो जाता है. इसकी पहचान है मन का सुशीलता की ओर
स्वभावर्तया ढल जाना, भगवान श्री राम ने मुझे अपना लिया, इसकी पहचान बताते हुए
गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है कि “हाँ अपनायो तब जानिहों, जब मन फिरि परिहै.”
परिस्थितियों के दास होने की बजाय हम उनके स्वामी बन जाएं. सत्य, न्याय,
करुणा सहनशीलता आदि उदात्त वृत्तियों जब हमारे व्यक्तित्व की अभिन्न अंग तथा
हमारे व्यवहार की स्थायी प्रेरणा बन जाएं तब हम समझ लें कि हम सही रास्ते
पर जा रहे हैं.
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