अर्थ-विज्ञान क्या है?

अर्थ-विज्ञान क्या है?

                         अर्थ-विज्ञान क्या है?

वास्तव में अर्थ की प्रतीति दो आधारों पर होती है: (क) आत्मानुभव से, अर्थात् स्वयं किसी वस्तु का प्रत्यक्ष
संपर्क द्वारा अनुभव प्राप्त करना और (ख) परानुभव से, अर्थात् दूसरे के अनुभवों को सुन या पढ़कर किसी वस्तु या
विषय को जानना । हम हर उस चीज के विषय में दूसरों के ज्ञान या अनुभव का सहारा लेते हैं जो हमारी अपनी
पहुँच के बाहर होती हैं। एक उदाहरण लें। चीनी मीठी होती हैं यह ज्ञान आत्मानुभाव से हो सकता है परंतु सूर्य,
.ईश्वर, या आत्मा के अनुभव और ज्ञान के लिये हम प्राय: दूसरों के ज्ञान या अनुभव का ही सहारा लेते हैं। किसी
भी भाषिक इकाई की अर्थ-प्रतीति के ये ही दो मुख्य आधार होते हैं।
 
प्रत्येक सार्थक शब्द अपना एक अर्थ, भाव या विचार रखता ही है। यह अर्थ ही उक्त शब्द का सार है, प्राण
है ; क्योंकि उस शब्द के अस्तित्व का आधार ही यह अर्थ होता है। अर्थ बिना शब्द निष्याण है। विज्ञान की
पारिभाषिक शब्दावली में इसी अर्थ को ‘अर्थतत्व’ या ‘अर्थग्राम’ कहा जाता है।
 
किसी भी शब्द का अर्थ सदा एक ही नहीं होता । शनैः शनैः उसमें विकार उत्पन्न होकर परिवर्तित होता रहता
है। यह जो अर्थ-विज्ञान है, उसमें इसी अर्थ-परिवर्तन या अर्थ-विकास का अध्ययन होता है और हम परिवर्तन या
विकास की दिशा तथा उसके मूल में छिपे हुए कारणों को स्पष्ट करने या विश्लेषित करने का प्रयास करते हैं। अस्तु
अर्थ विज्ञान के अंतर्गत हम किसी शब्द के अर्थतत्व में होने वाले परिवर्तन या विकास के कारण तथा उसकी दिशा
पर विचार करते हैं। एक उदाहरण से इसे हम समझें । एक शब्द है ‘गवार’ । गँवार का शाब्दिक अर्थ हैं गाँव का
रहने वाला । हमें पता है कि आजकल उसका प्रचलित अर्थ है असभ्य या असंस्कृत । यहा स्वभावतः दो जिज्ञासाएँ
होती हैं। पहला ‘गवार’ का अर्थ मूलत: गाँव का रहनेवाला परिवर्तित होकर या विकसित होकर असभ्य या असंस्कृत
कैसे हो गया? दूसरा-यह परिवर्तन या विकास किस दिशा में हुआ है ? या दूसरे शब्दों में क्या इसका अर्थ संकुचित
हो गया है या विस्तृत; बुरा हो गया है या अच्छा, या उसमें इतना अधिक परिवर्तन तो नहीं हो गया कि पुराने अर्थ
से कोई संबंध नहीं रहा?
 
कुछ लोग यह भी प्रश्न उठाते हैं कि ‘गँवार’ शब्द का अर्थ गाँव का रहने वाला ही प्रथम-प्रथम क्यों और
कैसे हो गया था ? यहीं एक प्रश्न यह भी होता है कि किसी वस्तु या व्यापार का नामकरण कैसे और किस आधार
पर हुआ है ? अर्थात् ‘ग्राम’ को ग्राम ही क्यों कहा गया उसे ‘नगर’ क्यों नहीं कहा गया ? यास्क ने अपने ग्रंथ,
‘निरुक्त’ में कुछ ऐसे प्रश्न उठाये थे, परंतु ये प्रश्न वहाँ भी निरुत्तरित रहे थे। सो, यथार्थ तो यह है कि वस्तुओं
के नामकरण पर आजतक विचार ही नहीं किया जा सका है। अनुकरणात्मक आदि कुछ थोड़े-से शब्दों को छोड़कर
इस दिशा में हमें आज भी कुछ नहीं दीखता । कारण यह है कि वस्तु के नामकरण पर विचार करने के लिये नामकरण
का समय, तत्कालीन लोगों की मानसिक दशा तथा वातावरण आदि का सम्यक ज्ञान अनिवार्यतः अपेक्षित है और
इसका पता अब मुश्किल है। परंतु इतना तो यथार्थ है कि यह विषय अर्थ-विचार के प्रकरण में आना चाहिये।
 
विचारणीय यह है कि वस्तुओं के नामकरण का आधार क्या होता है ? हम जानते हैं कि प्रत्येक वस्तु के
अपने-अपने कुछ गुण होते हैं। उन्हीं गुणों में से किसी एक के आधार पर प्रायः उसका नाम रख दिया जाता है।
परंतु नामों की सबसे बड़ी कमी यह है कि वे सदा अपूर्ण हैं । वे सर्वतोभावेन शुद्ध नहीं हैं। ‘सर्प’ का ‘सर्प’ नाम
वक़ गति के कारण रखा गया है, परंतु और भी तो कीड़े वक्र गति से चलते हैं न? यास्क कहते हैं कि यदि चुभने
के कारण घास को ‘तृण’ (तृ = चुभना) कहा गया तो ‘सुई’ या ‘भाले’ को भी क्यों नहीं कहा गया? प्रायः सभी
नामों के विषय में ऐसे प्रश्न उठाये जा सकते हैं।
 
ध्यातव्य है कि केवल प्रधान गुण के आधार पर ही नाम नहीं रखे गये हैं। कुछ ऐसे भी नाम हैं जो अप्रधान
गुणों के आधार पर भी हैं। यहाँ यह भी प्रश्न है कि इन गुणों के नाम भी किस आधार पर बने हैं ? यदि ‘प्रभा
(प्रकाश) करने वाला होने के कारण सूर्य का नाम ‘प्रभाकर’ है तो उससे पूर्व ‘प्रभा’ का नाम ‘प्रभा’ या चमकने
अर्थ में ‘भा’ का ही प्रयोग क्यों हुआ? ध्यान में यह रखना है कि हम यह न समझें कि सदा धातुओं के आधार
पर ही वस्तुओं के नाम आरंभ में रखे गये। सच तो यह है कि नाम पहले ही रख दिये गये और विकसित होने पर
ही उन धातुओं की खोज हुई। आज हम गुणों के आधार पर निर्मित शब्दार्थों के तहत खोजी हुई धातुओं के आधार
पर नामों की सार्थकता सिद्ध कर लेते हैं।
 
इस प्रकार भाषा के विकसित हो जाने पर नामकरण गुणों के आधार पर किया जाता है। परंतु भाषा के आरंभ
में चीजों या कार्यों के नामकरण का प्रश्न भाषा की उत्पत्ति के साथ बँधा है जिसका स्पष्ट उत्तर देना संभव नहीं है ।
सच तो यह है कि अधिकांश चीजों के नाम यादृच्छिक होते हैं। यादृच्छिक’ से तात्पर्य यह है कि समाज ने यह
मान रखा है कि ‘जल’ द्रव विशेष के लिये एक सांकेतिक शब्द-संकेत है जिससे उस द्रव का कोई सहज संबंध नहीं
हैं। वस्तु के साथ इस प्रकार ध्वनि के संबंध स्थापन को अपने प्राचीन साहित्य में संकेत-ग्रह कहा गया है। जब
कोई शब्द सुनते या पढ़ते हैं तो संकेत ग्रह के आधार पर ही हमारे मस्तिष्क में वस्तु-विशेष का मूर्त या अमूर्त
बिंब बन जाता है और हमें अर्थ की प्रतीति होती है । शब्द की अभिधाशक्ति का आधार यह संकेत-ग्रह ही होता है।
 
कुछ लोग व्युत्पत्ति शास्त्र को अर्थविज्ञान का एक अंग मानते हैं जबकि कुछ लोग इसे भाषा-विज्ञान का स्वतंत्र
खंड तथा कुछ दोनों को ही एक मानते हैं। वास्तव में तीनों मत गलत है। व्युत्पत्ति भाषा-विज्ञान का अलग विभाग
हो ही नहीं सकता और न ही अर्थ विज्ञान की तरह इसका स्वतंत्र रूप से अध्ययन ही हो सकता है। तथ्य तो यह
है कि व्युत्पति में किसी शब्द के आरंभ तथा धातु आदि पर विचार करते हुए ध्वनि और अर्थ-दोनों दृष्टियों से इतिहास
दिया जाता है । इस प्रकार किसी शब्द की व्युत्पत्ति के अंतर्गत शब्द का सभी दृष्टियों से जीवन-चरित्र देना होता है।
कहा जा सकता है कि व्युत्पत्ति शास्त्र अलग विज्ञान या भाषाविज्ञान का विभाग या अर्थ-विज्ञान न होकर
ध्वनि-विज्ञान का ही सम्मिलित प्रयोग मात्र है।

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