कर्ण,कुन्ती एवं परशुराम के चरित्र की विशेषता

कर्ण,कुन्ती एवं परशुराम के चरित्र की विशेषता

                       कर्ण,कुन्ती एवं परशुराम के चरित्र की विशेषता

कवि ने चरित्र के विकास के क्रम में अपनी वाणी मूक रखी है। सम्वाद, आत्मचिन्तन
तथा कथानक के क्रम के माध्यम से ही चरित्र का विकास होता है, उसके छिपे रूप
प्रकाश में आते है। कर्ण के चरित्र को हम निम्नलिखित अंगों में बाँट सकते हैं–
            पुरुषार्थी कर्ण: कर्ण का पुरुषार्थ उसकी सबसे बड़ी विशेषता है। आदि से अन्त
तक अपने पुरुषार्थ के बल पर ही वह अपना स्थान सर्वोपरि बनाये रखता है। विधि द्वारा
बार-बार छले जाने पर भी वह न तो कभी रुकता है, न झुकता है। ये पंक्तियाँ उसके
चारित्रिक गुण. पर भरपूर प्रकाश डालती हैं―
                    “महाराज, उद्यम से विधि का अंक उलट जाता है,
                      किस्मत का पासा, पौरुष से हार पलट जाता है।”
 
              आदर्श मित्र : दुर्योधन ने कर्ण के सामने मित्रता की बाँह फैलायी, कर्ण ने उसे
स्वीकार किया। अपनी इस स्वीकृति की टेक निभाने के लिए कर्ण ने अपने प्राण तक ही
आहुति दे दी। आदर्श मित्रता का यह अलौकिक स्वरूप कर्ण के चरित्र की एक बड़ी
विशेषता है। कर्ण स्पष्ट कहता है―
                       “जिस
नर की बाँह गही मैंने, जिस तरु की छाँह गही मैंने,
                        उस पर न वार करने दूँगा, कैसे कुठार चलने दूँगा?
                       जीते-जी उसे बचाऊंगा
                       या आप स्वयं कट जाऊंगा।”
 
       कर्ण मित्रता को स्वर्ग से भी बढ़कर मानता है। मित्रता के लिए वह बैकुण्ठ तक का
त्याग करने को तैयार है। उसकी मित्रता में स्वार्थ की तनिक भी बू-बास नहीं है।
        दानवीर कर्ण : दानवीरता तो कर्ण की सर्वापरि विशेषता है। उसकी दानवीरता के
प्रसंग में कवि ने कहा है―
                       वीर कर्ण, विक्रमी दान का अति अमोध व्रतधारी,
                       पाल रहा था बहुत काल से एक पुण्य प्रण भारी।
 
            कर्ण के इसी दानशीलता के रहस्य को जानकर एक समय स्वयं इन्द्र ने ब्राह्मण का
रूप धारण कर उससे कवच और कुण्डल माँग लिया। ब्राह्मण रूपधारी इन्द्र के सामने कर्ण
अपनी दानशीलता के प्रसंग में कहता है―
                         “डोले मूल अचल पर्वत का, या डोले ध्रुवतारा,
                           सब डोले, पर, नहीं डोल सकता है वचन हमारा।”
 
                 कर्ण की इसी दानवीरता पर इन्द्र कवच और कुण्डल माँग लेते हैं।
इसी की चर्चा सुनकर कुन्ती उनसे अपने चार पाण्डव पुत्रों का जीवन-दान माँग ले
जाती है। कर्ण मुक्तहस्त हो अपनी दानशीलता की टेक से कभी नहीं डिगा।
                    धर्मपरायण एवं सत्यनिष्ठ कर्ण : कर्ण को सत्य में बड़ी निष्ठा है तथा धर्म
में अत्यधिक अनुराग। वह प्राण-पण से धर्म और सत्य से नहीं डिगता। अपनी इसी धर्म
और सत्य निष्ठा के कारण श्रीकृष्ण के लाख समझाने पर भी वह अपने वचन से डिगने
को तैयार नहीं है―
                     ले लील भले यह धार मुझे,
                     लौटना नहीं स्वीकार मुझे,
                उसने श्रीकृष्ण से साफ-साफ कह दिया―
                यदि चले बज्र दुर्योधन पर, ले लूँ बढ़कर अपने ऊपर।”
 
             इसी कारण इन्द्र को कवच कुण्डल का तथा कुन्ती को उसके चार पुत्रों का प्राण
दान देकर कर्ण अपने धर्म की रक्षा करता है। अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी वह सत्य
और धर्म पर डटा रहता है।
       अन्त में हम कह सकते हैं कि रश्मिरथी में कर्ण का एक आदर्शवादी चरित्र चित्रित
हुआ है। रश्मिस्थी का कर्ण और सत्य का पोषक है। वह अधर्म का घोर विरोधी है। वह
अपने जीवन के निर्धारित सिद्धान्त को सदा अपनाता हुआ चलता है। अपने को निर्बल,
दुर्बल तथा उपेक्षितों का प्रतिनिधि मानता है तथा उसके लिए अपना प्राण तक गँवाने में
नहीं हिचकता।
 
                   कुन्ती का चरित्र
      रश्मिरथी में कुन्ती का एक कारुणिक रूप चित्रित किया गया है। वह सदा पश्चाताप,
विवशता और क्षोभ के गहन अन्धकार में राह ढूँढ़ती फिरती है। प्रथम सर्ग में वह विह्वला
और बिकला नारी के रूप में आती है। रंगभूमि में अर्जुन को नीचा दिखाने के अभिप्राय
से कर्ण अपनी रण-कलाएँ दिखाकर अपना प्रभाव जमा चुका है। कौरव प्रसन्न है। पाण्डवों
को ईर्ष्या हो रही है। परन्तु कुन्ती अपनी विवशता की उलझन में उलझी है, वह “सबके
पीछे चली एक विकला मसोसती मन को।” उसके मन की स्थिति―
                ‘उजड़ गये हो स्वप्न कि जैसे हार गयी हो दाँव,
                 नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुन्ती के पाँव।
 
        एक ओर लज्जा और धर्म से सहमकर वह कर्ण को पुत्र स्वीकार करने में भयभीत
हो रही है। दूसरी ओर माँ का हृदय विलख रहा है। कर्ण को समझाते हुए श्रीकृष्ण कुन्ती
की चर्चा करना नहीं भूलते। वे कहते हैं―
                              “खोयी मणि को जब पायेगी,
                                कुन्ती फूली न समायेगी।”
 
         श्रीकृष्ण की यह उक्ति स्वतः सत्य है। क्योंकि कुन्ती हृदय से अपने पुत्र कर्ण को
अपनाना ही चाहती है। परन्तु राजनीति के तराजू पर जब पुत्र का स्नेह तौला जाता है।
तब कुन्ती का स्नेह मात्र एक ढ़ोंग सा दीखने लगता है। कर्ण इस भेद भरी बात को स्पष्ट
करता है।
                   “कैसी होगी वह माँ कराल, निज तन से जो शिशु को निकाल।
                     धाराओं में धर आती है, अथवा जीवित दफनाती है?”
 
       अगर कुन्ती के पास सचमुच माँ का हृदय होता तो वह कम-से-कम छिपकर भी
पुत्र की सुधि तो लेती! अपने आँचल की छाया तो देती, परन्तु कुन्ती ने ऐसा कुछ भी
नहीं किया। वह तो―
                         कुन्ती गौरव में चूर रही, मुझ पतित पुत्र से दूर रही।
 
           कुन्ती अब क्यो कर्ण को अपनाना चाहती है। कर्ण अब भी तो पहले जैसा ही है।
अब भी तो उसको अपनाने में उसे लोक-लाज का भय है।
कुन्ती के चरित्र का सत्य रूप कर्ण प्रकट करता है। पुस्तक के पाँचवे सर्ग में कुन्ती
के चरित्र पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। महाभारत की पूरी तैयारी हो चुकी है। कुन्ती
युद्ध की भीषणता सोचकर भयातुर हो उठी है। पाण्डवों के भविष्य की दुश्चिन्ताएँ उसे
सता रही है। कर्ण की दानशीलता को वह सुन चुकी है। युद्ध रोकने की अब एक ही
राह उसके सामने है। वह है कर्ण को समझाना। यो कुन्ती के मातृ-हृदय का परिचय इन
पंक्तियों से मिलता है―
                       “दो में जिसका उर फटे, फटूंगी मैं ही,
                        जिसकी भी गरदन कटे, कटुगी मैं ही।
 
          कुन्ती के सामने अर्जुन और कर्ण समान हैं। वाण की नोक दोनों में से किसी को
भी लगे पर वह तो माँ कुन्ती के हृदय को ही बेधेगी―
                        “पार्थ को कर्ण या पार्थ कर्ण को मारे,
                         बरसेंगे किसपर मुझे छोड़ अंगारे?”
 
             कर्ण अपने हठ पर दृढ़ रहता है। फिर भी वह कुन्ती को बिल्कुल निराश नहीं
लौटाता। वह आश्वासन देता है कि कुन्ती सर्वदा पाँच पुत्रों की माँ बनी रहेगी। वह कुन्ती
के चार पुत्रों को युद्ध में नहीं मारेगा। अर्जुन या कर्ण दोनों में से एक के मरने पर भी
कुन्ती पाँच पुत्रों की माँ बनी ही रहेगी। कर्ण के इस सुभाव से कुन्ती को कोई प्रसन्नता
नहीं होती। उसके हृदय का दुःख जैसा का तैसा बना ही रहता है। वह कहती है―
                    “बनने आयी थी छः पुत्रों की माता,
                     रह गया वाम का पर, वाम ही विधाता।
 
   परशुराम का चरित्र
                   ‘रश्मिरथी’ में परशुराम के दर्शन द्वितीय सर्ग में होते हैं। परशुराम जन्म से
ब्राह्मण पर कर्म से क्षत्रिय हैं। उनका चरित्र दो विरोधी तत्वों का सम्मिश्रण है। इनमें एक
ओर तप है तो दूसरी ओर वीरता है, एक ओर ममता और स्नेह है तो दूसरी ओर
कठोरता। परशुराम एकान्तवासी एक तपस्वी ऋषि है, पर साथ ही एक साथ एक पराक्रमी
योद्धा भी हैं। यह कथा है कि वे क्षत्रियों के परम द्रोही थे। उन्होंने 21 बार क्षत्रियों से युद्ध
किया था और पृथ्वी को वीरों से विहीन कर दिया था। (भुजबल भूमि भूप बिना कीन्ही)
कवि ने निम्नांकित पंक्तियों में परशुराम का सुन्दर चित्रण किया है―
                     “मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल,
                      शाप और शर, दोनों ही थे, जिस महान् ऋषि के सम्बल
                      यह कुटीर है उसी मह्यमुनि, परशुराम बलशाली का,
                      भृगु के परम पुनीत वंशधर, व्रती, वीर, प्रणपाली का।”
 
       कर्ण के मुखमण्डल पर तेज था। उसने परशुराम से अपने को ब्राह्मण कुमार बताया,
क्योंकि परशुराम ब्राह्मणतिरक्ति किसी अन्य को विद्या-दान नहीं करते थे। परशुराम कर्ण
की सेवा और सुश्रुषा से बड़े प्रसन्न हुए। परशुराम के चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता
यह है कि वे बड़े क्रोधी हैं। जरा-सी बात में क्रुद्ध हो जाते हैं और श्राप दे बैठते हैं। जब
उन्हें लगता है कि कर्ण ब्राह्मण बालक नहीं वरन् क्षत्रिय कुमार है तो एकम आगबबुला
हो जाते हैं और कर्ण पर बरस पड़ते है―
                “दाँत पीस, आँखें तरेर कर बोले-कौन छली है तू ?
                  ब्राह्मण है या और किसी अभिजन का पुत्र बली है तू ?
                  x                           x                              x
                “तु अवश्य क्षत्रिय है, पापी ! बता न तो, फल पायेगा,
                  परशुराम के कठिन शाप से अभी भस्म हो जायेगा।”.
 
      कर्ण क्षमा माँगता है, पश्चाताप करता है, पैरों पर गिरता है, परशुगम कहाँ मानने
वाले। वे तत्काल शाप दे देते हैं―
                     “सिखलाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो, काम नहीं वह आयेगा
                      है यह मेरा शाप, समय पर उसे भूल तू जायेगा।”
          क्रोध में शाप तो दे दिया पर साथ ही साथ कर्ण को विनम्रता, शील तथा सेवा
का ध्यान आते ही उनको हृदय में करूणा का स्रोत फूट पड़ा है। वे असमंजस में पड़
जाते है और कहते हैं―
                      “पापी, बोल अभी भी मुख से, तू न सूत, रथचालक है,
                       परशुराम का शिष्य विक्रमी, विप्रवंश का बालक है।
 
शाप देने के पश्चात् उनको पश्चाताप होता है और वे सोचते है―
                         “सुत सा रखा जिसे, उसको कैसे कठोर हो मारूँ मैं?
                          जलते हुए क्रोध की ज्वाला लेकिन, कहाँ उतारूँ मैं?
 
कर्ण को देखकर उन्हें दया आती है और वे उससे कहते हैं―
                        “जाओ, जाओ कर्ण ! मुझे बिलकुल असंग हो जाने दो।
                          बैठ किसी एकान्त कुंज में मन को स्वस्थ बनाने दो।
                          भय है, तुम्हें निराश देखकर छाती कहीं न फट जाये,
                          फिरा न लूँ अभिशाप, पिघलकर वाणी नहीं उलट जाये।”
 
           इस प्रकार हम देखते हैं कवि ने परशुराम के दोनों पहलू-कठोरता तथा कोमलता
दिखाने में बड़ी सफलता प्राप्त की है।

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