आञ्जनेय में वर्णित हनुमान के चरित्र की विशेषता

आञ्जनेय में वर्णित हनुमान के चरित्र की विशेषता

                   आञ्जनेय में वर्णित हनुमान के चरित्र की विशेषता

भगवान श्री राम सिंहासनासीन हो चुके हैं। समस्त प्रजा में आनंद-उल्लास की
बाढ़-सी आ गयी है। रामराज्य का सुख-सपना एक नये ढंग से सँवरने लगा है। इस खुशी में
स्वयं राजा भी यथोचित दोन-उपहार बाँट रहे हैं। सभी चंचल थे, किन्तु एक हनुमान ही बड़े
शांत, स्थिर चित्त बैठे थे। इनका ध्यान केवल सियाराम के चरणों में लगा था। श्रीराम ने एक
मुक्ताहार अपनी प्राणप्रिया जानकी को भेट स्वरूप दिया। श्री सीता सकुचाई हुई पति की ओर
देखने लगीं, जिसका अर्थ राम समझ गए कि उन्होंने बेटे हनुमान को क्यों नहीं कुछ दिया।
भगवान ने कहा कि सीते, तुम्हें यह हार मैने दे दिया है, अब तुम्हारा ही इसपर अधिकार है,
तुम चाहे जिसे इसे भेंट कर दो। सीता ने सोल्लास वह हार हनुमान के गले में डाल दिया।
         हनुमान तो बड़े ज्ञानी भी थे। शारीरिक शोभा बढ़ाने वाली वस्तुओं के बदले मन को
अधिक उर्वर बनाने वाली वस्तु को वे अधिक मूल्यवान मानते थे। एक-एक मोती वहीं तोड़कर
वे उसमे कुछ खोजने लगे। मोतियों के सारे दाने तोड़ दिये और अंततः निराश हो गए। सभी
आश्चर्य से उन्हें देखने लगे और तब विभीषण ने पूछा कि आपने यह क्या किया, माता जानकी
को इससे कितना क्लेश होगा आंजनेय ने तभी कहा-हे लंकापति!
                      “सीता-राम के रूप से परे जो कुछ भी है, व्यर्थ है,
                        इन मोतियों के दानों में आराध्य मुझे दीखे नहीं,
                        इसीलिए इनका मेरे हित न कुछ अर्थ है।’
 
        हनुमान का चरित्र यहाँ कितना उज्ज्वल, कितना मार्मिक और कितना निष्ठावान दर्शाया
गया है। ऐसा भक्त-चरित्र भी भला कही दूसरा मिल सकता है। हनुमान की धारणा थी कि
सोने-चाँदी में भगवान नहीं मिलते और मिट्टी में भी प्रभु मिल जाते हैं। आवश्यकता मन से उन्हें
चाहने की है।
              तभी विभीषण ने कहा कि आपके शरीर में भी तो आराध्य नहीं दीखते, फिर उसे भी
क्यों नहीं चीर-फार डालते। कहते है, इसी चुनौती पर अपनी छाती चीरकर उन्होंने सीताराम की
प्रतिमा सभासदों को दिखा दी थी। चारित्रिक ऐश्वर्य की यह पराकाष्ठा ही कही जायेगी। सृष्टि
के इतिहास में असत्य की चुनौती पर सत्य का यह प्रमाण बिल्कुल अकेला है। सच है-
                “जिसके गले पड़ी हो प्रभु के कर-कमलों की माला,
                 क्यों न बने भौतिक तत्वों से वह विरक्त मतवाला।”
 
                सच्चे भक्तों का चरित्र श्री हनुमान की तरह ही होना चाहिए। एक दूसरा प्रसंग भी है,
जहाँ श्री हनुमान के महिमामय चरित्र पर दुगुना आलोक प्रतीत होता है। एक बार श्री सीता माँग
में सिंदूर लगा रही थी। हनुमान कौतूहल से देख रहे थे। उत्सुकतावश हाथ जोड़कर पूछा- “माँ,
तुम सिंदूर क्यों लगा रही हो?” जवाब में इतना ही कहा कि “श्री रघुपति जी को यह लाल
रंग ही अधिक अच्छा लगता है। यही लाल रंग उनकी उम्र भी बढ़ाता है। इससे पथ के विघ्नों
का भी नाश होता है और अंधकार में भी इससे एक प्रकाश-किरण बराबर निकलती रहती है।”
        फिर क्या था, हनुमान जी ने थोड़ा नहीं, देर सारा सिदूर तेल में मिश्रित कर अपना सारा
गौर शरीर लाल कर लिया। जब श्री राम ने देखा तो हँसे और पूछा तुमने यह क्या और क्यो
किया है? इस पर हनुमान ने एक बड़ी मार्मिक बात कही है―
                       “जो भी रंग तुम्हे भाता है, वही वेश तो मेरा,
                        जहाँ तुम्हारी चरण-भूमि है, वही देश तो मेरा।”
श्रीराम ने हनुमान को देखकर मन-ही-मन कहा और गदगद कंठ हो गये―
                        ‘ऐसी भक्ति असीम, हृदय का इंतना सरल पुजारी,
                         अंजन-सुत, बजरंगबली, हे ब्रह्मचर्य-व्रतधारी।
                         मेरे लाल, तुम्हें यह लाली अमर बनायेगी
                         दुनिया तुम पर इसी प्रेम का रंग चढ़ाएगी,
                          यही रंग अनुराग, प्रेम का, शुभ का दायक होगा
                          रूप तुम्हारा यही दुःखी का भाग्य-विधायक होगा।”
 
      चारित्रिक उत्कर्ष का एक और उदाहरण काव्यकार ने अभिव्यजित किया है। शासन कार्य
के सुशासन के लिए उन्होंने समस्त राज्य के आठ भाग कर दिये थे। अयोध्या को छोड़कर अन्य
भू-भागों का भार सभी भाइयों के जिम्मे कर अयोध्या को सुव्यवस्था श्री हनुमान को सौंप दी।
इसपर ईर्ष्यावश सभी भाई असंतुष्ट हो उठे और भाभी से यह शिकायत की। अंततः पुनः सारा
काम-काज हनुमान से वापस ले लिया गया और राजा के जम्हाई आने पर मात्र चुटकी बजाने
का काम उनके जिम्मे दिया गया। हनुमान इस काम में भी दत्तचित्त हो गये। राम जहाँ-जहाँ जाते,
हनुमान पीछे हो लेते। यहाँ तक कि वे शयन-कक्ष तक भी पहुँच गये। सीता हैरान हुई और उन्हें
कक्ष से बाहर कर दिया। हनुमान भारी चिन्ता में पड़े और जाकर छज्जे पर बैठ गए जहाँ से
राम के मुख पर उनकी दृष्टि पहुँच सके और वहीं से अनवरत चुटकी बजानी शुरू कर दी।
भगवान की नींद काफुर हो गयी। भारी समस्या हुई और उनकी तबीयत आराम के अभाव में
खराब रहने लगी। आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। यह सच्ची लगन की सेवा थी। राम-जप के
साथ हनुमान लगातार चुटकी बजाते जा रहे थे, इसीलिए भगवान भक्त के ध्यान में लीन थे।
आखिर वह जाप और चुटकी बन्द भी हो तभी तो वे सो सकते थे। गुरु वशिष्ट आए और उन्होंने
ही जब भक्त का ध्यान तोड़ा तो चुटकी बन्द हुई और राम सो सके।
           इस तरह, एक-आध नहीं अनेक उदाहरण हैं जहाँ हनुमान ने अपनी भक्ति सेवा और
वचन की रक्षा की है। कभी-कभी माँ से मिलने भी हनुमान जाया करते थे। इनकी माता ने काशीराज
को प्राण रक्षा का वचन दे दिया था। माँ ने बेटे से कहा और बेटे ने येन-केन-प्रकारेण उसकी रक्षा
की। भगवान् से की गयी भक्ति का एक विशिष्ट गुण होता है। भगवान् अपना नाम भले ही मिटा
लेना चाहे, किन्तु भक्तों का नाम बिल्कुल नहीं मिटा सकते। काशीराज से इसीलिए उन्होंने
‘सीताराम-हनुमान’ नाम का जाप करवाया था। राम ने अंततः, काशीराज को माफ कर दिया।
काव्यकार ने अपने विषय में भी इसीलिए कहा है कि वे हनुमान पर ही महाकाव्य लिखने को
चौकस रहे, भगवान पर नहीं। ‘राम-नाम’ लेने वाले की रक्षा के लिए हनुमान सदैव तत्पर रहते
ही है।
      इसी तरह अश्वमेघ यज्ञ में भी हनुमान को सुबाहु और शंकर दोनों से लड़ना पड़ा है। अंततः
दोनों ने अपनी-अपनी भावना और भक्तों की सदा रक्षा की है। काव्यकार का भी कहना है―
                             “स्वामी भी सेवक होता है, सेवक भी स्वामी
                              एक-दूसरे का हरदम इस तरह मोल रखता।”
 
           अर्थात् स्वामी और सेवक, ईश्वर और भक्त में कोई भेद होता ही नहीं, दोनों अभेद
होता है।
 
आंजनेय काव्य के संदेश
                     काव्यकार किशोर ने अपनी मौलिक उद्भावनाओं का आधार लेकर श्री हनुकान
की महिमा के मध्य गोस्वामी तुलसीदास की भी विमल गाथा का शुभ स्मरण किया है। महाकवि
तुलसी ने भगवान राम और हनुमान की सदय गाथा गाकर अपनी भक्ति और प्रेम को ही अमर
बनाया है। इस महाकाव्य की पूर्णाहूति करते हुए प्रस्तुत काव्यकार भी अपनी चिन्ता कर रहा है
कि तुलसी का तो कल्याण हो गया, उसका कैसे-कब-तक कल्याण हो सकेगा!
           कवि अपना आत्म-विज्ञापन देता हुआ कहता है कि श्री हनुमान से उसका परिचय अपने
घर में हुआ जब वे बचपन में बीमार थे। इनके घर में आरम्भ से ही शिव और हनुमान की
पूजा-भक्ति चलती थी। कवि को शिव और हनुमान दोनों एक ही प्रतीत होते थे। बीमार की खाट
के ठीक सामने हनुमानजी की तस्वीर टॅगी है। कवि एक-टक उसे देख रहा है और सोच रहा है
कि एक छोटा बालक सूर्य को किस तरह निगल सका होगा।
             इस घटना के कुछ दिनों बाद कवि को एक बार यह भान हुआ कि एक व्यक्ति खड़ाऊँ
पहनकर आया और आँधी के वेग से भाग गया। जब कवि ने पिताजी से इस घटना की जिज्ञासा
की तो उन्होंने बताया कि हनुमान जी ही आए थे।
        कवि आज भी उस घटना पर विचार करता है और यही सन्तोष व्यक्त करता है कि मेरा
सारा कष्ट उन्होंने ही दूर किया है और जब जो माँगा उन्होंने ही दिया है; मुझे सब कुछ प्राप्त
हो चुका है और अधिक मुझे कुछ नहीं चाहिए। कवि पुनः अपने देश का विचार करता है और
चाहता है कि श्री हनुमान ने जैसे अपने भक्तों का उद्धार किया, हमारे देश का भी वे उद्धार कर
सकते हैं। वह हनुमानजी से इसके लिए प्रार्थना करता है, कि सारा देश श्री हनुमान का वैसा ही
भक्त बन जाए, जैसा स्वयं कवि या गोस्वामी तुलसीदास थे। श्री हनुमान ही मात्र संकटमोचन है
और वे ही इस देश का दुःख दूर कर सकते हैं। आज देश का पतन मात्र वे ही रोक सकते हैं।
डॉ० किशोर का चिन्तक कहता है कि देश के कल्याण के लिए प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञान,
भक्ति और कर्म–तीनों का सहज सन्तुलन करना होगा। इसके अभाव में धरती पर सुख का
साम्राज्य सम्भव नहीं हो सकता। आञ्जनेय हर रूप से सुख की वर्षा करने वाले हैं―
                  “है आंजनेय तप से ब्राह्मण, क्षत्रिय कि बाहु बल से हैं,
                   वे वैश्य भक्त-पोषण-प्रमाण, हरिजन कैकय अतुल से हैं।”

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