कौन सही, कौन गलत ?

कौन सही, कौन गलत ?

                   कौन सही, कौन गलत ?

सामान्य व्यक्ति की सोच प्रायः इसी तथ्य के चारों ओर मँडराती रहती है कि
कौन सही है, कौन गलत है ? किन्तु सही और गलत का निर्णय करने के लिए तराजू
है ही कहाँ ? किसी भी स्तर पर ऐसा कोई सुनिश्चित मापदण्ड या पैमाना नहीं है जिसके
आधार पर सही अथवा गलत ठहराया जा सके सही और गलत सापेक्षिक अवधारणाएं
हैं जिनके अर्थ एक ही समय में अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग हो सकते हैं.
किसी एक व्यक्ति के लिए कोई तथ्य, कोई विचार, कोई भावना एक समय विशेष पर
सही हो सकती है, उसी व्यक्ति के लिए वही बात किसी अन्य अवसर पर गलत हो
जाती है. उदाहरणार्थ जब कोई व्यक्ति अपनी पुत्री के विवाह की बात करता है, तो
दहेज को अभिशाप और बुरा बताता है, वही व्यक्ति अपने पुत्र के विवाह पर दहेज लेने
को सही सिद्ध करने के लिए अनेक तर्क देता है. आत्मज्ञानी पूज्य विराट गुरुदेव जब
भी किसी व्यक्ति के द्वारा ऐसा सुनते कि अमुक व्यक्ति गलत है, अमुक व्यक्ति सही
है, तब वे उस व्यक्ति समझाया करते थे कि आप इस प्रकार की भाषा का प्रयोग
न करें कि वह व्यक्ति गलत है या हम सही हैं. यदि आपकी सोच आत्मकेन्द्रित है, तो
आप सदैव यही विचार रखेंगे कि आप ही सही हैं, किन्तु जरा सोचें कि क्या आप
सर्वोच्च हो चुके हैं या आप पूर्ण ज्ञानी हो चुके हैं ? वस्तुतः यह अपने आपको ही न
समझ पाने की स्थिति का द्योतक है जब आप स्वयं को ही पूर्णता से नहीं समझ पाए,
तो आप दूसरों को भी नहीं जान सकते. शाश्वत सत्य यही है कि कोई व्यक्ति दूसरों
को उतना ही जान सकता है जितना कि वह स्वयं को जानता है. यदि व्यक्ति स्वयं
के प्रति अज्ञानी है, तो वह दूसरों को समझने अथवा जानने का कितना ही प्रयास कर लें,
सारा प्रयास व्यर्थ ही जाएगा. वास्तविकता यह है कि व्यक्ति औरों को नहीं जान पाता,
बल्कि वह औरों को अपनी मानसिकता, अपनी सोच के साथ जानने और समझने का प्रयास
करता है. यदि कोई व्यक्ति हमारी स्वयं की अपेक्षाओं की कसौटी पर खरा उतरता है
तो हम कहना प्रारम्भ कर देते हैं कि वह व्यक्ति सही है यदि कोई व्यक्ति हमारी
अपेक्षाओं की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, तो हमारी धारणा, हमारी सोच उस व्यक्ति
के गलत होने पर केन्द्रित हो जाती है. हम कहने लगते हैं कि अमुक व्यक्ति गलत है.
अमुक तथ्य गलत है.
       
  पूज्य गुरुदेव विराटजी का कथन है कि “दुनिया में कोई भी व्यक्ति न तो सर्वथा
सही होता है और न सर्वथा गलत. वह जैसा है. उसको उसी रूप में देखना और समझना
चाहिए, उसको सही और गलत के रूप में परिभाषित करने का प्रयास ही नहीं किया
जाना चाहिए. सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड परिवर्तनशील है, प्रकृति परिवर्तनशील है, जल-वायु ऊर्जा
परिवर्तनशील है, मौसम परिवर्तनशील है. इसी कड़ी में मानव और मानव व्यवहार भी
परिवर्तनशील हैं. व्यक्ति में हर पल हर क्षण परिवर्तन हो रहा है समय में परिवर्तन हो
रहा है; स्थान में परिवर्तन हो रहा है: परिस्थितियाँ बदल रही हैं; निमित्तों में परिवर्तन
हो रहा है. इस परिवर्तनशील प्रवाह एवं सतत् गतिमान जगत में किसी के भी प्रति
कोई भी एकांत धारणा बना लेना कहाँ तक उचित है. ऐसा करना न तो सम्भव है और
न न्यायोचित ही.”
         
 भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अनेकांत दर्शन के रहस्य को समझकर और
आत्मसात करके हम किसी अन्य को सही अथवा गलत ठहराने की अपनी आदत से
छुटकारा पा सकते हैं. कितना अच्छा हो कि हम किसी व्यक्ति को सही या गलत ठहराने
के बजाय यह कहें कि अमुक व्यक्ति के विचार, अमुक व्यक्ति की सोच, अमुक
व्यक्ति का अमुक कृत्य हमारे अनुकूल नहीं है या हम इससे सहमत नहीं हैं. वैचारिक
भिन्नता एक वास्तविकता है सहमति और असहमति वैचारिक भिन्नता से उपजे दो
कारक हैं, लेकिन इनमें से कोई भी कारक हमें यह निर्णय लेने का अधिकार नहीं देता
कि जिस विचार, जिस सोच से हम सहमत नहीं है उसे हम गलत कहकर नकार दें.
जिसे हम गलत कह रहे हैं हो सकता है कि वही किसी अन्य अपेक्षा से सत्य हो किसी
सही को यदि असंख्य लोग भी गलत कहें, तो भी वह गलत नहीं हो सकती.
सत्य-सत्य है- सर्वथा सत्य है और सत्य ही रहेगा. हाँ, व्यक्ति विशेष के लिए कुछ
उपयोगी हो सकता है, कुछ अनुपयोगी हो सकता है, कुछ ग्रहण करने योग्य हो सकता
है, कुछ छोड़ने योग्य हो सकता है, किन्तु सभी के लिए सभी कुछ ना तो एकांततः
अच्छा है, ना ही बुरा अतः हमें चाहिए कि हम सबसे पहले हमें विचारों के विज्ञान को
समझना होगा. हमें इस को समझना होगा कि हमारे विचार ही वस्तुएँ बनती हैं.
         
 जितना भी प्रत्यक्ष जगत् है, वह सब कुछ हमारे विचारों व भावनाओं का ही
परिणाम है. हर एक व्यक्ति अपने विचारों व भावों द्वारा स्वयं को सृजित करता है. स्वयं
की जिन्दगी के ताने-बाने बुनता है. न केवल बुनता है वरन् उधेड़ता भी स्वयं ही है. ऐसे
में हर एक इंसान को अपनी विचार प्रक्रिया के प्रति सजग होना परम आवश्यक है.
आधुनिक शिक्षा प्रणाली में इस बात की समझ अवश्य बार-बार दी जानी चाहिए कि इंसान
ही अपने विचारों को चुनता है और अपने विचारों से अपने जीवन की घटनाओं को
बुनता है. अगर वो अपनी आन्तरिक समझ को जगा कर अपने विचारों को वस्तुओं
की भाँति सजगता से चुनना प्रारम्भ कर दे तो फिर वैचारिक प्रदूषण का प्रभाव
स्वयमेव तिरोहित हो जाएगा, किन्तु इसके लिए…
         व्यक्ति की अच्छाइयाँ ग्रहण करें, उसकी बुराइयों से परहेज करें. कोई व्यक्ति अपने
आपमें अच्छा या बुरा नहीं होता. सामाजिक-आर्थिक राजनीतिक – नैसर्गिक धार्मिक
वातावरण में व्यक्तियों की सोच और अवधारणा बनती है. चोर और डाकू भी
दयालु हो सकते हैं. कृपण भी दानी हो सकता है. इनकी अच्छाइयाँ हमारे स्वयं के
लिए अनुकरणीय हो सकती हैं, उसकी बुराइयों, उसके दुष्कर्मों को व्यक्त करके
हम अपने विचारों को प्रदूषित क्यों होने दें. ऐसा करके हम अपने आपको परेशान क्यों
करें. जो जैसा है वह वैसा ही है. हम उसे उसी रूप में देखना सीखें. यदि हम ऐसा
करना सीख गए, तो हमारा जीवन अनेक प्रकार की व्यथाओं और परेशानियों से मुक्त
हो जाएगा और फिर न कोई मित्र रहेगा और न कोई शत्रु यही सर्वोत्तम है जैसा कि
कबीरदास ने कहा था.
    “कबिरा खड़ा बाजार में, माँगे सबकी खैर।
        ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर ।”

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