क्या औपनिवेशिक मानसिकता भारत की सफलता में बाधक हो रही है ?

क्या औपनिवेशिक मानसिकता भारत की सफलता में बाधक हो रही है ?

क्या औपनिवेशिक मानसिकता भारत की सफलता में बाधक हो रही है ?

चाणक्य ने कहा था “किसी भी राष्ट्र को विनष्ट करने के लिए उस देश की
सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं पर प्रहार कर उसे नष्ट कर दीजिए, वह देश स्वतः
समाप्त हो जाएगा.” मनुष्य की श्रेष्ठ साधनाएं उसकी संस्कृति होती है. भारतीय संस्कृति
का मूलाधार वहाँ के निवासियों के अन्तरात्मा के विचार हैं, उन विचारों में भलाई, प्रेम,
अनुग्रह, नम्रता, विनय, मित्रता, मर्यादा, ईमानदारी, तपस्या, पवित्रता, दया, दान,
सम्मान, सत्कार, सत्यता, शुद्धता, आत्मसंयम, बुद्धिमता, आराधना, सदाचार, क्षमा, त्याग,
कर्तव्यपरायणता, स्वावलम्बन इत्यादि रहे हैं. इन विचारों के संवाहक श्री राम, कृष्ण, बुद्ध,
विवेकानन्द, गांधी आदि महापुरुष रहे हैं. इन विचारों ने भारतीय संस्कृति में वसुधैव
कुटुम्बकम् एवं अतिथि देवो भवः के भावों को सृजित किया. जिसके कारण-“सरजमीने
हिन्द पर अकवा-ए-आलम के फिराक, काफिले बसते गए, हिन्दुस्तां बनता गया”.
          अतीत में यहाँ मेसोपोटामियन ईरानी, यूनानी, रोमन, सिथियन, तुर्की, फारसी,
अरबी और यूरोपियन जातियों के लोग आए एवं यहीं के बनकर रह गए. जैसे माँ की गोद
में असीम गहराइयाँ होती हैं वैसे ही भारत माँ विश्वबन्धुत्व की जननी है. विश्व के
सर्वोत्कृष्ट विचारों का ज्ञान भारतीय संस्कृति में मिलता है. इसीलिए तो कहा है. “कुछ
बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी.” 
           यूरोपियन व्यापारियों के आगमन के साथ भारत की मौखिक-वैचारिक शिक्षा पर,
लिखित-मानसिक शिक्षा का शुभारम्भ हुआ. अंग्रेजों के भारत पर आधिपत्य के बाद एक
नवशिक्षित वर्ग का भारत में उदय हुआ जो एक महान् घटना थी. इन शिक्षित युवा वर्ग
के विचार मस्तिष्क की परिधि में आबद्ध होने लगे. अंतःकरण के उद्धरण अब
अदृश्य होने लगे तथा स्वतन्त्र चिन्तन की मानसिकता को गिरवी रख दिया गया. ईस्ट
इंडिया कम्पनी ने फरवरी 1835 के अपने स्मरण-पत्र में लिखा कि भारत में एक ऐसा
वर्ग बनाया जाए जो रंग तथा रक्त में तो भारतीय हो, परन्तु प्रवृत्ति, विचार, नैतिकता
एवं बुद्धि से अंग्रेज हो. मैकाले का यह विचार साकार होने लगा. 1857 ई. का
प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम हिन्दू-मुस्लिम की सहभागिता से लड़कर भी हम पराजित हुए,
क्योंकि इस शिक्षित वर्ग ने ब्रिटिश हुकूमत की रक्षा के लिए एक मजबूत दीवार का
कार्य किया. भारत मानसिक गुलाम बन चुका था. ऋषि-मुनियों की आर्य संस्कृति एवं
शिक्षा पर पाश्चात्य संस्कृति एवं शिक्षा का वर्चस्व निरन्तर बढ़ रहा है.
            हमारा युवा वर्ग विदेशी भाषा, विदेशी वेशभूषा, विदेशी भोजन-पद्धति, विदेशी
जीवन पद्धति, विदेशी पर्यटन पद्धति अपनाने में लगा है या यूँ कहें कि उसकी नियति
अब पूर्णरूपेण विदेशी बन गई है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. आचरण से हम
भ्रष्ट बन गए हैं. प्रामाणिक जीवन के उदाहरण बहुत ही कम शेष रह गए हैं. हमारा चारित्रिक
पतन होने लगा है और रिसता हुआ चरित्र कभी महान् व्यक्तित्व का निर्माण नहीं कर
सकता न ही वह महान् राष्ट्र का निर्माण कर सकता है, क्योंकि नकल करने वाला
कभी परीक्षा के सर्वोच्च परिणाम नहीं दे सकता उसे गिरना पड़ता है. नकली पंख
लगाकर हंस बनने वाले कौवा और शेर की खाल ओढ़कर अपनी वास्तविकता छिपाने में
प्रयत्नशील गंधर्वराज सदैव सफल नहीं हुए. इन कहानियों की भाँति हम भी बाह्य
साधनाओं एवं साधनों के वशीभूत बन गए हैं. हम कुंठित, तनावग्रस्त, स्वार्थी, अर्थवादी
भोगवादी और भौतिक बन गए हैं. प्रेम, सेवा, समर्पण, आत्मीयता और आध्यात्म के
भाव तिरोहित हो गए हैं. व्यक्तित्व के दुर्बल पक्षों के आगे हम पराजित हो गए हैं.
              यही औपनिवेशिक मानसिकता है जिसकी आँखों पर पट्टी बाँधे हम प्रगति के
मार्ग पर आरूढ़ हो चले हैं क्या हम पथ पर नहीं भटकेंगे ? अपने को अमरीकी बताने में
गर्व महसूस करने वाली यह मानसिकता भारत में गंगा, गीता और गांधी को भूल चुकी
है. ऐसे विचारों-भावों से कर्म करने वालों से राष्ट्र प्रगति पथ पर अग्रसित नहीं हो सकता.
प्राकृतिक एवं मानवीय संसाधनों में अब्बल राष्ट्र के पिछड़ेपन का कारण औपनिवेशिक
मानसिकता को धारण करना ही है।
         आज व्यक्तिगत, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं आध्यात्मिक जीवन
में हर जगह हम सुख की खोज में दुःखी हैं. हम भारतीय संस्कृति से विमुख होकर
पाश्चात्य संस्कृति के प्रति उन्मुख हो रहे हैं. सौन्दर्य की खोज में हम सत्यम्-शिवम् को
भूल रहे हैं. इसी मानसिकता के चलते युवा वर्ग कुठित एवं हीन भावना से ग्रस्त हो चला
है. श्रम-स्वावलम्बन की श्रेष्ठता को भूल कर अमीर बनने के शोर्ट कट ढूँढ रहा है
कर्मण्यता एवं कर्म के प्रति उमंग की जगह वह तस्करी, कालाबाजारी एवं नक्सली
कार्यों पर बल दे रहा है. प्राचीनकाल में व्यक्ति अपने परिवार के साथ कृषि-
पशुपालन एवं जातिगत् कर्म करके भी सुखी तथा प्रसन्नतापूर्ण रहता था, परन्तु वर्तमान
बाजारीकरण एवं भोगवाद की चकाचौंध ने व्यक्ति को परिवार से तो क्या स्वयं से भी
विलग कर रखा है. घर अब मकान बन गया है यहाँ भव्य महलों की सम्पन्नता तो
है, परन्तु पारिवारिक प्रसन्नता नहीं है. संयुक्त परिवार विखण्डित हो रहे हैं. माता-
पिता, भाई-बहिन, दादा-दादी, नाना-नानी का मार्गदर्शन बच्चों को मिलना बंद हो
है. भौतिकवाद ने पारिवारिक श्रेष्ठ परम्पराओं को कलकित कर दिया है। शील सदाचार,
मर्यादावादी हमारे उदात्त जीवनदर्शी विचारों को पाश्चात्य मानसिकता निगल रही है.
आज पिताजी→डैड, माँ→मम्मी, राम→रामा, योग→योगा, धाय माँ→नर्स बन गई
है. आज गल-बैया डाल कर खेलने वाली मित्र मंडली और दादी-नानी से नैतिकता की
शिक्षा लेने की कहानियाँ किताबों में सिमट गई हैं. इस मानसिकता ने नारी को शिक्षित
एवं स्वतंत्र तो किया, परन्तु, वह आज मर्यादाहीन हो रही है. हमारी स्त्री शक्ति
आज माँ-बहिन के व्यक्तित्व से अधिक, आकृति रूप, वेश विन्यास द्वारा बाजारी
शक्तियों को लुभाने को प्रयासरत है. विवाह जैसे संस्कार अदृश्य होने लगे हैं. हमें याद
रखना है हमारी परम्परा वेश्यावृत्ति की न होकर आग में कूद कर जौहर करने की
रही है. पति हत्या में सहयोगिनी बनने की न रह कर पति को कर्त्तव्यपरायण करने हेतु
अपना शीश काटकर निशान में देने की रही है. जैसे भयंकर आँधी में हाथ को हाथ
नजर नहीं आता वैसे ही औपनिवेशिक मानसिकता की आँधी में आज समाज में
व्यक्ति को अपने पड़ोसी नजर नहीं आते. शहर में पड़ोस में कौन रहता है, क्या करता
है कहाँ से आया है और क्या करके गया है. आज उसकी जानकारी नहीं. कभी-कभी
दिगभ्रमित लोग आतंकी गतिविधियों को अंजाम दे जाते हैं और हमें खबर भी नहीं
रहती कि वह हमारे पड़ोस में रहता था, हिन्दी साहित्यकार डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की
पंक्तियाँ याद आ जाती हैं―
         “फासलों में आ गई है कितनी कमी
          चाँद के नजदीक है अब आदमी
          सोच लेकिन मैं रहा हूँ देर से
          आदमी से दूर है क्यों आदमी”
कहा है-“मन मलीन तन सुन्दर कैसे विष रस भरा कनक घट जैसे” यह उक्ति
हमारे राजनेताओं पर सटीक बैठती है. धवल वस्त्र धारण करने वाले नेताओं के
काले कारनामे जग जाहिर हैं. आज के नेताओं की औपनिवेशिक मानसिकता है,
‘बाँटो और राज करो” तथा “भोगो और मौज करो”. इसी मानसिकता ने देश को
विभाजित किया. स्वतंत्रता पश्चात् इन्होंने क्षेत्रवाद, भाषावाद, सम्प्रदायवाद, जातिवाद,
आरक्षणवाद आदि के बीज बोकर वे वोट बैंक की राजनीति करते हैं. पाश्चात्य संस्कृति
ने उन्हें मातृभूमि को मात्रभूमि मानने की मानसिकता प्रदान की है. 1905 में जब
बंगाल विभाजन हुआ, तो उसके विरुद्ध सम्पूर्ण राष्ट्र उठ खड़ा हुआ आज इन नेताओं
ने सम्पूर्ण राष्ट्र में पृथक् राज्य बनाने की माँग कर डाली है. कश्मीर के एक भाग पर
जब चीन ने कब्जा कर लिया तो एक प्रमुख नेता ने कहा था कि वहाँ तो सिर्फ बरफ
है उपजाऊ भूमि नहीं है ? क्या यही हमारी सोच है ? राष्ट्र के मंत्री भ्रष्टाचार, रिश्वत-
खोरी, कालाबाजारी, तस्करी, घोटालों एवं स्वार्थपरता में लिप्त हैं. कुछ भोगवादी
नेताओं ने महिलाओं का यौन शोषण किया. कुछ ने समलैंगिकता को कानूनी दर्जा
दिलाने की माँग कर पारिवारिक एवं विवाहिक संस्थाओं को विखण्डित करने का प्रयास
किया. अर्थवाद ने उन्हें घोर स्वार्थी एवं निम्न दर्जे का बना दिया. जनता ने उन्हें
2014 के चुनावों में सबक सिखा दिया है।
           आर्थिक दासता को हम विकास की पहचान मानने लगे हैं और सांस्कृतिक
दासता को सगर्व स्वीकार करके हम आधुनिक एवं प्रगतिशील होने का दावा
करते हैं. भारतीय बाजार को हमने सम्पूर्ण रूप से विदेशी वस्तुओं हेतु खोल दिया है.
हमने स्वदेशी आन्दोलन 1905 के महत्व को खो दिया. हम विदेशी वस्तुओं को अपनाने
में स्टैण्डर्ड महसूस करते हैं और स्वदेशी वस्तुओं के व्यवसाय को कुचलना चाहते हैं
ऐसा कर हममें और अंग्रेजों में क्या अंतर शेष रह गया है. धनाढ्य बनने के चक्कर में
लोग प्रेम, अनुराग, सेवा, परोपकारिता, सम्बन्धों आदि से किनारा करने लगे हैं.
भोगवाद ने विदेशी भोजन पद्धति अपनाने को विवश कर दिया है. हमारे त्यागपूर्वक
भोग की प्रवृत्ति समाप्त हो रही है. हमने प्रधानमंत्री शास्त्रीजी के आदर्शों को छोड़
दिया है. आधुनिकता के चलते हमारा युवा वर्ग शिक्षा पाने के लिए विदेश में जाकर
वहीं का बन जाता है यह प्रतिभा-पलायन राष्ट्र के विकास को अवरुद्ध करती है. हमें
याद रखना है कि ऐसे नवयुवक उस राष्ट्र में भले ही स्वर्ण भवनों में रहे, लेकिन वे
खानाबदोश ही कहलाएंगे. आधुनिक सभ्यता ने उन्हें पूर्णतः स्थूल एवं जड़वादी बना दिया
है. प्रकृति के प्रति साहचर्य का सम्बन्ध समाप्त हो गया है. कोयल आदि पक्षियों के कलरव
की जगह आज कारखानों का कर्कश स्वर सुनाई देता है. आज हम प्रदूषण के हर प्रकार से
पीड़ित हैं, स्वास्थ्य के स्तर एवं गुणवत्ता में गिरावट आ गई है. अतः हमें सकारात्मक विचार
धारण कर विकास की सीढ़ियों पर चढ़ना है, हमें राष्ट्रपति राधाकृष्णन का यह विचार याद रखना
है, यह संसार वैज्ञानिक आविष्कारों से नहीं मूल्यवान विचारों से चलता है.
            संस्कृति मानवीय साधना का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप होती है. भारतीय संस्कृति में
शास्त्रीय गीत, गान, संगीत, लोकगीत, फाग, विवाह गीत, शास्त्रीय एवं सांस्कृतिक नृत्य,
वाद्य यंत्र की मधुर झंकार आदि का अपना महत्व था. तानसेन के संगीत पर । मनुष्य तो
क्या जीव-जन्तु भी उसके वशीभूत हो जाते थे. कृष्ण की बांसुरी के आगे गोपियाँ और
गौ माता समान रूप से आनन्दित होती थीं, किन्तु आज माइकल जॉनसन के पॉप गीतों
के दीवाने बढ़ गए हैं यही हमारी संस्कृति का हास है. जहाँ विश्व के पर्यटक भारत में
शांति एवं प्रसन्नता हेतु भारत के चार धाम, सप्त धुरियों, सप्त गिरियों, सप्त सरिताओं
हिन्दू, जैन, बौद्ध स्थलों, प्राकृतिक सौन्दर्य आदि को देख कर अभिभूत हो जाते हैं वहाँ
भारतीय लोगों को इनमें आकर्षण नजर नहीं आता. युवा वर्ग अमरीका, आस्ट्रेलिया एवं
यूरोप की ओर आकर्षित हो रहा है. इससे देश के पर्यटन उद्योग, हस्तशिल्प उद्योग
एवं कुटीर उद्योगों को धक्का लगता है. सांस्कृतिक धरातल पर औपनिवेशिक
मानसिकता का सर्वाधिक आघात भारतीय भाषाओं एवं बोलियों को लगा है. अनेक
भाषाओं का अस्तित्व समाप्त हो गया और अंग्रेजी की मानसिकता ने राष्ट्र भाषा को भी
भुला दिया है. भारतीय संसद, भारतीय न्यायालय, भारतीय विद्यालय एवं संस्थाओं
में कमोवेश हिन्दी का प्रयोग नहीं होता देश के कोने-कोने में अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों
का बोलबाला बढ़ रहा है यही मानसिकता हिन्दी को एक दिन समाप्त कर देगी. गांधी
ने कहा था देश भाषा का अनादर राष्ट्रीय आत्महत्या है, मेरे लिए हिन्दी का प्रश्न
स्वराज के प्रश्न से कम महत्वपूर्ण नहीं है पराई भाषा के साहित्य से आनन्द लेने की
आदत चोरी के माल से लूटने की चोर की आदत जैसी है, लेकिन आज गांधी दर्शन
एवं विचारों को कौन याद रख रहा है, औपनिवेशिक मानसिकता ने हमें कई
स्थलों पर पराजितसा कर दिया है, परन्तु इसने शिक्षा को व्यापक बनाया. स्त्री
स्वतंत्रता को महत्व दिया स्वास्थ्य के प्रति व्यक्ति को सजग बनाया है यद्यपि इसने
प्राकृतिक साहचर्य, योग, ध्यान, प्राणायाम, को भुला दिया. इस मानसिकता से वैज्ञानिक
आविष्कार हुए नई प्रौद्योगिकी का विकास हुआ भारत भी विश्व की भौतिकता में आगे
बढ़ने लगा. भव्य शहरों एवं नगरीय सभ्यता का विकास हुआ.
            राजनीतिक धरातल पर लोकतंत्र एवं गणतंत्र का पुनः उदय हुआ चाहे वह गण-
तंत्र पर आधारित ही क्यों न हो आज जनता की आवाज सुनी जा रही है. भारत
एवं विश्व के राष्ट्रों में मित्रता की भावना एवं आपसी समन्वय का विकास हुआ. देशों में
दूरियाँ घटने लगी. संरक्षणवाद का युग समाप्त हुआ. विश्व एक बाजार के स्वरूप में
सामने आने लगा. समाज कुरीतियों, अंध-विश्वासों रूढ़ियों से मुक्त हुआ. अस्पृश्यता,
ऊँच-नीच की भावना, जातिवाद, धर्मांधता जैसे घिनौने भाव समाप्त हुए हैं. समाज में
अंतरजातीय एवं अंतरदेशीय विवाह होने लगे. मानवीय भावना की उच्च पृष्ठभूमि पर
हम अग्रसर हुए हैं. भारत सदैव से ही आदर्श विचारों का पक्षधर रहा है. वेदों में
लिखा है ऐसे विचार चाहे किसी ओर से आए. गांधीजी ने भी कहा था. मैं चाहता हूँ
कि सभी देशों की संस्कृति की हवाएं खुले रूप से मेरे घर में प्रवेश कर सकें, लेकिन
मैं यह नहीं चाहता कि मेरे पाँव ऐसी हवा के झोंके से अस्थिर हो जाएं और मैं औंधे मुँह
गिर पडूं. मैं दूसरों के घर में एक भिखारी दास या नकलची के रूप में कदापि नहीं
रहना चाहता. विवेकानन्द भी कहते थे कि भारतीय संस्कृति आध्यात्मिकता की अमर
आधारशिला पर आधारित है विश्व की बौद्धिकता एवं भौतिकता से उसका समन्वय
हो हमें ऐसी औपनिवेशिक मानसिकता का परित्याग करना है जो परिवार, समाज एवं
राष्ट्र में दरार पैदा करे हमें उन विचारों को त्यागना है जो मनुष्य से मानवता का परित्याग
करना सिखाए. हमें आध्यात्मिकता, नैतिकता एवं धार्मिकता का त्याग नहीं करना है जो हमें
सुखी एवं आनन्दित रखते हैं. हमें हर क्षेत्र में राष्ट्र उन्नति एवं राष्ट्र सेवा की मानसिकता
एवं विचारिता को धारण करना है

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