कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर

कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर

                       कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर

कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर बंगाल के प्रसिद्ध पुरुषों में से हैं । वह
बंग-साहित्य के देदीप्यमान रत्न हैं। बंगाल में ऐसा कोई घर न होगा, जिसमें
उनके काव्य और निबन्ध, उनके उपन्यास और नाटक, उनकी आख्यायिकाएँ
और गान न पढ़े जाते हों। उन्होंने अपने लेखनी के बल से शिक्षित बंगालियों
के विचारों में बहुत बड़ा परिवर्तन कर डाला है। इसीलिए वह इस समय बंग
भाषा के अद्वितीय लेखक समझे जाते हैं ।
 
रवीन्द्र बाबू का जन्म सन् 1861 ई. में हुआ था। वह बाबू द्वारकानाथ
ठाकुर के पौत्र और सुप्रसिद्ध महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के पुत्र हैं और उनका वंश
अपनी विद्वता के लिए चिरकाल से प्रसिद्ध हैं। इसी वंश में कितने ही धार्मिक,
दार्शनिक, साहित्य-सेवी और शिल्पकार पुरुषों ने जन्म लेकर बंग देश का मुख
उज्जवल किया है ।
 
रवीन्द्र बाबू मातृस्नेह से वंचित रहे । शैशव काल ही में उनकी माता का
देहान्त हो गया था। पिता, महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर, ही ने उनका पालन-पोषण
किया। रवीन्द्र बाबू ने किसी कॉलेज में शिक्षा नहीं पाई। स्कूल की साधारण
शिक्षा प्राप्त कर लेने पर उन्होंने आगे पढ़ना बन्द कर दिया। घर पर ही उनको
जो शिक्षा मिली और उनके पिता ने उनके हृदय-क्षेत्र पर जिस बुद्धि विकासक
बीज का वपन किया, उसी की बदौलत रवीन्द्र बाबू कुछ के कुछ हो चले ।
 
लड़कपन ही सं रवीन्द्र बाबू ने अपनी कुशाग्र बुद्धि का परिचय देना आरंभ
कर दिया। जब वह पूरे 16 वर्ष के भी न थे, तभी वे गद्य और पद्य, दोनों ही
बहुत अच्छी प्रकार लिखने लगे। उन्हें गाने का शौक भी लडंकपन से ही हुआ।
पिता को वह बहुधा पारमार्थिक गीत गा-गाकर सुनाते थे। पिता ने उनके गाने
से प्रसन्न होकर उन्हें ‘बंग देश की बुलबुल’ की उपाधि दे दी थी ।
 
ज्यों-ज्यों रवि बाबू की वयोवृद्धि होती गई, त्यों-त्यों उनके विशेष गुणों का
भी परिचय मिलता गया। बँगला-साहित्य के जिस विभाग में उन्होंने हाथ डाला,
उसी में सफलता प्राप्त हुई। रवीन्द्र बाबू मानव जाति के भिन्न-भिन्न भावों को
शब्द-चित्र द्वारा खींचने में बड़े ही कुशल हैं। उनके लिखने की शैली में
आध्यात्मिकता भी रहती हैं उनकी बदौलत बंगाल के आध्यात्मिक जीवन में
बहुत उलट-फेर हो गया है । छोटी-छोटी शिक्षा-प्रद आख्यायिकाएँ लिखने में
वह अपना सानी नहीं रखते। भारती, बालक, साधना और बंग-दर्शन नामक
बंगला की मासिक पुस्तकों का सम्पादन भी उन्होंने बहुत काल तक किया है ।
 
         रवीन्द्र बाबू केवल लेखक ही नहीं हैं। वह बड़े भारी अभिनेता भी हैं ।
उनका सुर बहुत मीठा तो नहीं, पर संगीत-विद्या के वहं पूरे ज्ञाता हैं। उन्होंने
अनेक गीत बनाए हैं उन गीतों को गाने में वह नये-नये सुरों का प्रयोग करते
हैं, वह कभी-कभी त्योहारों या ब्रह्म समाज के उत्सवों पर सर्वसाधारण के सामने
भी गाते हैं ।
 
वह वक्ता भी अच्छे हैं उनकी वक्तृता बड़ी ही हृदयहारिणी होती है। उसे
वह प्रायः लिखकर सुनाते हैं। उनके पढ़ने का ढंग ऐसा अच्छा है कि लोग
तन्मनस्क हो जाते हैं । जब कभी उनकी वक्तृता अथवा गान-सर्वसाधारण में
होता है, तब बेहद भीड़ होती है ।
 
रवीन्द्र बाबू बड़े स्वदेश-भक्त हैं। उन्होंने स्वदेश-भक्ति पर कितनी ही
कविताएँ लिखी हैं। मातृभूमि के वह पक्के आराधक हैं, और स्वदेश-प्रेम से
उनका हृदय परिपूर्ण है । परन्तु उनकी इस देश-भक्ति में संकीर्णता और विदेश
तथा विदेशियों के प्रति द्वेष नाम का भी नहीं वह राजनीतिज्ञ भी हैं; परन्तु उनकी
‘राजनीतिज्ञता वाग्वितण्डा ही में नहीं समाप्त हो जाती । उनकी राजनीति
चरित-निर्माण से बहुत अधिक सम्बन्ध रखती है ।
 
रवीन्द्र बाबू न बी.ए. हैं और न एम. ए. । उन्होंने किसी विश्वविद्यालय से
कोई उपाधि नहीं पाई। परन्तु वह इतने अध्ययनशील हैं कि प्रसिद्ध-प्रसिद्ध
भाषाओं की नामी-नामी पुस्तकों में शायद ही कोई ऐसी हो, जिससे वह परिचित
न हों । केवल ज्ञान-वृद्धि के लिए उन्होंने भारत ही में भ्रमण नहीं किया, किन्तु
यूरोप, अमेरिका और जापान भी घूम आये हैं। लंदन में उन्होंने कुछ काल तक
अंग्रेजी साहित्य की शिक्षा भी प्राप्त की है। कलकत्ते के पास बोलपुर में रवीन्द्र
बाबू का एक ‘शांति निकेतन’ है। उसमें उन्होंने एक ब्रह्मचर्याश्रम खोल रखा
है । वहाँ विद्यार्थी अपने शिक्षकों के साथ रहकर, ब्रह्मचर्य-पालन करते हुए,
उपयोगी शिक्षा प्राप्त करते हैं। आगे चलकर यह निकेतन विश्वभारती का रूप
ग्रहण करने वाला है ।
 
साहित्य-सेवियों में बहुधा पारस्परिक प्रीति का अभाव देखा जाता है । इसे
बहुत लोग अच्छा नहीं समझते । इस अभाव को दूर करने की चेष्टा भी,
कभी-कभी सभा-समिति-सम्मेलन करके की जाती है । इस विषय में, रवीन्द्र
बाबू ने एक लेख में अपनी सम्मति इस प्रकार प्रकट की है-
 
“इसमें संदेह नहीं कि साधारणतः मनुष्यों में पारस्परिक प्रीति का होना
कल्याणकारी हैं साहित्य-सेवियों में भी यदि प्रीति-बंधन घनिष्ठ हों, तो अच्छी
बात हैं परन्तु साहित्य – सेवियों में प्रीति-विस्तार से किसी विशेष फल की प्राप्ति
हो सकती है, यह मानने के लिए मैं तैयार नहीं, अर्थात् यह नहीं कहा जा सकता
कि लेखक लोग यदि एक-दूसरे को प्यार करें, तो इससे उनके रचना कार्य में
भी विशेष सुबीता हो अथवा लेखकों का इससे कोई विशेष उपकार हैं व्यवसाय
की दृष्टि से प्रत्येक साहित्य-सेवी स्वतंत्र है । वे लोग परस्पर परामर्श करके,
सम्मिलित भाव से, अपना-अपना काम नहीं करते (क्योंकि वे किसी ज्वाइंट
स्टार्क कम्पनी के मेम्बर नहीं) । प्रत्येक लेखक अपनी निज प्रणाली का
अनुसरण करके, अपनी-अपनी विद्या बुद्धि के अनुसार, सरस्वती की सेवा करता
है । जो लोग दस आदमियों के दिखाए पथ पर चलकर, निश्चित नियमों के
अनुसार काम करना चाहते हैं सरस्वती कभी उनको अमृत फल देने की कृपा
नहीं करती (साहित्य में साम्प्रदायिकता इष्ट नहीं) ।
 
      “जो साहित्य-सेवी इस प्रकार एकाधिपत्य द्वारा परिवेष्टित हैं, उनमें कभी-कभी
पारस्परिक परिचय और प्रीति नहीं देखी जाती; कभी-कभी तो इनमें ईर्ष्या और
कलह की सम्भावना तक हो जाया करती है। एक पेशों वालों में चढ़ा-उतरी
का भाव दूर करना दुःसाध्य है। मनुष्य के स्वभाव में बहुत संकीर्णता और
विरूपता है। उसका संशोधन करना प्रत्येक मनुक्ष्य की अपनी आंतरिक चेष्टा
का काम है। किसी कृत्रिम प्रणाली द्वारा उसका प्रतिकार नहीं हो सकता । यदि
इस तरह प्रतिकार संभव होता, तो इस समय, इस विषय में, जो उद्योग हमलोग
कर रहे हैं, उसके बहुत पहले ही सत्ययुग का आविर्भाव हो गया होता ।”
 
        रवीन्द्रनाथ बाबू ने गद्य-पद्यात्मक सैकड़ों पुस्तकें बंगला में लिखी हैं ।
अंग्रेजी लिखने की योग्यता रखने पर भी वह उस भाषा में अपने विचार नहीं
प्रकट करते । यहाँ तक कि जो लोग अपने देश-भाईयों और आत्मीय जनों के
साथ अंग्रेजी भाषा में पत्र-व्यवहार करते हैं, उनके इस काम को रवीन्द्रबाबू
लज्जाजनक और गर्हित समझते हैं ।
 
        रवीन्द्र बाबू एक महान् पुरुष हैं । सरस्वती ही की आराधना करके वह
महान् हुए हैं। गत जनवरी में बंगाल ने जो सम्मान रवीन्द्र बाबू का किया और
हाथीदाँत के पत्र पर खंचित अभिनन्दन-पत्र, रजत- अर्ध्यपात्र, सोने का एक
कमल और एक माला आदि चीजें जो उन्ह भेंट कीं, वह सम्मान और वह भेंट
यथार्थ में रवीन्द्र बाबू को नहीं, किन्तु देवी सरस्वती की है । धन्य है वह देश
और वह जाति, जो अपने साहित्य-सेवियों का आदर करके भगवती सरस्वती की
उपासना करे, और धन्य है वह महान् पुरुष, जो सरस्वती मंदिर का पुजारी होने
के कारण अपने देश और जातिवालों से सम्मानित हो ।

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