अर्थ-परिवर्तन के कारण :

अर्थ-परिवर्तन के कारण :

                        अर्थ-परिवर्तन के कारण :

मनुष्य की मनः स्थिति में सदैव परिवर्तन होता रहता है, जिसके फलस्वरूप उसके विचार भी एक-से नहीं रह पाते । भाषा विचारों की वाहिका होती है। उसे भी विचारों का साथ देना होता है। इस साथ देने के प्रयास में ही उसके शब्दों में अर्थ-परिवर्तन होता रहता है । शब्दार्थ विकसित और परिवर्तित होते रहते हैं। यह परिवर्तन इतनी धीमी गति से होता है कि कालांतर में उसका स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित हो जाता है। सो, परिवर्तन स्वाभाविक है वास्तव में शब्दार्थ-परिवर्तन नदी की स्थायी धारा है, जो सतत बहती है, गतिशील रहती है। यह शब्दार्थ परिवर्तन कई कारणों से होता है:-
 
1. बल-प्रयोग तथा बल का अपसरण हैं-किसी शब्द के उच्चारण में जब एक शब्द पर हम जोर देते
हैं, तो दूसरी समकक्ष ध्वनियाँ कमजोर पड़ जाती हैं। इसी प्रकार अर्थ में बल-प्रधान पक्ष से हटकर कमजोर पक्ष पर पड़ जाता है। ‘गोस्वामी’ शब्द पहले गायों के स्वामी के लिये प्रयुक्त होता था परंतु अब उससे हटकर मानवीय धार्मिक व्यक्ति के लिये हो गया है। यहीं एक और भावना भी कार्य करने लगी। वह यह कि जो अधिक गायों की सेवा करेगा, जो धर्मपरक भावना रखेगा, वही गोस्वामी कहलाएगा। इस तरह अपसरण द्वारा गोस्वामी शब्द ‘गायों के स्वामी’ से माननीय, धार्मिक आदि के रूप में प्रयुक्त होने लगा ऐसे ही अरबी शब्द ‘गुलाम’ और अंग्रेजी शब्द नेव में बल-अपसरण हुआ है। पहले इसका अर्थ ‘लड़के’ के रूप में लिया जाता था परंतु अब अपकर्षित होकर गुलाम, अर्थात् दास या सेवक के रूप में व्यवहत होने लगा है। ऐसे ड्रेस का प्राचीन अर्थ सीधा था
अब यही सजाने वाला कपड़ा या बाल ड्रेसिंग तक होने लगा है।
 
2. पीढ़ी-परिवर्तन के कारण-कई बार पीढ़ी-परिवर्तन भी अर्थ-परिवर्तन का कारण होता है। कारण यह
मनुष्य कभी भी पूर्ण या शुद्ध रूप से अनुकरण नहीं कर सकता । उसके अनुकरण में कमी रह जाती है। नई पीढ़ी के लोग पुरानी पीढ़ी का अनुकरण करते हैं । स्वाभाविक ही इसमें अंतर आता है। ‘पत्र’ शब्द का इतिहास बड़ा मनोरंजक है। आरंभ में लिखने की उचित सामग्री न होने से लोगों ने पत्र या पत्ते पर लिखना शुरू किया। कुछ समय बाद जब दूसरी पीढ़ी आई तो वह सोचने लगी कि जिस पर हा कुछ लिखा जाय तो वही पत्र होगा। बाद में जब भोजपत्र पर लिख जाने लगा तो उसे भूर्जपत्र कहने लगे। आज भी सोने और चाँदी के पत्तर होते हैं। आज पत्र पतलेपन का भी सूचक हैं। इसी प्रकार ‘तैल’ और ‘कुशल’ शब्दों का भी इतिहास है। यहाँ बल के अपसरण का भी हाथ स्पष्ट लगता है।
 
3. प्रकरण-विभिन्नता-एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते हैं परंतु प्रसंगानुकूल प्रकरण के आधार पर उस
शब्द का वैसा ही अर्थ लिया जाता है। किसी वाक्य में विशेष शब्द का व्यवहार उस शब्द के अनेक अथों के बावजूद जब एक ही विशेष अर्थ में कोई करे । रसोई में बैठा हुआ रसोइया ‘सैंधवम् आनय’ कहे तो उसका अर्थ नमक ही होगा, घोड़ा नहीं । यहाँ प्रकरणवस नमक ही प्रधान अर्थ है । हर व्यक्ति एक शब्द को उसी अर्थ में नहीं लेता जिस अर्थ में दूसरा ग्रहण करता है । जनसमुदाय की घनिष्ठता जितनी कम होती जायगी, उतना ही अर्थ-परिवर्तन आता जायगा । संस्कृत में बिहार’ का अर्थ वितरण करना है, पालि में वही निवास स्थान के लिये जैसे बौद्ध-बिहार । उसी प्रकार हिंदू शब्द भी अर्थ-विभिन्नता से प्रयुक्त होता है। मुसलमान हिंसक, झगड़ालू और डाकू के लिये। ‘शरणार्थी’-शब्द भारत-पाकिस्तान बँटवारे के समय बना था परंतु अब हर पंजाबी शरणार्थी कहलाता है चाहे वहीं कितनों को शरण दे।
 
4. वातावरण के परिवर्तन के कारण-वातावरण में परिवर्तन के कारण भी अर्थ परिवर्तन होता है। यह
परिवर्तन भौगोलिक वातावरण, सामाजिक वातावरण तथा प्रथा एवं प्रचलन संबंधी वातावरण, सामाजिक वातावरण तथा प्रथा एवं प्रचलन संबंधी वातावरण में परिवर्तन के कारण होता है । स्थान का अर्थ दूसरे स्थान पर पहुँचकर अर्थ बदल लेता है। जैसे-अंग्रेजी शब्द ‘कॉर्न साधारण अनाज के लिये प्रयुक्त होता है परंतु अमरीका में कॉर्न शब्द मक्का के लिये लिया जाता है। जाहिर है यह परिवर्तन भौगोलिकता के आधार पर हुआ है । संस्कृत में ‘उष्ट्र’ जंगली बैल के लिये प्रयुक्त होता है। परंतु यही शब्द हिन्दी में ‘ऊँट’ नामक विशेष जंतु के लिये होता है।
 
कई बार सामाजिक परिवर्तन के कारण भी अर्थ में परिवर्तन होता है। मदर और सिस्टर का अर्थ साधारणतः ‘माँ’ और ‘बहन’ होता है परंतु गिरजाघर में ‘मदर’ का उपयोग इसाई धर्मोपदेशिका के लिये
तथा अस्पतालों में सिस्टर नर्स के लिये प्रयुक्त होता है। किसी सभा में व्याख्यान देते समय भाइयों अथवा ‘बहनो’ का अर्थ दूसरा ही होता है।
 
कई बार प्रथा-संबंधी परिवर्तन आने पर भी शब्दार्थ में परिवर्तन आ जाता है। पहले ‘यजमान’ शब्द यज्ञ
करनेवाले पंडित के लिये प्रयुक्त होता था परंतु अब यजमान बुरे और निम्न जातियों के लिये प्रयुक्त होता है ।
 
नम्रता-प्रदर्शन के कारण-अधिक विनम्रता दिखाने में भी शब्दार्थ में परिवर्तन हो जाता है। जैसे ‘आपका
दौलतखाना कहाँ है?” ‘कभी हमारे गरीबखाने में भी पधारिये।’ इसी प्रकार ‘अन्नदाता तो आप हैं’। ‘हुजूर’ और ‘श्रीमान’ आदि शब्दों का प्रयोग भी नम्रतासूचक होता है। देवताओं के भोजन को ‘भोग’ तथा अवशिष्ट को ‘प्रसाद कहा जाता है। उनके पाँव धोवन को ‘चरणामृत’ कहते हैं।
 
व्यंग्य के कारण-कई बार व्यंग्य के कथन के कारण भी अर्थ में परिवर्तन होता है । साहित्यिक भाषा और बोलचाल की भाषा दोनों में कई बार ऐसे शब्द आते रहते हैं। पूरे पंडित या दूसरे देवता को एक मूर्ख या चालाक कहा जाता है। इसी प्रकार झूठ बोलने वाले से कहना ‘आप तो पूरे युधिष्ठिर है’ किसी अभागे या दुःखी को कहना आप तो भाग्य के पूर्ण साथी हैं, ऐसे ही व्यंग्य-कथन है। अत्यंत दीन-हीन को लक्ष्मी का पति तथा किसी कुरूप को कामदेव का भाई कहना ऐसे ही व्यंग्यार्थक शब्द हैं जो परिवर्तित अर्थ रखते हैं।
 
अलंकारों के कारण-कई बार आलंकारिक भाषा का प्रयोग भी किया ही जाता है। इस कारण शब्दार्थ में परिवर्तन आ जाता है । कभी-कभी स्थूल अथवा प्रत्यक्ष वस्तुओं और उसके अवयवों के चित्र को स्पष्ट करने के लिये ही अलंकारों का प्रयोग किया जाता है। अपने भावों को स्पष्ट करने के लिये निजी वस्तुओं का आश्रय लेकर आलंकारिक भाषा बोली जाती है। कठिन हृदय वाले को ‘पत्थर दिल’, या ‘पाषण-हृदय,’ जिसका कुछ निश्चित न हो उसे बिना ‘पेंदे का लोटा’ तथा ‘पतले-दुबले को हाथी कहना’, कोई काम बिगड़ जाने पर ‘वाह बेटा वाह’ कहना, निखटू को कमाऊ पूत कहना, कुलटा के लिये सती-साध्वी, सा वित्री, अधिक सोने वाले को कुंभकर्ण, लड़ाई कराने वाले को नारद मुनि कहना सब आलंकारिकता के कारण अर्थ परिवर्तित होने के उदाहरण हैं। आलंकारिक भाषा के कारण अर्थ का पर्याप्त विस्तारीकरण हो जाता है। जैसे टेढ़ा आदमी, मीठी बात और ठोस कार्य आलंकारिक प्रयोग
है। जलना साधारण दाह को कहते हैं परंतु हृदय की जलन, विरह की आग, क्रोध को पीना, लहू के चूंट पीना, और छाती पर साँप लोटना आदि आलंकारिक भाषा के द्वारा परिवर्तित अर्थ के उदाहरण हैं। ऐसे अनेक मुहावरे भी हैं जिनसे भिन्न अर्थ व्यंजित होते हैं।
 
स्नेहाधिक्य के कारण-कई बार स्नेहातिशय्य भी अर्थ-परिवर्तन का कारण बनता है। प्यार में बेटे को सूअर, गधा, बदमाश, आदि कह बैठते हैं । घनिष्ट संपर्क के कारण चपलतावश शब्दार्थ परिवर्तन होता है । शैतान, दुष्ट, पगली आदि शब्दों के प्रयोग ऐसे ही हैं। कभी-कभी क्रोध में पागल होकर राक्षस, पाजी, बच्चू आदि शब्दों का प्रयोग भी किया जाता है। स्पष्ट है, भाव-प्रवणता के कारण भी शब्दार्थ में बड़ी शीघ्रता में परिवर्तन आ जाता है।
 
व्यक्तिगत योग्यता के कारण-व्यक्तिगत योग्यता के कारण भी अर्थ में परिवर्तन होता है। एक दार्शनिक
ईश्वर का अर्थ कुछ और लेता है, भक्त कुछ और । शून्य शब्द का अर्थ दार्शनिक निर्गुण वादी के लिये कुछ और होगा वैज्ञानिक के लिये कुछ और तथा गणितज्ञ के लिये कुछ और । कई बार एक वर्ग के नामकरण के लिये संपूर्ण वर्ग का नामकरण कर दिया जाता है। पुनरावृत्ति से भी अर्थ में परिवर्तन हो जाता है। कलाकारों और कवियों की निरंकुशता के कारण भी शब्दों का मनमाना तोडमोड़ होता है और उनके मनमाना अर्थ किये जाते हैं।
 
भाषांतरण-कई बार भाषांतरण हो जाने से शब्दार्थ में परिवर्तन जाता है। जैसे, गुजराती और मराठी में
दरिया, नदी और समुद्र दोनों के लिये प्रयुक्त होता है। केवल भावना के कारण मुसलमान हिन्दू के लिये काफिर अर्थ में प्रयोग करता है। मुंडा भाषा में पिल्ला आदमी के बच्चे को कहते हैं जबकि हम कुत्ते के बच्चे को पिल्ला कहते हैं। फारसी में मुर्ग का अर्थ पक्षी है किंतु हिन्दी में मुर्ग पक्षी विशेष को कहते हैं। संस्कृत में ‘बाटिका’ ‘बाग’ को कहते हैं। हिन्दी में बगीचा और बंगला में यह शब्द मकान के लिये प्रयुक्त होता है। हिन्दी के नीले रंग को गुजराती में हरा रंग समझा जाता है।
 
अशोभन के लिये शोभन भाषा के प्रयोग के कारण-कई बार अशुभसूचक शब्दों को सीधे न कहकर
भिन्न रूपों में कहने का प्रयत्न किया जाता है। इस विषय में स्त्रियों के पास सुंदर भाषा होती है। वे प्राय: सभ्य शब्दों में बोलने के यत्न करती हैं। वैधव्य के लिये चूड़ी फूटना, सिंदूर पुंछ जाना आदि । मरने के लिये स्वर्गवास होना, पंचतत्व को प्राप्त होना, दिवंगत होना, या कटुता की सूचना देने वाले शब्द जैसे साँप सूंघना, गश खाकर गिरना, चेचक के लिये ‘शीतला माता’ आदि । ‘लाश’ के लिये ‘मिट्टी’ कहना तथा उर्दू में ‘वह बीमार है’ को उनके दुश्मन की तबीयत खराब है’, कहना ऐसे ही प्रयोग हैं।
 
ऐसे ही अश्लील शब्दों के लिये अच्छे शब्दों का प्रयोग किया जाता है। पाखाना जाना को ‘मैदान जाना’
पोखरे जाना, नदी जाना, दिशा जाना, टट्टी जाना, शौच जाना, तथा विलायत जाना ऐसे ही प्रयोग हैं। गर्भिणी होना न कहकर पाँव भारी होना ऐसा ही है। कामशास्त्रीय शब्दों के लिये भी ऐसे ही घुमा फिराकर शब्द दिये जाते हैं।
 
अंधविश्वास कारण पति, स्त्री, गुरु और बड़े लड़के का नाम लेना जहाँ पापकारक माना जाता है वहाँ
क्रमशः ऊ लोग, बिटिया के बाबू, आदमी और मलिकार, पति के लिये, पत्नी के लिय मालकिन कहते हैं। कहीं-कहीं घरवाली भी कहते हैं।
 
गंदे और छोटे कार्यों के लिये कई ऐसे शब्दों के प्रयोग होते हैं। जैसे पाखाना साफ करने के लिये कमाना, भंगी के लिये जमादार, हलालखोर या मेहतर, चमार को रयदास, खाना पकाने वाले को महाराज, बंगला में रसोइये के लिये ठाकुर या साधारण किरानी के लिये ‘बाबू’ शब्द के प्रयोग ऐसे ही हैं।
 
अधिक शब्दों के स्थान पर एक शब्द का प्रयोग-रेल पर चलने के कारण ट्रेन को रेलगाड़ी कहना तथा
अब गाड़ी को भी हटाकर सिर्फ रेल कहना इस का अनुकूल उदाहरण है। ऐसे ही रेलवे स्टेशन के लिये सिर्फ स्टेशन, मोटारकार के लिये सिर्फ मोटर या सिर्फ कार, जिनरिक्शा के लिये सिर्फ रिक्शा, प्रिंसिपल टीचर के लिये प्रिंसिपल’, कैप्टिल सिटी के लिये कैपिटल, नेकटाई के लिये टाई, पोस्टल स्टाम्प के लिये सिर्फ स्टाम्प भी ऐसे ही प्रयोग हैं।
 
सादृश्य के कारण-‘प्रश्रय’ शब्द का संस्कृत में अर्थ या विनय, शिष्टता, नम्रता । आश्रय शब्द इससे
मिलता-जुलता है, अतः आश्रय या सहारा के ही अर्थ में इसका प्रयोग होने लगा है। ऐसे ही ‘उत्क्रांति’ (मूल अर्थ मृत्यु या उछाल) का क्रांति के अर्थ में उत्कोश (मूल अर्थ एक पक्षी) का आक्रोश के अर्थ में ‘प्रयोग’ इसी वर्ग के परिवर्तन से युक्त हैं। सादृश्य के कारण ही संस्कृत के अभिज्ञ और अविज्ञ का प्रयोग करते हैं।
 
अज्ञानता के कारण-जानकारी के अभाव में गलत अर्थ में भी प्रयोग करने से शब्दार्थ बदल जाता है।
संस्कृत का धन्यवाद (प्रशंसा) हिन्दी में शुक्रिया हो गया है। अवधी में ‘बूढा’ के लिये बुढ़ापा, भोजपुरी में ‘कलंक’ के लिये अकलंक, ‘फजूल’ के लिये बेफजूल के प्रयोग ऐसे ही प्रयोग हैं।
 
जानबूझकर नये अर्थ का प्रयोग-कलाकार नये शब्द तो बनाते ही हैं शब्दों को नये अर्थ में व्यवहृत भी
करते हैं । उद्देश्य अपनी शैली को चटकीली और आकर्षक बनाना होता है। ‘आकाशवाणी’ का रेडियो के अर्थ में प्रयोग ऐसे ही है।
 
पुनरावृत्ति के कारण-कभी शब्दों का दुहरा प्रयोग चल पड़ता है। फलतः उनके आधे भाग के अर्थ में
परिवर्तन हो जाता है जैसे-‘विन्ध्याचल पर्वत’ जिसमें विन्ध्याचल का ही अर्थ है विन्ध्यपर्वत । ऐसे ही ‘मलयगिरि’ ‘डबल’ रोटी को ‘पावरोटी’ कहना है। पुर्तगाली शब्द ‘पाव’ का अर्थ ही है रोटी। ऐसे ही ‘दरअसल’ में ‘दरहकीकत’ में के प्रयोग हैं।
 
एक शब्द का दो रूपों में प्रयोग-जीवित भाषा में एक वस्तु या कार्य के लिये ठीक एक अर्थ रखनेवाले
दो शब्द नहीं रह सकते । भाषा यह व्यर्थ का बोझ स्वीकार नहीं करती। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि एक तत्सम शब्द के साथ-साथ उसके तद्भव या अर्द्धतद्भव शब्द का भी प्रचालन हो जाता है। ‘स्तन’ और ‘थन’ एक ही है पर दोनों के अर्थ में अब भेद है। एक का प्रयोग मानव स्त्री के लिये दूसरे का पशु के लिये होने लगा है। इसे ही बील जैसे भाषाविद् भेदभाव का नियम कहते हैं।
 
दूसरी भाषा के प्रभाव के कारण-कभी-कभी दूसरी भाषा के प्रभाव के कारण भी शब्दों में परिवर्तन हो
जाता है। जैसे. मच्छरों के लड़ने का अर्थ मच्छरों का काटना, साँप लड़ना का अर्थ साँप का काटना, जलना के अर्थ में सड़ना सब दिल्ली और पंजाबी हरियाणी भाषा के असर के कारण हैं ।
 
इस प्रकार हिन्दी की बोलियों एवं पंजाबी के प्रभाव से अनेक हिन्दी शब्द के अर्थ-परिवर्तन से ऐसे शब्दों के अर्थ में विस्तार हो गया है। इन उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त विशेषण का संज्ञा रूप में प्रयोग, संज्ञा का क्रिया रूप में प्रयोग आदि भी अर्थ- परिवर्तन के कारण हो सकते हैं परंतु फिर भी शब्दार्थ-परिवर्तन के मूल में कार्य कारणों पर विचार करना इतना आसान नहीं है, क्योंकि वे इतने संयुक्त और गुंथे रहते हैं कि उनका निश्चित स्वरूप दिखाई ही नहीं पड़ता । एक शब्द के अर्थ परिवर्तन पर विचार करते समय कभी एक कारण दिखाई पड़ता है तो कभी दूसरा। फिर भी एक बात तो निश्चित है कि भाव-साहचर्य ही घूम-फिर कर अर्थ-परिवर्तनों में अधिक कार्य करता दिखाई पड़ता है।

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