आचरण की सभ्यता का विकास करना

आचरण की सभ्यता का विकास करना

                    आचरण की सभ्यता का विकास करना

“व्यवहार कुशल बनना है, तो महान् और सफल लोगों के व्यवहार का
अनुकरण करो.”
      विद्या, कला, कविता, साहित्य, धन और राजस्व से भी आचरण की सभ्यता
अधिक महत्वपूर्ण एवं व्यक्तित्व का महत्व प्रदान करने वाली होती है, किन्तु वह सहज
प्राप्त होने वाली वस्तु नहीं है, पैतृक संस्कार, वातावरण तथा व्यक्तिगत साधना
की त्रिवेणी के मध्य उसका विकास होता है. प्रसिद्ध विदेशी यात्री अलबरूनी ने एक
स्थान पर लिखा है कि आचरण की सभ्यता की प्राप्ति उतना ही कठिन कार्य है, जितना
एक उस्तरे से किसी पहाड़ को काटना. महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में यह महत्वपूर्ण
कथन किया है कि, “मनुष्य का आचरण ही यह बताता है कि वह कुलीन है अथवा
अकुलीन, शूर अथवा भीरू है, पवित्र है अथवा अपवित्र है.”
          हिन्दी के प्रसिद्ध निबन्धकार अध्यापक पूर्णसिंह ने आचरण की सभ्यता के विकास
की तुलना पर्वतराज हिमालय के निर्माण से करते हुए लिखा है कि “बर्फ का दुपट्टा
बाँधे हुए हिमालय इस समय तो अति सुन्दर, अति ऊँचा और गौरवान्वित मालूम
होता है, परन्तु प्रकृति ने अगणित शताब्दियों के परिश्रम से रेत का एक-एक परमाणु
समुद्र के जल में डुबो-डुबो कर और उसको अपने विचित्र हथौड़ों से सुडौल कर-
करके इस हिमालय के दर्शन कराए हैं. आचरण भी हिमालय की तरह एक ऊँचे
कलश वाला मन्दिर है.”
          आचरण की सभ्यता को सदाचार या सुसंस्कृत व्यवहार भी कहते हैं. इसका
विकास केवल स्वतंत्रता के मध्य होता है, अर्थात् जब व्यक्ति स्वयं इसका विकास
करने के लिए उत्सुक और प्रयत्नशील होता है. प्रसिद्ध विचारक कृष्णमूर्ति के शब्दों में,
‘आचरण की सभ्यता न तो बल प्रयोग की धरती पर विकसित हो सकती है और न
विवशता या पुरस्कार के माध्यम से ही यह किसी अनुकरण में ही प्रदर्शित की जा
सकती है. इसको भय द्वारा भी विकसित नहीं किया जा सकता है. यह तो संवेदनशील
व्यवहार के मध्य स्वभावतः झाँकती हुई दिखाई देती है. यह सद्गुण कर्मों में दिखाई
देता है.” पुस्तकों को पढ़कर तथा व्याख्यानों एवं प्रवचनों को सुनकर ज्ञान प्राप्त किया जा
सकता है प्रभाव सदा आचरण का पड़ता है, शब्दों का नहीं कथनी के अनुसार
जिसका आचरण है, उसके आचरण का प्रभाव श्रोताओं पर अवश्य पड़ता है, परन्तु
जिसकी करनी उसकी कथनी के अनुसार नहीं है, उसके शब्द श्रोताओं के लिए
रामरौला मात्र अथवा मनोरंजन की सामग्री होते हैं. इसी को लक्ष्य करके एक विद्वान् ने
लिखा है कि “साधारण उपदेश तो हर गिरजे, हर मठ और हर मस्जिद में होते हैं,
परन्तु उनका प्रभाव हम पर तभी पड़ता है, जब गिरजे का पादरी स्वयं ईसा होता है,
मन्दिर का पुजारी स्वयं महर्षि होता है, मस्जिद का मुल्ला स्वयं पैगम्बर और रसूल
होता है.” परन्तु आचरण की सभ्यता तभी प्राप्त होती है, जब व्यक्ति उस ज्ञान को
अपने व्यवहार में उतार दे, अन्यथा वह “पर उपदेश कुशल बहुतेरे” वाली बात
चरितार्थ करता हुआ दिखाई देता है. आचार्य विनोबा भावे ने तो यहाँ तक कह
दिया है कि “जिसने ज्ञान को आचरण में उतार लिया, उसने ईश्वर को ही मूर्तिमान
कर लिया.”
           कुछ लोग समझते हैं कि अच्छाई का विपरीत बुरा या कुकर्म है, सदाचरण की
प्राप्ति दुराचार को दूर करने से हो सकती है. आचरण की सभ्यता की प्राप्ति निर्दयता
के परित्याग द्वारा सम्भव हो सकती है. यह मान्यता आंशिक रूप में ही सत्य है. मनुष्य
ने अच्छा बनने के लिए निरन्तर संघर्ष किया है, लेकिन वह स्वभावतः अच्छा नहीं बन
सका है. कारण स्पष्ट है- सद्गुण अथवा आचरण की सभ्यता का विकास स्वतंत्र
वातावरण में स्वतंत्र रूप से होता है, जब तक संघर्ष या हिंसा जारी है, तब तक
अच्छाई आ ही नहीं सकती है. हाँ, इतना अवश्य है कि बुराई के विरुद्ध संघर्षशील
वातावरण में अच्छाई के समावेश के लिए कोई मार्ग निकल आता है.
           हमारा व्यवहार किसी कर्म और उसके प्राप्त फल के सन्दर्भ में निश्चित किया जाता
है. वह यदि बँधी-बँधाई लीक पर यंत्रवत् चलता है, तो निरर्थक है, क्योंकि उसमें
संवेदनशीलता का अभाव होता है और वह सम्बन्ध भावना से रहित होता है. इस प्रकार
का व्यवहार, औपचारिकताओं की सीमाओं में आबद्ध हो जाता है और जरा-सा भी
व्यवधान उत्पन्न होने पर उसका मुलम्मा उतर जाता है या बखिया उधड़ जाती है.
      इस औपचारिकता के व्यवहार की पर्त बहुत हल्की होती है, जिसे हम स्कीन डीप
कहते हैं, जबकि आचरण की सभ्यता जीवन का अभिन्न अंग होती है और उसकी जड़ें
हमारे अस्थि पंजर तक पहुँचती हैं, सभ्य आचरण हमारे वास्तविक रूप को प्रकट करता 
है-हम दिखावे-भर के लिए सभ्य हैं अथवा वास्तव में, हृदय से सभ्य हैं. इसी आधार पर 
समाज हमारी सभ्यता के स्तर को निर्धारित करता है और स्वयं हम भी अपने असली रूप 
को जान जाते हैं हिन्दी के उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने कहा है कि “आचरण एक शीशे के समान 
है, जिसमें प्रत्येक मानव अपना प्रतिबिम्ब दिखाता है.” हम स्वयं भले ही अपने को धोखा देते रहें,
परन्तु समाज धोखा नहीं खाता है, वह हमारे आचरण के आधार पर तुरन्त हमारा सांस्कृ
तिक स्तर निर्धारित कर लेता है, क्योंकि हमारे साथ हमारी पारिवारिक मान्यताएं प्रत्यक्ष
अथवा अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ी रहती हैं. मनोविज्ञान के विद्वान् हमारे व्यवहार एवं
हमारी प्रतिक्रियाओं के आधार पर ही हमारे व्यक्तित्व का विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं. अतः
महत्वपूर्ण यह नहीं है कि हम क्या कहते हैं, महत्वपूर्ण है यह कि हम क्या करते हैं ?
          अपने आचरण का स्वतंत्रतापूर्वक निर्धारण करने के लिए हमें मनुस्मृति एवं
चीन के दार्शनिक कन्फ्यूशियस के इस कथन को ध्यान में रखना चाहिए-दूसरों
का जो आचरण तुमको पसन्द नहीं है, वैसा आचरण दूसरों के प्रति मत करो, आप यह
तथ्य कभी न भूलें कि सभ्यता का आचरण यंत्रवत् नहीं होता है. अपने लिए उपयुक्त
सभ्य आचरण का निर्धारण एवं विकास आपको स्वयं करना होगा.
          सभ्य आचरण की भाषा सदा मौन रहती है. सभ्य व्यक्ति अपने आचरण द्वारा
सभ्यता को मूर्तिमंत्र करता है. नम्रता, दया, प्रेम और उदारता आदि गुण सभ्याचरण की
भाषा के मौन व्याख्यान है. इस प्रकार का मौन व्याख्यान रूपी आचरण व्यक्ति पर
स्थायी प्रभाव डालता है. “जीवन के अरण्य में घुसे हुए पुरुष के हृदय पर प्रकृति और
मनुष्य के जीवन के मौन व्याख्यानों के यत्न से, सुनार के छोटे हथौड़े की मन्द-मन्द
चोटों की तरह आचरण का रूप प्रत्यक्ष होता है.” आचरण वाले नयनों का मौन व्याख्यान
केवल यह है-सब कुछ अच्छा है, सब कुछ भला है.
          अमरीका के प्रसिद्ध दार्शनिक एवं साहित्यकार इमर्सन का यह कथन हमारा
हमार्गदर्शक होना चाहिए “सुन्दर आचरण सुन्दर देह से अच्छा है, मूर्ति और चित्र की
अपेक्षा यह अधिक उच्चकोटि का आनन्द नी प्रदान करता है, वह सभी कलाओं से श्रेष्ठ
कला है.” हम इस कला को आत्मसात करने का प्रयत्न करें.

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