अपनी उपेक्षा करना बन्द कीजिए

अपनी उपेक्षा करना बन्द कीजिए

                             अपनी उपेक्षा करना बन्द कीजिए

धुलाई के लिए कोट देते समय उसके कान में किसी की आवाज आई-कोट की
जेबें देख लो, किसी जेब में कुछ रखा न हो “नहीं, इसमें कुछ नहीं हो सकता, मैंने इसे
अभी-अभी सन्दूक में से निकाला है” तर्क देकर उसने अपने मन को झटक दिया अगले
दिन उसको ध्यान आया कि कोट को बक्से से बाहर निकालते समय उसके हाथ में अमुक
कागज था वह कहीं गिर न जाए. इस कारण उसने उस कागज को कोट की सामने वाली
जेब में रख दिया था. समस्त प्रयास करने के बाद भी कागज नहीं मिल सका.
            यह आवाज किसकी थी ? यह आवाज स्वयं उसी की थी जिसे उसके कानों ने नहीं,
उसके मन ने सुना था हम सब उसे सुनते हैं, उसकी उपेक्षा करते हैं और दुःख पाते हैं.
          महान् दार्शनिक सोफोक्लीज के मतानुसार “कोई साक्षी इतना विकट और
इतना शक्तिशाली नहीं है, जितना अपना अन्तःकरण, अपना अन्तर मन” यह वह शक्ति
है, जो हमारे मन-मस्तिष्क का मार्गदर्शन करती है, परन्तु हम उसकी उपेक्षा करते
रहते हैं, मन में अपने भीतर काम करने वाली इस शक्ति को दर्शन की भाषा में
अन्तःकरण और लोक की भाषा में अन्दर की आवाज, भीतरला कहते हैं. जब भी हम
कोई गलत कदम उठाते हैं, अनुचित, लोक विरुद्ध एवं अपने हित के विरुद्ध काम करने
को उद्यत होते हैं. यह हमें सावधान करती है, हमारे मन में एक प्रकार की झिझक पैदा
करती है. हम उसकी उपेक्षा कर देते हैं, जो इसके अनुसार आचरण करते हैं, वे भाग्य-
शाली होते हैं, वे ही सफलता और शक्ति के अधिकारी बनते हैं.
            महात्मा गांधी प्रायः कहा करते थे कि मैं अपनी आत्मा की आवाज के अनुसार
कार्य करता हूँ उनकी सुनिश्चित मान्यता थी कि अन्तर की आवाज कभी गलत नहीं
होती है. “अन्तःकरण के मामले में बहुमत के नियम का कोई स्थान नहीं होता है.”
जैसे वासनाएं देह की वाणी हैं. वैसे ही अन्तःकरण आत्मा की वाणी है. यदि वे एक-
दूसरे का खण्डन करती हैं, तो इसमें आश्चर्य की बात क्या है ? ऐसा करते हुए
महात्माजी ने क्या प्राप्त किया, क्या प्राप्त नहीं किया ? इसे समस्त विश्व जानता है.
एक सामान्य बालक मोहनदास ने विश्वबन्धु बापू का पद प्राप्त कर लिया. जब भारतीय
स्वतन्त्रता का आन्दोलन पूर्ण प्रकर्ष पर था. उस समय चौरी-चौरा में हत्याकाण्ड का
समाचार पाकर गांधीजी ने अन्दर की आवाज के नाम पर आन्दोलन एकदम वापस ले लिया
था. उन्हीं महात्मा गांधी ने सन् 1942 में अंग्रेज भारत छोड़ो, भारतवासी जियो या मरो का
नारा दिया था. कहने की आवश्यकता नहीं है कि भविष्य ने सिद्ध कर दिया कि उनके
उक्त दोनों निर्णय उपयुक्त थे. कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे भीतर से आने वाली
आवाज सदा सही मार्गदर्शन करती है. उसने आपको मार्गदर्शन किया होगा, आपसे कहा
होगा आप अमुक अवसर पर अमुक विषय लें, अमुक प्रकार से परीक्षा की तैयारी करें,
अमुक स्थान पर मेले में तमाशे में, यारवासी में न जाएं. इतना ही नहीं, उसने यह भी
कहा होगा आप अमुक प्रतियोगिता में भाग लें. आप स्वयं विचार कर लें कि आपने
उसके अनुसार क्या किया है और क्या नहीं किया है ?
          भले और बुरे, उचित और अनुचित, ग्राह्य और त्याज्य आदि का निर्णय करने वाली
वृत्ति को हम विवेक कहते हैं. यह विवेक इसी अन्तर ध्वनि की देन है. विचारणीय यह
है कि क्या हम विवेक का सम्यक् उपयोग करते हैं? इसकी उपेक्षा ही वस्तुतः हमारी
असफलताओं के मूल में स्थित रहती है। जीवन की विडम्बना यह है कि हम अनेक
बार असफलता का संत्रास भोगने के उपरान्त भी कुछ भी नहीं सीख पाते हैं. हम वस्तुतः
नरक के कीड़े हैं और नरक में ही रहना जानते हैं और उसी का वरण करते रहते हैं.
भौतिक सुख-सम्बन्धी अनेक वासनाएं तथा आकांक्षाएं हमको प्रत्येक क्षण घेरे
रहती हैं. हम उनकी व्यर्थता जानते हुए भी उनके पीछे दौड़ते रहते हैं. विवेक की महती
शक्ति होते हुए भी हम यह भी तो नहीं करते हैं कि केवल इनी-गिनी वासनाओं की
तृप्ति का विधान करें. हम सबको सन्तुष्ट करना चाहते हैं और ऐसा होना सम्भव हो
ही नहीं सकता, क्योंकि सुख-सुविधा के साधन सीमित हैं. अतएव सुख-सुविधाओं
की तीव्र उत्कंठा के वशीभूत हम न अपना करणीय कर्त्तव्य निर्धारित कर पाते हैं और
न सफलता के द्वार तक पहुँच पाते हैं. निराशा की प्रतिमूर्ति बने हुए संत्रास संकुल,
व्यथित उत्तेजित एवं उपेक्षित जीवन-यापन के लिए अभिशप्त बने रहते हैं. स्मरण रखिए
कि इस दुर्भाग्यपूर्ण नियति के लिए हम सब स्वयं उत्तरदायी हैं. मैथिलीशरण गुप्त के.
कथन- अपना अन्तःकरण आप हैं आचारों के सुविचारों के अनुसार हम स्वयं विचार
करें कि क्या हमने आरम्भ में अपनी सामर्थ्य को दृष्टिगत करके किसी विशेष प्रतियोगिता
में सफलता को अपना लक्ष्य निर्धारित किया था? ऐसा न करके हम अपनी सीमित शक्ति
को इधर-उधर बिखेरते रहे हैं और भाग्य, भगवान एवं समाज की व्यवस्था एवं परीक्षा-
प्रणाली आदि को दोषी ठहराकर मन को समझाते रहे हैं. अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है
हमारे सामने कुछ अवसर शेष हैं. हम अपने अन्तर की आवाज को सुनकर निर्णय करें
और लक्ष्य प्राप्ति के प्रति प्राणपन से प्रयासरत् हो जाएं. महाकवि एवं विचारक कालिदास
के इस कथन से प्रेरणा ग्रहण करें कि “संताहि संदेहपदेषु वस्तुषु प्रमाण-मन्तःकरण
प्रवृत्तम अर्थात् संदेह की दशा में सज्जनों के अन्तःकरण की प्रवृत्ति ही प्रमाण होती है.
           स्वार्थबद्ध होने के कारण हम अपने अन्दर की आवाज की अवहेलना करते रहते
हैं, उसको दबाते रहते हैं. इस प्रक्रिया में वह कुंठित होती रहती है, फिर भी वह मरती नहीं
है. अपनी मंद ध्वनि को हम तक पहुँचाने का प्रयत्न करती रहती है. हमने उसके प्रति
कितनी ही निर्ममतापूर्ण व्यवहार किया हो, परन्तु वह हमारे मार्गदर्शन हेतु सदैव प्रस्तुत
एवं उपलब्ध है. उसके रहते हुए हमें निराश एवं हतोत्साहित होने की आवश्यकता नहीं है.
हम उसके प्रति आश्वस्त हों तथा एकाग्रचित्त होकर उसको सुनने का प्रयत्न करें सुनना
ही अलम् न मान लें, उसके अनुसार आचरण भी करें. आपको सही दिशा में जाने का
संकेत प्राप्त होगा और आपके जीवन की ऋतु बदल जाएगी. अभी तक आप स्वयं की
उपेक्षा करते रहे हैं अपने प्रति विश्वास कीजिए. कस्तूरी मृग की भाँति कस्तूरी की
गंध के स्रोत की खोज में चारों ओर भटकना बंद कीजिए. सुगंध का कोष आपके अन्तर
में स्थित है. गुरुदेव कवीन्द्र रबीन्द्र का यह कथन ध्यातव्य है एक बार अन्तःकरण की
ओर आँख घुमाओ तो सही, सब कुछ समझ में आ जाएगा. “अन्तःकरण दीपक की भाँति
स्वयं को प्रत्यक्ष करता है और अन्य वस्तुओं को भी प्रत्यक्ष करता है.” वास्तविकता यह है
कि अन्तःकरण मानव में परमात्मा की उपस्थिति है-
           विचार कीजिए जो अपनी उपेक्षा करता है, उसकी उपेक्षा अन्य जन क्यों न करेंगे ?

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