उन्नीसवीं सदी में भारत में मुद्रण संस्कृति के प्रसार का इनके लिए क्या मतलब था ?

उन्नीसवीं सदी में भारत में मुद्रण संस्कृति के प्रसार का इनके लिए क्या मतलब था ?

(क) महिलाएँ,
(ख) गरीब जनताए
(ग) सुधारक।
उत्तर:
(क) महिलाएँ:- उन्नीसवीं सदी में महिलाओं की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। मुद्रण संस्कृति के प्रसार से महिला लेखिकाओं ने औरतों के बारे में लिखा और उनमें जाग्रति पैदा की, जिससे उनमें अपनी स्थिति को सुधारने की हिम्मत आयी। उदारवादी परिवारों ने महिलाओं की शिक्षा का समर्थन किया, वहीं रूढ़िवादी परिवारों ने महिला शिक्षा का विरोध किया, फिर भी अनेक महिलाओं ने चोरी-छिपे (रसोईघरों में) पढ़ना प्रारम्भ कर दिया। बाद में उन्होंने अपनी जीवन-गाथा को आत्मकथाओं के रूप में लिखा एवं प्रकाशित करवाया। इस प्रकार कहा जा सकता है कि मुद्रण संस्कृति ने भारतीय महिलाओं में आत्मविश्वास की भावना उत्पन्न कर दी।

(ख) गरीब-जनता:- गरीब जनता की पहुँच से किताबें बहुत दूर थी, क्योंकि उनका मूल्य अत्यधिक होता था किन्तु मुद्रण के प्रसार से किताबें सस्ती हो गयीं और जनता की पहुँच में आ गयीं। बीसवीं सदी के आरम्भ से शहरों व कस्बों में सार्वजनिक पुस्तकालय खुलने लगे थे जहाँ गरीब जनता भी जाकर पुस्तकें पढ़ सकती थी। बंगलौर सूती मिल मजदूरों ने स्वयं को शिक्षित करने के विचार से पुस्तकालय स्थापित किये। इस प्रकार भारत में मुद्रण संस्कृति के विकास से गरीब जनता बहुत अधिक लाभान्वित हुई।

(ग) सुधारक:- मुद्रण संस्कृति के प्रसार से सुधारक अपने विचारों को लिखकर जनता तक पहुँचाने लगे और लोगों में उनके विचारों का असर होने लगा। वे समाज में होने वाले अत्याचार और अन्धविश्वास से जनता को जागरुक करने लगे। मुद्रण संस्कृति ने उन्हें धार्मिक अन्धविश्वासों को तोड़ने तथा आधुनिक, सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों को फैलाने का मंच प्रदान किया।

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