अर्थ-परिवर्तन की दिशाएँ :

अर्थ-परिवर्तन की दिशाएँ :

                      अर्थ-परिवर्तन की दिशाएँ :

भाषा और अर्थ का अभिन्न संबंध होता है। इसकी अभिन्नता महाकवि कालिदास ने ‘वागर्थाविव संपृक्तौ
वागर्थ प्रतिपत्तये’, कहकर प्रमाणित कर दी है। स्पष्ट है शब्द और अर्थ एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। वही अर्थ उस शब्द का प्राण सार होता है। परंतु उसमें धीरे-धीरे विकास या परिवर्तन होता रहता है । ‘गँवारू’ का शाब्दिक अर्थ है-गाँव का रहने वाला, परंतु आज उसका प्रचलित अर्थ असभ्य या असंस्कृत है। इस परिवर्तन का कारण यह है कि गाँव के अधिक तर लोग असभ्य या असंस्कृत और अशिक्षित होते हैं। अर्थ-प्रकाशन की प्रवृत्ति के आधार पर शब्दार्थ कभी सांकेतिक हो जाता है। इस परिवर्तन या विकास की दशा एक ही नहीं है । कुछ शब्द पहले संकुचित अर्थ रखने वाले थे और विकास के बाद उनके अर्थ का विस्तार हो गया। कुछ शब्द ऐसे भी है जिनके अर्थ और भी संकुचित हो गये हैं। यही विकास की विभिन्न दिशाएँ हैं। अर्थ-परिवर्तन की दिशाएँ-
 
अर्थ-परिवर्तन की मुख्यतः तीन दिशाएँ होती हैं:
 
1. अर्थ-विस्तार
 
2. अर्थ-संकोच
 
3. अर्थादेश
 
1. अर्थ-विस्तार-इसमें शब्द का अर्थ अपने सीमित क्षेत्र से निकलकर विस्तार को प्राप्त होता है । वस्तुओं के नाम सदैव उपाधियों और गुणों के आधार पर ही रखे जाते हैं। बाद में उनका रूढ़ और संकुचित अर्थ ही रह जाता है। ऐसी स्थिति में आवश्यकता पड़ने पर नाम विशेष से सामान्य की ओर चला जाता है । उदाहरणार्थ ‘स्याही’ शब्द का मूल अर्थ है काली । पर अब उसका अर्थ रूढ़ हो गया है। किसी भी प्रकार की लिखने वाली स्याही-जैसे
हम कहते हैं-काली स्याही, लाल स्याही, नीली स्याही आदि। अब यहाँ स्याही विशेष अर्थ में सामान्य अर्थ की ओर बढ़ गयी है।
 
‘तैल’ शब्द का भी अर्थ-विस्तार हो गया है। पहले तैल शब्द का अर्थ ‘तिल’ का सार होता था। आज
उसका इतना विस्तार हो गया है कि अब केवल सरसों, मूंगफली या नारियल के तेल को ही ‘तैल’ नहीं बोलते बल्कि मिट्टी का तेल, मछली का तैल-सब कहते हैं। यह शब्द मुहावरे के रूप में भी प्रयुक्त होने लगा है जैसे-काम करते-करते तो आज शरीर से तेल निकलने लगा।
 
कई बार व्यक्तिवाचक नाम भी अपनी विशेषता के कारण अर्थ-विस्तार कर लेते हैं। जैसे-गंगा एक नदी
विशेष का नाम है पर आज यह भारत की किसी भी पवित्र नदी के रूप में जाना जा सकता है । ‘उत्तराखंड’ में इसी कारण बीसों गंगाएँ बहती हैं। ‘फिरंगी’ शब्द इसका एक अच्छा उदाहरण है। पूर्व में यह शब्द पुर्तगाली डाकू के प्रयुक्त होता था किंतु अब यही शब्द सारे यूरोपियन मात्र का बोधक हो गया है
 
कई बार अत्यंत महत्त्वपूर्ण व्यक्तिवाचक भी जातिवाचक बनकर अपने अर्थ का विस्तार कर लेते हैं।
जैसे-“यहाँ तो कई-कई कालिदास बैठे हैं” या “भारत को अभी कई-कई गाँधी चाहियें ।”
 
आलंकारिक प्रयोगों में तो यह अर्थ-विस्तार बहुत अधिक होता है। जैसे-सीधा पथ, सीधा वचन, सीधा मन, फल खाना, भय खाना, घुसे खाना आदि इसके उदाहरण हैं।
 
इस प्रकार अर्थ-विस्तार के उदाहरण अधिकतर उपचार की क्रिया के अंतर्गत आते हैं; अर्थात ज्ञात से अज्ञात अर्थ की व्याख्या करना । पत्र, गोसाईं, गवेषणा और ‘जयचंद’ जैसे शब्दों का भी अर्थ विस्तार हुआ है।
 
यों भाषा में अर्थ-विस्तार के उदाहरण बहुत अधिक नहीं मिलते हैं; क्योंकि भाषा में ज्यों-ज्यों विकास होता है, उसमें सूक्ष्म से सूक्ष्म और सीमित से सीमित वस्तुओं और भावनाओं के प्रकटीकरण की शक्ति आती जाती है ।
‘टकर’ नामक भाषाविद् तो यथार्थतः अर्थ-विस्तार को इसीलिये मानते भी नहीं। परंतु ऐसा नहीं है। यह कम होता है और जो होता है, वह शुद्ध अर्थ-विस्तार है।
 
2. अर्थ-संकोच-भाषा के विकास में ‘अर्थ-संकोच’ का बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। भाषा के
“आरंभिक काल में सभी शब्द सामान्य रहे, परंतु सभ्यता के विकास के साथ-साथ विशिष्ट भावना आती गई और अर्थ-संकोच होता गया। भाव यह है कि भाषा में अर्थ-संकोच तब होता है जब कोई शब्दार्थ सामान्य अर्थ का द्योतक न होकर किसी विशिष्ट अर्थ के घेरे में बँध जाए। ब्रेअल ने लिखा है कि जाति और देश जितना अधिक सभ्य और उन्नत होगा, उसकी भाषा में उतना ही अर्थ-संकोच होगा, क्योंकि यह विकासवाद के सिद्धांत के अनुकूल पड़ता है। उदाहरणार्थ, पहले संस्कृत में ‘मृग’ शब्द का प्रयोग जानवर मात्र के लिये होता था परंतु अब हिन्दी में ‘हिरण्य विशेष के लिये ही इसका प्रयोग होता है।
 
फारसी में ‘मुर्गा’ शब्द का अर्थ पक्षी मात्र के लिये होता है परंतु बंगला और हिन्दी में मुर्ग पक्षी विशेष के अर्थ का बोधक है।
 
प्रायः व्यापारी और व्यवसायी सामान्य और यौगिक शब्द से ही अपना काम लेते हैं। किंतु उसके बाद उसका अर्थ संकुचित हो जाता है। ‘खोलाई’ या ‘भराई’ शब्द जब चित्रकार के मुख से निकले तो दूसरा अर्थ देंगे। वैसे ‘गोली’ सामान्य है परंतु इसी को स्याही की गोली, वैद्य की गोली, या दर्द की गोली के साथ कर दिया जाय तो प्रत्येक स्थान पर उसका विशिष्ट अर्थ हो जायगा। इसी प्रकार धान्य, रत्न, अन्न आदि शब्दों का भी अर्थ-संकोच हो गया है। पहले प्रायः सभी शब्द सामान्य होते हैं। बाद में संकोच के बढ़ते-बढ़ते वे विशेष और रूढ़ हो जाते हैं।
 
भाषा के विकास में प्रायः सभी शब्द सामान्य ही रहे होंगे। सभ्यता के विकास के साथ इसमें विशिष्टता आती गयी होगी और शब्दों के अर्थ में संकोच होता गया होगा। ब्रील जैसे भाषाविद् इसलिये कहते हैं कि राष्ट्र या जाति जितनी ही अधिक विकसित होगी, उनकी भाषा में अर्थ-संकोच के उदाहरण उतने ही अधिक मिलेंगें। अर्थ-संकोच के कारण किसी शब्द का प्रयोग सामान्य या विस्तृत से हट कर विशिष्ट या सीमित अर्थ में होने लगता है । यहाँ यह ध्यातव्य है कि शब्दों का अर्थ धीरे-धीरे समय के बीतने के साथ परिवर्तित होते-होते तो संकुचित होता ही है । उपसर्ग, जैसे-आधार, सदाचार, दुराचार आदि, प्रत्यय, जैसे- बाग से बगीचा, विशेषण, जैसे अम्बर से नीलाम्बर, पीताम्बर, श्वेताम्बर; समास, जैसे-रामानुज और कृष्णानुज; संदर्भ या प्रसंग, जैसे-रति और खाने-पीने के प्रसंग में ‘रस’ शब्द; परिभाषीकरण समीकरण; काव्य शास्त्र में ‘रस’; आदि।
 
3. अर्थादेश-भाव-साहचर्य के कारण कभी-कभी किसी शब्द के प्रधान अर्थ के साथ गौण अर्थ भी चलने लगता है; किंतु कुछ ही दिनों के बाद प्रधान अर्थ का धीरे-धीरे लोप हो जाता है और उस शब्द का गौण अर्थ ही प्रयुक्त होने लगता है। इस प्रकार एक अर्थ लुप्त होने और उसके साथ दूसरे अर्थ के आ जाने को अर्थादेश कहते हैं। उदाहरणार्थ ‘दुहित’ शब्द का अर्थ पहले ‘दुहने वाली’ स्रोता था परंतु अब इसका अर्थ ‘कन्या’ प्रचलित हो गया है। इसी प्रकार संस्कृत में ‘बाटिका’ शब्द बाड़ी का अर्थ होता है; परंतु बंगला में वही शब्द घर के लिये प्रयुक्त होता है। पहले मुनि लोग ही मौन रखते थे। उनके विशुद्ध आचरण के लिये इस शब्द का प्रयोग होता था। धीरे-धीरे मौन शब्द का अर्थ चुप्पी के लिये होने लगा। आज भी साधारण अर्थ में हम चुप्पी शब्द का प्रयोग करते हैं।
 
अर्थ के अच्छे और बुरे भाव की दृष्टि से अर्थ-परिवर्तन की (अर्थादेश) दो दिशाएँ होती हैं-
 
1. अर्थापकर्ष और 2. अर्थोत्कर्ष
 
1. अर्थापकर्ष-वे शब्द जो पहले अच्छे अर्थ में प्रयुक्त होते थे, कुछ कारणवश धीरे-धीरे उनमें बुरे अर्थ आने लगते हैं। बाद में वह बुरे अर्थ उनके मुख्यार्थ हो जाते हैं। ऐसे शब्दों के अर्थ अपकर्ष को प्राप्त करते हैं । अर्थापकर्ष प्रायः तभी होता है जब संस्कृत शब्द का तद्भव या अर्धतद्भव रूप धारणा करते हैं। उदाहरणार्थ पहले सत् और असत् का अर्थ विद्यमान और अविद्यमान होता था, परंतु अब उनका अर्थ भले, बुरे या झूठ-सच के साथ हो गया है। अतिशयोक्ति के कारण प्रायः शब्दों का जोर कम हो जाता है। सर्वनाश, निर्जीव, विराट और प्रलयंकारी जैसे शब्दों का सामान्य अर्थ लिया जाता है। जाहिर है इनका सच्चा बल नष्ट हो जाता है।
 
जिन अर्थों और भावों को समाज गोपनीय समझता है, उनको प्रकट करने वाले शब्द भी अपना प्रभाव और गौरव खो बैठते हैं। संस्कृत का शब्द सहवास, प्रसंग और समागम आदि कामशास्त्र के विशेष शब्द है । गाभिन, थन, यारी, और दोस्ती आदि हिन्दी में असभ्य शब्द हैं।
 
इसी प्रकार ‘महाराज’ और ‘महाजन’ शब्दों का भी अपकर्ष हो चुका है। ये शब्द पेशे के लिये आने लगे हैं, जो जरा ऊँचे से नीचे आ गए हैं।
 
जिस प्रकार एक राज्य बदलने से भाषा में परिवर्तन होता है, उसी प्रकार शब्द का दूसरी भाषा में आने पर कभी-कभी अर्थ भ्रष्ट हो जाता है। जैसे फारसी का ‘खैरख्वाह’ शब्द हिन्दी में कुछ नीच वृत्ति को प्रकट करता है। ‘चालाक’ शब्द का भाव भी कुछ खोटा ही प्रतीत होता है।
 
सतत प्रयोग करने से भी कुछ शब्दों की अर्थ-शक्ति कम हो जाती है जिससे उनके अर्थ का अपकर्ष होता है। ‘बाबू’ से बाबूगिरी शब्द हल्का अर्थ देता है। ऐसे ही अंग्रेजी का मिस्टर, हिन्दी का श्रीमान् शब्द हास्यास्पद-सा बन गया है। ‘पाखंड’ शब्द का आज का रूप बड़े अपकर्ष को प्राप्त हो गया है। आज का इसका अर्थ नीच, कपटी और ढोंगी के लिये होता है। पहले अशोक ने उन साधुओं के प्रति पाखंडी शब्द का प्रयोग किया था, जो बौद्ध नहीं थे। हिन्दी और गुजराती में भी इस शब्द का अर्थ नीच वृत्ति वाला ही है।
 
2. अर्थोत्कर्ष-यह अर्थापकर्ष के ठीक प्रतिकूल दिशा है। जिस प्रकार जीवन में उत्कर्ष के प्रसंग विरल ही होते हैं उसी प्रकार भाषा-भण्डार में भी उत्कर्ष के उदाहरण कम पाये जाते हैं। शब्दों में परिवर्तन होकर पहले से भी अधिक अच्छे अर्थ को ग्रहण करना अर्थोत्कर्ष कहलाता है। उदाहरण के रूप में ‘साहसी’ और ‘मुग्ध’ शब्द के अर्थ का उत्कर्ष हुआ है। संस्कृत में साहसी का अर्थ चोर, डाकू, हत्यारा, व्यभिचारी और झूठे व्यक्ति के लिये प्रयुक्त होता था, परंतु अब हिन्दी में साहसी का अत्यंत ऊँचा और सराहनीय अर्थ होता है। कपड़ा शब्द में भी अथोत्कर्ष हुआ है। पहले संस्कृत में ‘कर्पट’ जीर्ण-श्रीर्ण वस्त्र के लिये प्रयुक्त होता था परंतु अब यह अच्छे और सुंदर कपड़े के अर्थ में प्रयुक्त होता है। संस्कृत में ही ‘मुग्ध’ शब्द ‘मूढ़’ के अर्थ में प्रयुक्त होता था पर आज नहीं। ‘मोहित’ के अर्थ में इसमें एक चमक आ गयी है।
 
इन दिशाओं के अतिरिक्त और भी बहुत सी दिशाएँ है जिनमें अर्थ-परिवर्तन होता है। कुछ दिशाएँ यों हैं-
 
1. अर्थापदेश-कई बार अप्रिय, अशुभ, भयानीक, भी और अमंगलसूचक बातों को सम्य शब्दों में व्यक्त किया जाता है जिससे दोष कम हो जाता है। प्रयोग होते-होते वे शब्द परस्पर इतने घुल-मिल जाते हैं कि एक जैसे प्रतीत होने लगते हैं। ‘माता’ शब्द सामान्यतः ‘माँ’ के लिये प्रयुक्त होता है परंतु चेचक के लिये भी ‘माता’ शब्द का प्रयोग होता है। इसी प्रकार शीतला महारानी की दया या माता देवी का कोप हो गया है।
 
‘विधवा होना’ न कहकर ‘सिंदूर पुंछ गया’ ‘चूड़ी टूटना’ तथा ‘सिंदूर लुटना’ ऐसे ही हैं। माननीय व्यक्ति
कि मृत्यु पर भी स्वर्गवास होना, परलोक सिधारना, गुजरजाना, पूरे होना आदि प्रयोग होता है।
 
2. अर्थ का मूर्तिकरण और अमूर्तिकरण-कभी-कभी अमूर्त अर्थ मूर्त होकर आता है और कभी मूर्त
अमूर्त होकर । तात्पर्य यह है कि वह शब्द क्रिया, गुण अथवा भाव का बोधक न होकर किसी द्रव्य का वाचक हो जाता है और कभी इसके विपरीत मूर्त का अमूर्त । पहले ‘संतति’ शब्द सिलसिले के अर्थ में अमूर्त शब्द था किंतु अब यह मूर्त होकर संतान के अर्थ में प्रयुक्त होता है । मीठा और नमकीन पहले भाववाचक संज्ञा थे परंतु अब इसका मूर्तिकरण मिठाइयों में हुआ है। ऐसे ही पहले प्रकार के उदाहरणों में ‘देवता’ और ‘जनता’ शब्द हैं। ये पहले भावनावाचक थे और अमूर्त अर्थ की अभिव्यक्ति करते थे। अब इनका देव + ता, जन + ता होने से मूर्त हो गया है।
 
दूसरे प्रकार के उदाहरण में पहले ‘कलेजा’ मूर्त रूप देता था, अब भी देता है। परंतु इस वाक्य में देखें:
“स्वाभिमान की रक्षा ऐसे नहीं होती, इसके लिये गजभर का कलेजा आवश्यक है।” यहाँ कलेजा साहस का अर्थ बोधक हो गया है।
 
इसी तरह ‘अंकुश’ मूर्त शब्द है, परंतु इस वाक्य में बच्चों पर थोड़े अंकुश की आवश्यकता है” इसका अमूर्त रूप हैं। ‘रोटी’ शब्द मूर्त रूप होते हुए भी आजीविका का अर्थ देता है। अर्थ का मूर्तिकरण और
अमूर्तिकरण ऐसे ही होता है।
 
3. अर्थ-भेद-कभी-कभी किसी शब्द का अर्थ अकारण परिवर्तित हो जाता है। उनके परिवर्तन में अमूर्त-मूर्त्त और विस्तार-संकुचन का कोई कारण नहीं होता। उदाहरणार्थ ‘धर्म्य’ संस्कृत का शब्द है जो हिन्दी का तद्भव रूप का घाम बनता है परंतु बंगला में इसका अर्थ पीसने के लिये है और संस्कृत में धूप के लिये प्रयुक्त होता है।
 
4. अनेकार्थता-एक ही शब्द प्रसंगानुसार विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता है। जैसे ‘स्त्री’ शब्द पत्नी, सामान्य अर्थ में ‘नारी’ तथा कपड़े पर लोहा करने को कहते हैं। घर शब्द गाँव में कच्चे घर के अर्थ में प्रयुक्त होता है, पतु अब ‘इस मकान में चार घर (परिवार) रहते हैं, भी होता है। भारतवर्ष’ हमारा घर है आदि भी ऐसा ही प्रयोग है ।
 
5. रूपक-कुछ शब्दों में कई बार रूपक से काम लिया जाता है जैसे-‘वह तो पंजाब का सिंह है’, ‘तुम गधे हो, वह डाकिन है आदि ।’ ‘आज मुख कमल मुरझाया क्यों हैं’ आदि रूपक से ही अर्थपरिवर्तित होने का उदाहरण है ।
 
इस प्रकार अर्थ-परिवर्तन की ये ही कई दिशाएँ हैं। परंतु प्रोफेसर ‘हिटने ने अर्थ-परिवर्तन की सभी दिशाएँ साधारणीकरण और असाधारणीकरण अर्थात सामान्य और विशेष के रूप में स्थिर किया है और कुछ उपचार (ज्ञातसे अज्ञात की व्याख्या) के अंतर्गत आ जाती है, जिससे भाषा-भांडार भरकर समृद्ध होता है।

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