अम्बेडकर और सामाजिक एकता
अम्बेडकर और सामाजिक एकता
अम्बेडकर और सामाजिक एकता
अम्बेडकर एक विचारक, समाज सुधारक और संविधानविद् मात्र नहीं थे वरन् वे एक युग का प्रतिनिधित्व करते थे. भारतीय सामाजिक परम्परा की उनकी समझ, शास्त्रों की आलोचनात्मक जाँच-पड़ताल करते हुए वैज्ञानिक दृष्टि विकसित करने के आधार पर बनी थी. अम्बेडकर सद्विवेक या अन्त प्रज्ञा जैसे किसी आग्रह के समर्थक नहीं थे. उनका मानना था कि भारत में तो शास्त्रों के अन्धानुकरण के आधार पर ही सद्विवेक को परिभाषित किया जाता है, जबकि वह वास्तव में धार्मिक कट्टरता का ही झाडा-पोंछा रूप है,
अम्बेडकर के घटनामय कृतित्व को तीन चरणों में बाँटकर देखा जा सकता है, पहले चरण में उन्होंने आडम्बरों और मिथ्या अवधारणाओं पर आधारित हिन्दू धर्म एवं समाज को सुधारने की मुहिम चलाई दूसरे चरण में उन्होंने तथाकथित अछूत जातियों के लिए एक स्वायत्त राजनीतिक दायरा विकसित करने का प्रयास किया. तीसरे चरण में उन्होंने बौद्ध धर्म को विकल्प के रूप में अपनाने पर बल दिया और रिपब्लिकन पार्टी की स्थापना करते हुए राजनीतिक गतिविधियों का चरित्र बदलने का प्रयास किया.
अम्बेडकर ने जाति-प्रथा को हिन्दू समाज की सबसे बड़ी विकृति माना. उन्होंने इसे सामाजिक एकता में बाधक बताया. जाति-व्यवस्था में उनकी सैद्धान्तिक रुचि और उनकी वैयक्तिक विषमताओं ने उन्हें भारतीय सामाजिक संगठन में जाति-व्यवस्था
की भूमिका पर विमर्श करने के लिए प्रेरित किया जाति-व्यवस्था पर उनके विचार मुख्य रूप से उनके शोध-पत्र “कास्टस इन इण्डिया-देअर मेकेनिज्म, जेनिसिस एण्ड डेवलपमेण्ट” में प्राप्त होते हैं. यह शोध-पत्र उनके द्वारा सन् 1916 ई. में कोलम्बिया विश्वविद्यालय में प्रस्तुत किया गया था.
अम्बेडकर अपना विश्लेषण एक विरोधाभास (पैराडॉक्स) से प्रारम्भ करते हैं, उनका कहना है कि मौलिक रूप से भारतीय सभ्यता विजातीय एवं बहिर्विवाह (इक्सोगेम्स) पर आधारित थी. कालान्तर में इससे जाति-प्रथा का आविर्भाव हुआ जो सजातीय विवाह (इण्डोगेमी) पर आधारित थी. उनका मानना था कि मूल रूप से वर्गों या वर्णों का अस्तित्व था जो कर्मप्रधान थे बाद में इन्होंने जातियों का रूप ले लिया जो जन्म प्रधान थी. जाति एक बन्द समाज है यह समाज का जड़ तत्व है. व्यक्ति की जाति में कभी कोई परिवर्तन नहीं हो सकता. जाति एक घेराबद्ध (इनक्लोज्ड) वर्ग है. अम्बेडकर का प्रतिपादन है कि ऐतिहासिक विकास के क्रम में जो वर्ग या वर्ण सर्वाधिक प्रबुद्ध था और वर्ण के पद-सोपान में भी सबसे ऊँचा माना जाता था अर्थात् ब्राह्मणों ने सबसे पहले सजातीय विवाह प्रणाली को अपनाया. बाद में अन्य वर्गों ने ब्राह्मणों का अनुसरण किया.
इस बिन्दु पर अम्बेडकर ने दो प्रश्न उठाए हैं, पहला यह कि एक जाति के रूप में ब्राह्मणों ने अपने को सीमित क्यों कर लिया और दूसरा यह कि वर्ग या वर्ण- व्यवस्था के जाति-व्यवस्था में परिवर्तन का हिन्दू समाज के लिए क्या परिणाम हुआ? पहले प्रश्न के उत्तर में अम्बेडकर का कहना है कि कर्मकाण्ड और बौद्धिक क्षमता पर एकाधिकार बनाए रहने के उद्देश्य से ब्राह्मणों ने अपने को एक जाति में सीमित कर लिया.
दूसरे प्रश्न के उत्तर में अम्बेडकर का मानना है कि जाति-व्यवस्था के उद्भव ने ‘अवशेष पुरुष’ (सरप्लस मैन) और ‘अवशेष महिला’ (सरप्लस वुमैन) की अवधारणा को जन्म दिया. इस समस्या का निदान सतीप्रथा, बलात विधवा-प्रथा. विधुर का विवाह न होना और विवाह के लिए अयोग्य कन्या से विधुर के विवाह आदि के रूप में निकाला गया.
अम्बेडकर के विचार में जाति और जाति-व्यवस्था हिन्दू समाज का सबसे खतरनाक लक्षण है. अम्बेडकर का मानना है कि इसके दुष्प्रभाव को रोकने का उपाय अन्तर्जातीय विवाह या जातियों के मध्य खानपान नहीं, वरन् उन धार्मिक आधारों को ध्वस्त करना है जिन पर जाति-व्यवस्था आधारित है. कांग्रेस को चुनौती देते हुए एक बार अम्बेडकर ने कहा, “………..क्या आप राजनीतिक सत्ता की प्राप्ति हेतु अपने को उपयुक्त समझते हैं, जबकि जनसंख्या के एक बड़े भाग को आप सार्वजनिक विद्यालयों में प्रवेश नहीं लेने देते…….”
अम्बेडकर का मानना है कि 19वीं शताब्दी के धार्मिक सामाजिक सुधारकों ने केवल सतही स्तर पर सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में सुधार लाने का प्रयास किया. उन्होंने सभी बुराइयों की जड़ जाति-व्यवस्था पर कोई आक्रमण नहीं किया, जो समाज को भीतर से खोखला कर रही है.
अम्बेडकर ने जाति-व्यवस्था के समर्थकों द्वारा दिए गए तों का गम्भीरता से परीक्षण किया है. इनमें से दो तर्कों का किंचित विस्तार से परीक्षण युक्तिसंगत होगा. जाति-व्यवस्था के समर्थकों द्वारा पहला तर्क यह दिया जाता है कि जाति-व्यवस्था द्वारा श्रम का विभाजन किया जाता है. यह एक प्रकार्यात्मक विभाजन है, जो समाज के लिए अति आवश्यक है. अम्बेडकर का तर्क है कि यह श्रम का नहीं, वरन् श्रमिक का पद- सोपानिक विभाजन है. इसके अतिरिक्त यह व्यक्तियों को उनकी क्षमता के अनुसार नहीं, वरन् उनके जन्म और परिवार की स्थिति के आधार पर कार्य का आवण्टन करता है.
जाति के समर्थकों का दूसरा तर्क जैविक (बॉयोलॉजिकल) है. उनका कहना है कि जाति पर आधारित व्यवस्था में प्रजातीय शुद्धता (प्योरिटी ऑफ रेस) पाई जाती है. जाति रक्तीय शुद्धता और प्रजातीय शुद्धता सुनिश्चित करती है. अम्बेडकर ने इस तर्क का उपहास किया है और प्रतिपादित किया है कि सामाजिक मानवशास्त्रियों ने पहले ही यह प्रमाणित कर दिया है कि रक्त और प्रजाति की शुद्धता की अवधारणा एक कपोल-कल्पना मात्र है. अम्बेडकर यह भी प्रश्न करते हैं कि रक्त और प्रजाति के मिश्रण से हानि क्या है? अम्बेडकर यह भी कहते हैं कि ‘हिन्दू’ शब्द भी विदेशी उत्पत्ति
का है. मुस्लिमों ने इस शब्द का प्रयोग उन मनुष्यों के लिए किया है, जो उनके द्वारा विजित क्षेत्र के निवासी हैं. अम्बेडकर यह भी कहते हैं कि अनेक अवसरों पर हिन्दुओं ने अपनी जाति के हित में देश के साथ घात किया है.
अम्बेडकर एक धार्मिक क्रान्ति का आह्वान करते हैं जो उनकी दृष्टि में सामाजिक क्रान्ति की पूर्व-वाहिका है और सामाजिक क्रान्ति राजनीतिक क्रान्ति की पूर्व-शर्त है. अम्बेडकर की दृष्टि में जाति-व्यवस्था को नष्ट करना ही धार्मिक क्रान्ति है. प्रश्न है कि इस क्रान्ति का नेतृत्व कौन करे? अम्बेडकर का फिर वही उत्तर है कि समाज के सबसे बड़े बौद्धिक वर्ग-द्राह्मण वर्ग को इस कार्य में नेतृत्व प्रदान करना चाहिए.
अम्बेडकर का मानना है कि हिन्दू धर्म नियमों और परम्पराओं का समूह मात्र है इसका व्यक्ति को नैतिक बनाने से कोई सम्बन्ध नहीं है. इस प्रकार के नियम- आधारित धर्म का व्यक्ति के नैतिक विकास से कोई सम्बन्ध नहीं है.
अम्बेडकर का मानना था कि अस्पृश्यता की समस्या की जड़ जाति-व्यवस्था में है और इसका निराकरण धर्म पर आधारित जाति-व्यवस्था को समाप्त करके किया जा सकता है. गांधीजी इस कार्य को मनुष्य के हृदय में परिवर्तन लाकर करने की बात करते है, जबकि वामपंथियों के अनुसार इसकी जड़ आर्थिक स्थिति में है और इसका निराकरण समाजवादी अर्थव्यवस्था लागू करके किया जा सकता है.
अम्बेडकर मानते हैं कि आदर्श सामाजिक व्यवस्था स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व पर आधारित होनी चाहिए. उनका यह दृढ विश्वास है कि यदि हम सामाजिक जीवन में लोकतन्त्र की स्थापना नहीं कर पाते, तो राजनीतिक जीवन में लोकतन्त्र ज्यादा दिनों तक नहीं टिका रह सकता. यहाँ अम्बेडकर के विचार बिटिश विचारक लास्की से मेल खाते हैं जिनका मानना है कि सामाजिक और आर्थिक लोकतन्त्र के अभाव में राजनीतिक लोकतन्त्र मृग-मरीचिका मात्र है. अम्बेडकर की दृष्टि में मनुष्यों में समानता केवल राजनीतिक समानता से सार्थक नहीं बनाई जा सकती. जब तक सामाजिक और आर्थिक समानता की स्थापना नहीं हो जाती, तब तक समानता अधूरी रहेगी.
भारतीय संविधान का प्रारूप प्रस्तुत करते समय अम्बेडकर ने सविधान सभा में कहा था, “इस संविधान को अपनाकर हम विरोधाभासों से भरे जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं. इससे राजनीतिक जीवन में तो समानता प्राप्त हो जाएगी, परन्तु सामाजिक और आर्थिक विषमता बनी रहेगी. राजनीति के क्षेत्र में तो हम एक व्यक्ति, एक वोट, एक मूल्य के सिद्धान्त को मान्यता प्रदान कर देंगे, परन्तु हमारा सामाजिक और आर्थिक ढाँचा इस ढंग से नहीं बदल जाएगा. जिससे ‘एक व्यक्ति, एक मूल्य के सिद्धान्त को सार्थक किया जा सके.” दूसरे शब्दों में समानता का सिद्धान्त सच्चे अर्थों में तभी सार्थक होगा जब मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति की समान नैतिक मूल्य को साकार किया जा सके. ” अम्बेडकर ने इस स्थिति पर चिन्ता प्रकट करते हुए यह प्रश्न उठाया था, “हम कब तक विरोधाभासों से भरा जीवन जीते रहेंगे? हम कब तक
सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को अपनाने से इनकार करते रहेंगे.”
अम्बेडकर ने स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया है कि ‘उत्पीडित समूह को अपने भीतर से नेतृत्व पैदा करना चाहिए. किसी अन्य समूह की सहानुभूति या नेतृत्व के सहारे उसे अपने उत्थान की आशा नहीं करनी चाहिए.
अछूतों के लिए अलग दायरा विकसित करने के लिए अम्बेडकर ने कई प्रयोग किए सन् 1919 ई. में साऊथवरो समिति के सामने अछूतों के लिए पृथक् निर्वाचक मण्डल (सेपरेट इलेक्टेरोट) की मांग रखी. यही वह क्षण था जब आधुनिक भारतीय राजनीति में इन के हितों को सुरक्षित करने का आन्दोलन शुरू हुआ जो किसी न किसी रूप में आज भी जारी है. सन् 1932 ई. में आयोजित द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में पृथक निर्वाचक मण्डल के प्रश्न पर, अम्बेडकर ने गांधीजी से जमकर लोहा लिया.
गांधीजी मुस्लिमों तथा सिखों के लिए अलग निर्वाचक मण्डल हेतु सहमत थे, परन्तु अघूतों के सन्दर्भ में यह व्यवस्था अपनाने हेतु वे असहमत थे. उनका मानना था कि ऐसा होने से हिन्दू समुदाय में विभाजन हो जाएगा. अभय कुमार दुबे के शब्दों में “………..अंग्रेजों ने जैसे ही अम्बेडकर की बात मानी गांधीजी ने पुणे की यर्वदा जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया. गांधीजी की मृत्यु के अंदेशे और प्रतिक्रियास्वरूप अछूतों के खिलाफ हिंसा फूट पड़ने के डर से अम्बेडकर ने अपनी माँग वापस कर ली. बाद में उन्होंने इस उपवास को गांधीजी का हथकण्डा करार दिया जिसका मकसद अछूतों को उनके राजनीतिक अधिकारों से वचित करना था.”
अम्बेडकर ने राजनीतिक बहुमत और साम्प्रदायिक बहुमत के मध्य अन्तर किया है और यह प्रतिपादित किया है कि राजनीतिक बहुमत का सदस्य राजनीतिक कार्रवाई में अपना योगदान करने को अपेक्षाकृत स्वतन्त्र होता है, परन्तु साम्प्रदायिक बहुमत का सदस्य केवल वही कार्रवाई कर सकता है जो उस सम्प्रदाय विशेष में जन्म लेने के कारण उसके लिए निर्धारित होती है अम्बेडकर के अनुसार, भारत की जाति- प्रणाली सामाजिक एकता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है. यहाँ यह सम्भावना है कि अल्पसंख्यक समुदाय लगातार कमजोर राजनीतिक स्थिति में रहे. इस प्रकार निम्न श्रेणी की जातियों को शक्ति के प्रयोग में अपना हिस्सा कभी नहीं मिल पाएगा.
कुल मिलाकर बाबा साहब पद्दलित लोगों और सामाजिक एकता के प्रति समर्पित एक विद्रोही नेता थे. वे मानव मुक्ति के एक सशक्त योद्धा थे. उन्होंने सामाजिक एकता की धारणा को एक नया रूप दिया. वे स्वयं सामाजिक एकता के अग्रदूत थे. उन्होंने सामाजिक विषमता का अनुभव किया, उसकी पीड़ाओं को भोगा और साहसपूर्वक डट कर उसका सामना किया.
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