अमर ज्योति एकांकी का उधेश्य

अमर ज्योति एकांकी का उधेश्य

                             अमर ज्योति एकांकी का उधेश्य

रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा लिखित ‘अमर ज्योति’ एकांकी में पुरुष-पुंगव मानवता
की अमर ज्योति राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के पूरे जीवन की एक हल्की झलक प्रस्तुत की गई
है। बीसवीं शती को इस महापुरुष ने सबसे अधिक प्रभावित किया है। सत्य, अहिंसा और
सुराज के आजीवन पुजारी बने रहने वाले महात्मा गाँधी के जीवन वृत्त का चित्रण इस एकांकी
में किया गया है, वह इतिहास-सिद्ध है। गाँधी जी के जीवन का नाटकीय स्वरूप देने के लिए
ही इस एकांकी की रचना हुई है। सुदीर्घ गुलामी की स्थिति में, अमानुषिक और बर्वरता की
ऑच में जीने वाले भारतीय लोगों को गाँधीजी ने आदमी की तरह जीने और रहने की जो
शिक्षा दी थी, वह अभूतपूर्व थी। विश्ववंद्य गाँधी जी का भागवत स्वरूप ही आज हमारी
वर्तमान जीवन पद्धति को संवार सका है।
      अमर ज्योति एकांकी का कथानक गाँधीजी के जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त आयामित है।
भारत परतंत्रता, पराभव और विचक्षुति के अंधेरे से घिरा है, चारो ओर घोर तम छाया हुआ
है। स्त्री कठं से पराधीन देश की सारी विवशता ध्वनित होती है। तभी 2 अक्टूबर 1869 ई०
को अमर ज्योति के रूप में गाँधी का जन्म बालक मोहन के रूप में होता है। कालक्रम से
मोहन बढ़ता है, अन्य बच्चों की तरह माँस, सिगरेट और कभी-कभी शराब की लत उसे पड़
जाती है। लेकिन ‘श्रवण कुमार का चरित्र पढ़कर और सत्यहरिश्चन्द्र नाटक देखकर उसकी
मानसिकता बदल जाती है। वह अपने इन कुकर्मों की माफी अपने पिता से माँग लेता है।
        मैट्रिक पास करने के बाद मोहन बैरिस्टरी पढ़ने विलायत गया। तीन वर्षों के बाद अपनी
शिक्षा पूरी करके वे वापस भारत आये। अब वे मोहनदास करमचंद गाँधी बार-एट-लॉ बन
गये थे। प्रथमतः उनकी प्रैक्टिक बम्बई में प्रारम्भ हुई, लेकिन वे वहाँ जम नहीं सके, फिर
राजकोट आये, लेकिन वहाँ भी निराशा ही हाथ लगी। बम्बई निवास के दिनों में ही उनकी
मुलाकात सेट अब्दुल्ला से हुई, जो उन्हें एक वर्ष के लिए दक्षिण अफ्रीका अपने एक केश
की सुनवाई के क्रम में ले जाना चाहता था। एक साल में 105 पौण्ड देने की बात थी, अतः
वे अब्दुल्ला के साथ अफ्रीका चले गये। पहले दिन ही उन्हें कचहरी से मैजिस्ट्रेट ने निकाल
दिया। दूसरे दिन उनके साथ ट्रेन में दुर्व्यवहार किया गया। वे सब कुछ सहते रहते हैं। अफ्रीका
में रह रहे भारतवासियों के साथ अंग्रेजों का व्यवहार अत्यन्त ही अमानुषिक और बर्वर था।
बेनीपुरी ने लिखा है—“उफ, जिन भारतीयों ने इस दुर्गम जंगल को आबादी के योग्य बनाया,
   उन्हीं के लिए कैसे-कैसे बुरे कानून बनाये जा रहे हैं-हर भारतीय तीन पौण्ड का टैक्स दे,
हर भारतीय अपनी दसों ऊंगलियों की छाप देकर अपनी रजिस्ट्री करा ले। हर भारतीय को
अपनी बस्ती की सीमा के अन्दर ही रहना पड़ेगा, गोरों की बस्तियों में घुसना उनके लिए
गुनाह है।” गाँधी के हृदय में तूफान उठ गया। सर्वविध भारतीय साधनहीन और गोरे साधन-सम्पन्न
थे, मुकाबला किया जाए तो कैसे। इसी बीच उन्हें टाल्सटाय की पुस्तक ‘पैसिव रेजिस्टेस’
हाथ लगी, इसके साथ ही उनके आगे का रास्ता साफ हो गया।
       अफ्रीकी प्रवासी भारतीयों में जागरण की नई किरण फूटती है। सत्याग्रह सेना का गठन
किया जाता है। सभी वर्ग और सभी वर्ण के लोग उसमें भाग लेते हैं। अफ्रीका के जेलों में
सत्याग्रहियों के स्त्री-बच्चे सभी ढूँस दिये जाते हैं। जेल में तरह-तरह की यातनाएँ दी जाती
हैं, फिर इन लोगों का मनोबल कमा नहीं। अन्त में तानाशाह स्मट्स को झुकना पड़ा। सत्याग्रह
की शिखा, निर्धूम, निर्विकार जलती रही। गाँधी अमर-ज्योति बनकर जगमगाते रहे।
        आगे चलकर गाँधीजी के व्यक्तित्व में सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह घुल-मिल गया।
रस्किन की पुस्तक ‘अन टू दि लास्ट’ की प्रेरणा से उनमें सर्वोदय की ज्योति जगी। वे शहर
छोड़कर गाँव चले गये। वहाँ एक आश्रम बना। नाम रखा गया ‘टाल्सटाय’ आश्रम। वहाँ अपने
सहयोगियों के साथ वे ऋषि तुल्य जीवन व्यतीत करने लगे।
         अफ्रीका की काली भूमि को जागरण की ज्योति से ज्योतित करके गाँधीजी भारत लौटे।
भारत की जनता ने उन्हें कर्मवीर गाँधी की संज्ञा से सम्बोधित किया। पूना जाकर वे गोखले
से मिलते हैं। गोखले उन्हें भारत भ्रमण करने की सलाह देते हैं। गाँधीजी ने शांति निकेतन,
हरिद्वार इत्यादि जगहों का भ्रमण किया। दोनों जगह उन्हें अपार प्रेम मिला। फिर चम्पारण की
भूमि उनके चरण-रज से धन्य हो उठी। चम्पारण के किसानों पर नीलहों का अनाचार अपनी
अंतिम सीमा पर था। अमर ज्योति गाँधी का पहला प्रकाश वहाँ के अनाचारी गोरों को पराभूत
कर दिया। जनता में आस्था की ज्योति जगी, मन का संत्रास कुछ कम हुआ।
          चम्पारण के बाद गाँधीजी ने अहमदाबाद के श्रमिकों का उद्धार किया। अहमदाबाद
कपड़ा व्यवसाय का प्रमुख केन्द्र है। वहाँ श्रमिकों की दशा अत्यंत दयनीय थी। गाँधीजी एवं
अनुसूइया बहन के नेतृत्व में श्रमिकों की हड़ताल प्रारम्भ हुई। इक्कीस दिनों की लम्बी हड़ताल
के बाद भी उद्योगपति टस से मस नहीं हुए। इधर मजदूरों का धैर्य टूटने लगा। काम नहीं तो
पैसे नहीं का आघात लगा, मजदूर भूखों मरने लगे। गाँधीजी ने भूख हड़ताल प्रारम्भ कर दी ।
सारा अहमदावाद डोल उठा। अंत में श्रमिकों की विजय हुई।
            जिस समय कर्मवीर गाँधी चम्पारण के किसानों का, और अहमदावाद के मजदूरों का
उद्धार करने में लगे थे, उस समय प्रथम विश्व युद्ध चल रहा था। जर्मनी की सेना मित्रराष्ट्रों
को तबाह किये हुए थी गाँधीजी ने संकट में पड़े इंगलैण्ड की मदद करने का उद्घोष किया।
मित्रराष्ट्रों की विजय हुई। जर्मनी हार गई। भारत ने तो अंग्रेजों की मदद की थी, लेकिन उपहार
स्वरूप उसे अंग्रेजों की बर्वरता का दंश झेलना पड़ा। स्वराज्य तो नहीं ही मिला, बदले में
रौलट ऐक्ट की पाशविकता का दंश मिला। पंजाब में एक साथ हिन्दू, मुस्लिम, सिक्खों तीनों
का खून बहा गाँधीजी का भारत छोड़ो आन्दोलन (1942) प्रारम्भ हुआ। इस सत्याग्रह आन्दोलन
से देश में नवीन चेतना का उदय हुआ। सियारामशरण गुप्त ने लिखा है―
                   हिंसा से शान्त नहीं होता हिंसानल
                   जो सबका है, वही हमारा मंगल है।
                  मिला हमें चिर सत्य आज यह नूतन होकर
                  हिंसा का है एक अहिंसा ही प्रत्युत्तर।
 
          देश में चतुर्दिक जागरण की लहर छा गई। स्कूल, कॉलेज, कचहरियाँ एवं अन्य
सरकारी प्रतिष्ठान खाली होने लगे। गाँव-गाँव में घर-घर में स्वराज्य की गूंज उठने लगी।
विदेशी वस्त्र जलाये गये, चरखे का घर -घर प्रत्येक घरों में सुनायी देने लगा। इसी क्रम में
गाँधी जी को छ: वर्षों की सजा हो गई। फिर भी स्वाधीनता की ललक मिटी नहीं गाँधीजी
ने नमक आन्दोलन प्रारंभ किया। नमक कानून तोड़ा गया। बापू गिरफ्तार किये गये। लेकिन
इस क्रम में देश ही नहीं लंदन का सिंहासन भी डाल गया।
        कालक्रम में आन्दोलन चलता रहा। इसी बीच द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ हुआ। अंग्रेजो
ने सहायता की माँग की। लेकिन गाँधी ने शर्त रखी-पहले भारत छोड़ो। अंग्रेजों को यह शर्त
मंजूर नहीं हुई। फिर क्या था, सारा देश ज्वालामुखी बन गया। गाँधीजी के नारे पर सभी ‘डू
एण्ड डाई’―करो या मरो कहते हुए मरने को तत्पर हो गये। 15 अगस्त 1947 ई० को देश
आजाद हुआ। लोहे की जंजीरें आप ही आप टूट पड़ी। गुलामी की अंतिम नरक लीला भी
हमें देखनी पड़ी। देश का विभाजन हुआ। दंगे हुए, मारपीट, खून खराबी, अगलगी, नृशंस
काण्ड, आदि दानवी लीलाएँ हुई। इसी क्रम में गाँधी जी ने शांति यात्राएं की।
         15 अगस्त 1947 ई० को देश स्वाधीन हुआ। गाँधी जी ने विश्व के समक्ष पशुबल की
अपेक्षा जिस सत्य एवं अहिंसा का सिद्धांत रखा था, राष्ट्रवाद का जो उच्च आदर्श रखा था,
उसकी जीत हुई। लेकिन इस घर को घर के चिराग से ही आग लग गयी। 30 जनवरी 1948
ई० की प्रार्थना सभा में उनकी हत्या कर दी गई। धरती विदीर्ण हो उठी, अम्बर का धीरज
टूट गया। सारे संसार में अंधकार छा गया। उस अमर ज्योति का पार्थिव शरीर मिट्टी में मिल
गया लगा कि हिमालय तिरोहित हो गया। वह ज्योति अमर ज्योति में लीन हो गई, किन्तु
उनकी शान्तिदायिनी ज्योति आज भी सारे संसार को प्रेरणा दें रही है। दिनकर ने गाँधी जी
की मृत्यु पर लिखा है―
                      कुम्हल कर के झुक गये कल्पतर के पत्ते
                      हरि के सिहासन की मणि तेजोहीन हुई
                      हो गये मूक परियों के सतत्-मुखर नूपुर
                      सुरपुर में छाया शोक, मौन हो गया विगत
                      इन्द्रारान की चाँदनी अमा की रात हुई।

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