किसी को अनुदान देने से उसके काम में हाथ बंटाना बेहतर है

किसी को अनुदान देने से उसके काम में हाथ बंटाना बेहतर है

              किसी को अनुदान देने से उसके काम में हाथ बंटाना बेहतर है

अर्थात् यज्ञ, दान, तप,रूप जो कर्म है, वह त्यागने योग्य नहीं है. यह कर्म निश्चित रूप से
बुद्धिमान लोगों को पवित्र करने वाले हैं.
       मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, अतः उसका प्रत्येक कार्य स्वयं के हित के लिए न होकर बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ के लिए होना चाहिए. इससे स्वयं को आत्मिक सन्तुष्टि मिलने के साथ-साथ अनेक लोगों को आनन्द प्राप्त होता है. हमारे समाज में यद्यपि बुरे लोग भी हैं, जो सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए ही कोई कार्य करते हैं और दूसरों की मदद बिलकुल
नहीं करना चाहते. इसका परिणाम यह होता है कि उन्हें आत्मिक सुखों से वंचित रहना पड़ता है. भले ही वे इस कुत्सित विचारधारा से दूसरों का शोषण कर, उनका मन दुःखी कर स्वयं को धनाढ्य बना लें, उनको वह खुशी कहाँ मिलने वाली जो दूसरों की मदद करने के पश्चात् मन को आह्लादित करती है. आज भी समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो स्वयं के सुखों का बलिदान करके दूसरों की मदद कर उनके जीवन में खुशियाँ भरते हैं.
          किसी की मदद करने का अर्थ उसे अनुदान स्वरूप धन देना ही नहीं होता, बल्कि उसके कार्यों में हाथ बँटाना, बेहतर विकल्प होता है. यदि हम उसके कार्यों में हाथ बँटाते हैं तो वह हतोत्साहित होकर उस कार्य को बीच में बन्द नहीं करेगा, बल्कि उसका हौसला
बढ़ जाता है और बेहतर परिणाम प्राप्त होते हैं. यहाँ तक देखा गया है कि मदद का हाथ
बढ़ाने से उसका कार्य सर्वोत्तम की श्रेणी में भी गिना जाता है. कई बार ऐसा भी देखा जाता है कि अनुदान के रूप में आर्थिक सहायता दिए जाने पर सम्बन्धित व्यक्ति अकेलापन महसूस करने की वजह से अपने कार्य में आई प्रतिस्पर्धात्मक परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर सफलता प्राप्त करने की उम्मीद छोड़ बैठता है. इस स्थिति में अनुदान के रूप में प्राप्त पर्याप्त धनराशि अनुचित उपयोग में खर्च होती चली जाती है, जिसका कोई सार्थक परिणाम नहीं मिल पाता.
       किसी के काम में हाथ बँटाने की बात में यदि यह सवाल उठता है कि अधिकांश लोगों के पास इतना समय कहाँ है कि किसी जरूरतमन्द के कार्य में हाथ बँटाकर उसका हौसला बढ़ाया जाए, तो इस सम्बन्ध में सटीक जवाब यह है कि जैसे हम अपनी दिनचर्या में किसी मित्र या सम्बन्धी से मिलने-जुलने या मनोरंजन के लिए घूमने-फिरने का समय निकालते हैं उसी तरह उस जरूरतमंद व्यक्ति के कार्य में हाथ बँटाने के लिए सुबह-शाम या छुट्टियों में अपना कुछ समय जरूर निकाल सकते हैं.
         यह अक्सर ही देखने में आता है कि लोग खाली समय को बिताने के लिए एक-दूसरे की बुराई करते हैं या फिर तास आदि खेलने का व्यसन पाल लेते हैं. यही नहीं कुछ लोग तो जुआ खेलने और शराब पीने में भी लिप्त रहते हैं. यह व्यसन स्वयं उन्हें तो पतन के गर्त में ले ही जाता है, समाज का भी अहित होता है, जो लोग इन व्यसनों में आनन्द एवं
सुख को ढूँढ़ने की कोशिश करते हैं, उलटे उन्हें शोक व दुःख ही मिलता जाता है, जीवन कठिनाइयों से घिरता चला जाता है, उनके परिवार की हालत दयनीय होती जाती है. इसके विपरीत जिन व्यक्तियों ने अपने खाली समय का सदुपयोग किसी संस्था से जुड़कर या किसी के सहायतार्थ उसके व्यवसाय में हाथ बँटाकर किया, वे न केवल उस संस्था या व्यक्ति के लिए मार्गदर्शक बने, बल्कि उन्हें देवतुल्य सम्मान भी मिला.
      यह बात सच है कि एकता में बड़ी शक्ति होती है. अतः जब हम किसी कार्य की शुरूआत करने वाले व्यक्ति को धन का अनुदान न देकर स्वयं उसके साथ काम में हाथ बँटाने का उपक्रम करते हैं तो हमारी देखा-देखी अन्य व्यक्ति भी हाथ बँटाने को तत्पर हो उठते हैं. इससे एक संगठन बनना सम्भव हो जाता है और उस संगठन में इतनी शक्ति निहित हो जाती है कि जिस कार्य की शुरूआत एक अकेले व्यक्ति ने की थी, वह दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति करते हुए सफलता की ऊँचाइयाँ छूने की ओर अग्रसर होता जाता है, जिससे हजारों लोगों को रोजगार मिलना भी सम्भव हो जाता है. यही नहीं वह उत्पाद समाज का चहेता उत्पाद बन जाता है, लोगों की आवश्यकता बन जाता है.
       वर्तमान समय में हमारा समाज भले ही आधुनिकता की दौड़ में आगे है, परन्तु सामाजिक तौर पर हमारे आपसी सम्बन्धों में कटुता बदी है. शहरों में तो यह स्थिति है कि लोग अपने पड़ोसी तक से सम्पर्क नहीं रखना चाहते, उनकी मदद करने के बारे में सोचना तो दूर की बात है. यही नहीं अक्सर लोग किसी की कोई नई शुरूआत को देखकर उसे
अनुदान देने या फिर उसके काम में हाथ बँटाने के बजाय, अपने कटु वचनों से हतोत्साहित भी करते हैं. इस स्थिति में लोगों को चाहिए कि वे अपने मन से कटुता की भावना को दूर करें और गीता के कर्मयोग का सिद्धान्त अपनाएं तो वे स्वयं का मनोबल गिरने से रोककर दूसरों की यदि धन से नहीं, तो तन और मन से तो मदद कर ही सकेंगे. जैसा कि गीता में
कहा गया है, हमें केवल अपना कर्त्तव्य करना चाहिए. फल ही इच्छा नहीं करनी चाहिए. मन की एकाग्रता से ही कर्म को सर्वश्रेष्ठ तरीके से किया जा सकता है. यदि मन में फल की इच्छा करके कोई कार्य करेंगे तो सम्भव है कि एकाग्रता भंग हो जाएगी और कार्य में सफलता मिलनी सम्भव नहीं हो सकेगी.
          ध्यान रहे कि निष्काम भाव से किए गए कार्य द्वारा सफलता, यश और आनन्द तीनों की प्राप्ति होती है. इस बात पर विश्वास करना आवश्यक है कि पारस्परिक सहयोग और समर्थन से सफलता निश्चित हो जाती है. एक-दूसरे के कल्याणार्थ मदद करने की भावना से ही श्रेष्ठ लक्ष्यों की प्राप्ति होती है, यदि हम निःस्वार्थ भाव से किसी के कार्यों में
मदद करते हैं, तो अपने लक्ष्य को पाने के लिए जो व्यक्ति प्रयासरत है उसका मनोबल बढ़ेगा और वह जो भी गलतियाँ कर सकता था, उससे बच सकेगा.
         कुछ लोगों का मानना है कि धन के रूप में अनुदान देना ही सबसे श्रेष्ठ है, क्योंकि धन ही सब कुछ है, इससे ही सभी समस्याएँ दूर हो सकती हैं. यह भी देखने में आता है कि आज मनुष्य का मूल्यांकन उसके धन से किया जाता है. किसी भी व्यक्ति का जब हम परिचय देते हैं तो आमतौर पर उसकी सम्पत्ति का वर्णन जरूर करते हैं. धन के आधार पर
ही आज किसी को छोटा या बड़ा आदमी माना जाने लगा है. यह दृष्टिकोण गलत है, क्योंकि जिसके पास धन नहीं है वह अपने तन-मन के सहयोग से किसी की बेहतर मदद करने में  सक्षम हो सकता है.
          श्रेष्ठता धन के बल पर नहीं, बल्कि सहयोगपूर्ण कार्यों से मिलती है. ‘सिसरो’ एक सामान्य व्यक्ति था, किन्तु वह अपने पुरुषार्थ के बल पर रोमन साम्राज्य का नीति-निर्धारक बनकर प्रतिष्ठित व्यक्ति बन सका. उसकी प्रतिष्ठा से ईर्ष्या करने वाले एक कुलीनवंशी ने एक दिन कहा-‘सिसरो, तुम एक सामान्य कुल के हो, जबकि में कुलीन राजवंश का
अंश हूँ. सिसरो ने बड़े ही सामान्य भाव से उत्तर दिया-‘महाशय! मैं एक सामान्य वंश का हूँ, किन्तु मेरे काम के कारण मेरे वंश की गणना कुलीन में होने लगेगी, जबकि आपके कार्य, वंश की कुलीनता समाप्त कर देने वाले सिद्ध हो सकते हैं. सिसरो की श्रेष्ठता उसके श्रेष्ठ कार्यों पर आधारित थी.जोकि सही और सच्ची श्रेष्ठता थी. वास्तव में श्रेष्ठ व्यक्ति उसी को कहा जाएगा जो अपने मानवीय गुणों को किसी-न-किसी रूप में इस प्रकार प्रकट करे जिससे समाज अथवा किसी व्यक्ति का हित हो. जो व्यक्ति मददगार प्रवृत्ति का होता है, अपनी स्थिति के अनुसार समाज अथवा व्यक्ति की सेवा करता है अथवा अपने किसी काम से उस आन्तरिक महानता का परिचय देता है जो उसकी आत्मा में सोई रहती है और जिसे मनुष्यता की उपाधि से पुकारा जाता है, वही व्यक्ति वास्तविक श्रेष्ठता का अधिकारी है.ऐसे गुणी तथा चरित्रवान व्यक्ति स्वयं के कर्तव्यों से तो श्रेष्ठ कहलाते ही हैं, दूसरे लोग भी उनकी मदद से लाभान्वित होकर उनको श्रेष्ठ मानते हैं और प्रतिष्ठित नजरों से देखते हैं,
            इस प्रकार किसी को अनुदान के रूप में धन न देकर उसके कार्यों में मदद करने के न केवल वह व्यक्ति अपने क्षेत्र में प्रगति की ऊँचाइयाँ छूता है, बल्कि मदद करने वाला मी श्रेष्ठतम व्यक्ति का दर्जा हासिल कर पाता है. आज भले ही हमारा समाज भीषण महंगाई से जूझ रहा है, किसी भी सामान्य व्यक्ति द्वारा अनुदान के तौर पर आर्थिक मदद
करना सम्भव नहीं है, ऐसे में मदद के नाम पर उसके कार्यों में सहयोग करना उसके लिए बहुत हद तक सम्भव है. इसके लिए बस उसे अपने मन को तैयार करने की आवश्यकता होगी. यदि मन में यह विचारधारा बैठ गई कि हमारे द्वारा अमुक व्यक्ति के कार्यों में सहयोग देने से उसके कार्यों का अच्छा परिणाम आ सकता है, या फिर उसका व्यवसाय बढ्ने
से अनेक लोगों को रोजगार मिल सकता है, तब निश्चित रूप से इस प्रकार का सहयोग सार्थक हो सकता है. अक्सर ऐसा भी होता है कि जिसे मदद की जरूरत होती है वह हमारे आर्थिक अनुदान की अपेक्षा हमारे द्वारा उसके कार्यों में की गई मदद से ज्यादा सुविधा महसूस करे, क्योंकि वह अकेले कार्य करके जो उत्पादन कर पा रहा था हमारे सहयोग के कारण उसमें बढ़ोत्तरी छोटी हुई दिखने लगती है. यह बदोत्तरी अनुदान के रूप में मिली धनराशि से कई गुना साबित हो सकती है.रोजगार कोई भी हो यदि उसमें सच्चे मन से किसी का शारीरिक तौर पर सहयोग प्राप्त होता है तो वह अवश्य फूलता-फलता है. ऐसे अनेक व्यवसाय हैं जिनमें कुशल व्यक्तियों के सहयोग से ही सफलता मिलनी सम्भव होती है. कुशल व्यक्तियों की नियुक्ति में काफी धन खर्च होने की भी सम्भावना होती है, अतः धनाभाव के कारण व्यवसाय प्रारम्भ करने वाला अपने व्यवसाय को समाप्त करने के बारे में निर्णय ले सकता है. ऐसे में यदि कोई व्यक्ति उसके व्यवसाय में अपनी कुशलता का सहयोग देने के लिए तैयार हो जाए तो वह व्यवसाय अच्छा-खासा चल पड़ने की स्थिति में आ सकता है.
          किसी को अनुदान देने की अपेक्षा उसके कार्यों में सहयोग करना श्रेष्ठतम मार्ग तो है परन्तु इसके लिए समाज में ईर्ष्या, द्वेष और कटुता की भावना को मिटाना होगा. किसी के लिए मदद करने की भावना प्रेमपूर्ण वातावरण में ही सम्भव है. इसकी शुरूआत समाज में हर व्यक्ति को एक-दूसरे की छोटी-छोटी मदद करने से हो सकती है. जब तक एक-दूसरे के प्रति अपनापन की भावना नहीं जाग्रत होती, तब तक इस तरह की प्रवृत्ति नहीं अपनायी जा सकती. अतः यदि कोई अनुदान के बदले शारीरिक या मानसिक रूप से सहयोग देने की इच्छा रखता है तो उसे भी स्वयं के स्वार्थ से परे समाज हित की भावना से अपना कार्य प्रारम्भ करना होगा. यही भावना लोगों को अनुदान के बदले उसके कार्यों में मदद करके
उसकी प्रगति में सहायक बन सकेगी.
            अनुदान के रूप में धन देना हालांकि सरल है, परन्तु इसके बदले कार्यों में मदद करना कठिन प्रतीत होता है, इसके लिए समाज में स्थापित किसी भी संस्था या व्यक्ति विशेष को भी अपने कार्यों के माध्यम से केवल स्वयं के उत्थान के लिए ही नहीं बल्कि सभी के उत्थान के लिए सदैव प्रयलशील रहने की कोशिश करनी होगी. इससे आपस में मनुष्यता
का रिश्ता तो प्रगाद होगा और हमारा राष्ट्र भी प्रगति की ऊँचाइयाँ छू सकेगा. हमें अपने मन में यह दृद विश्वास लाना होगा कि हमारी स्वयं की कार्यों में हाथ बँटाने की अल्प मदद किसी को अपने व्यवसाय में श्रेष्ठतम उपलब्धि प्रदान कर सकती है. हम अपनी क्षमताओं का भरपूर उपयोग करते हुए मदद रूप में यदि किसी के कार्यों में सहयोगी के तौर पर योगदान देते हैं तो यह आर्थिक अनुदान से उच्चतर श्रेणी का साबित होगा, क्योंकि इससे सम्बन्धित व्यक्ति का मन सकारात्मक भावनाओं से ओतप्रोत हो सकेगा और वह अपने कार्य को और बेहतर तरीके से पूर्ण करने में सक्षम होगा. दूसरे के कार्यों में हाथ बँटाने की यह प्रवृत्ति यदि प्रत्येक मनुष्य में विकसित हो जाए तो समाज में एक नया आदर्श प्रस्तुत किया जा सकता है और हम सचमुच सुनहरे कल में प्रवेश कर एकता व अखण्डता का साम्राज्य स्थापित कर सकेंगे.

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