क्या वातावरण की कीमत पर विकास सम्भव है ?

क्या वातावरण की कीमत पर विकास सम्भव है ?

                   क्या वातावरण की कीमत पर विकास सम्भव है ?

“मनुष्य एक पर्यावरण में जन्म लेता है, उसमें बढ़ता है और प्रौढ़ होता है. उसका सम्पूर्ण शरीर और उसके जीवन की रचना आदि सब कुछ पर्यावरण की ही देन है.”
                                                                                   
प्रकृति और मनुष्य का सम्बन्ध पुराना है. पर्यावरण और जीवन की अभिन्नता से सभी परिचित हैं. पर्यावरण की स्वच्छता, निर्मलता और सन्तुलन से ही संसार को बचाया जा सकता है. कोई भी कविता प्रकृति के बिना सम्भव नहीं है. प्रकृति ही जीवन का आधार है.
         हमारे चारों ओर का वह आवरण, जो हमारे जीवन के लिए उत्तरदायी है ‘पर्यावरण’ कहलाता है. पर्यावरण में भौतिक व जैविक वे सभी घटक शामिल हैं, जो हमारे जीवन को बनाए रखने में आवश्यक भूमिका निभाते हैं. पर्यावरण में जल व वायु ही नहीं, वरन् पेड़-पौधे, पशु-पक्षी व वे सभी निर्जीव व सजीव वस्तुएं शामिल हैं, जो जीव जगत् के प्रवाह को बनाए रखने में अपना योगदान देते हैं.
            प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधनों की जीवन में क्या उपयोगिता है, इसका ज्ञान वैदिक- काल में ही हो गया था. उपनिषदों की एक कथा के अनुसार, ज्ञान-विज्ञान एवं विकसित संसाधनों के होने पर भी मनुष्य का चिन्तित और दुःखी रहना तथा ज्ञान विज्ञान संसाधनों के नितान्त अभाव में मनुष्येतर जीवों का निश्चित एवं मस्त रहना एक ऐसा तथ्य था,
जिसकी ओर ऋषियों का ध्यान आकृष्ट हुआ और उन्होंने इस पर गम्भीरतापूर्वक चिन्तन कर, जो निष्कर्ष निकाले, उनका सार इस प्रकार है-“धरती हमें माँ के समान सुविधा एवं सुरक्षा देती है. अतः धरती मेरी माँ है और मैं उसका पुत्र हूँ.”
            वेदों में प्रकृति को सबसे महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है. अथर्ववेद के अनुसार, “अग्नि, वायु, जल, आकाश, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा, औषधि एवं वनस्पति आदि सब देवता हैं, जो प्रत्युपकार की इच्छा के बिना सदा हमारी सहायता कर रहे हैं, वह देवता होता है. इन सभी देवताओं के साथ हमें भावनात्मक सम्बन्ध रखना चाहिए.” अथर्ववेद में जल, वायु और औषधियों को पर्यावरण के संघटक तत्वों के रूप में परिभाषित किया गया है. ये संसार को जीवन शक्ति देकर उसे प्रभावित करते हैं, ये संसार की समस्त गतिविधियों के प्रवर्तक हैं, इनके बिना जीवन असम्भव है, इनके नाम और रूप अनेक है.
 
            त्रीणि छंदासि कपयो वियेतिरे, पेरूरूपं दर्शते विश्वचक्षणम् ।
                   आपो वातो ओषध्यः, तान्येकस्मिन् भुवन अर्पितामि ।
 
उक्त मन्त्र में यह ज्ञात होता है कि वायु और जल की तरह औषधियाँ भी पर्यावरण के घटक तत्वों में अन्तर्निहित हैं.
      यजुर्वेद के अनुसार, “इस ब्रह्माण्ड में प्रकृति सबसे शक्तिशाली है, क्योंकि यही सृजन एवं विकास और यही हास तथा नाश करती है. अतः प्रकृति के विरुद्ध आचरण नहीं करना चाहिए.” ऋग्वेद के अनुसार जीव पंचभूतों (जल, पृथ्वी, वायु, आकाश और अग्नि) का सम्मिश्रण है.
         भारतीय दर्शन के अन्तर्गत गगन, पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि की सत्ता स्वीकार करता है. वे मानते हैं कि इन्हीं पाँच भूतों से जगत् की सृष्टि होती है.
        हमारे पूर्वज प्राकृतिक मानदेयों, जैसे― सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, नदियाँ, समुद्र, झीलों आदि को देवी-देवताओं की तरह पूजते थे. इन सब के पीछे सबसे बड़ा कारण यह था कि ये सभी मानव कल्याण और उसके जीवन के सभी क्षेत्रों में उत्थान के माध्यम थे. हमारे वेद, वेदान्त, स्मृतियों, उपनिषद् आदि में भी पौधों और वन्य जीवों की सुरक्षा की बात कही गई है. इस पर चिन्तन और चिन्ता हमारी संस्कृति का मूल सूत्र और हमारी विरासत है. हमारे धर्म में पादप रोपण एवं सुरक्षा मोक्ष का उपाय और स्वर्ग का मार्ग है. स्कन्द पुराण के अध्याय 16 में कहा गया है कि भगवान् विष्णु का निवास प्रत्येक वृक्ष में है, जिसके सम्मान से लक्ष्मीजी प्रसन्न होती हैं, जो हमारी गरीबी और सभी दुःखों को हरने की क्षमता रखती हैं.
          प्रकृति में प्राचीन आर्यो को किसी महान् रहस्यमय शक्ति के दर्शन होते थे और वे इन शक्तियों को मनुष्य से घनिष्ठतम सम्बन्धित समझते थे, जोकि वैज्ञानिक है. आज उन भावनाओं के त्याग का परिणाम हम अत्यन्त प्रदूषित पर्यावरण के रूप में सम्पूर्ण विश्व में देख सकते हैं. प्राकृतिक तत्वों की उपासना का प्रचलन ही इस बात का प्रमाण है कि हमारे पूर्वज प्रकृति के संरक्षण को कितना महत्व देते थे. उन्हें प्रकृति के दोहन से उत्पन्न होने वाले परिणामों का पता था, इसलिए उन्होंने उसके ऊपर देवत्व का आरोपण किया, देवत्व आरोपण का एक सशक्त कारण यह माना जा सकता है कि मनुष्य धर्म से भयभीत होकर उसकी रक्षा करे और उसे हानि न पहुँचाए.
      पंच भूतों में से किसी एक की भी सत्ता डगमगा गई, तो इसका हश्र क्या होगा. यह सभी जानते हैं. फिर यह अज्ञानता क्यों ? पढ़-लिखकर भी मनुष्य अज्ञानी बनकर स्वार्थ तक सिमट गया है वह इन तत्वों के प्रति छेड़छाड़ को गम्भीरता से क्यों नहीं ले रहा है. जहाँ हम कहते जा रहे हैं कि हम भौतिक सुख-सम्पदा में आगे बढ़ रहे हैं, वहाँ उसके कुत्सित परिणाम का दमन क्यों भूल रहे हैं, जब तक किसी भी वस्तु, आविष्कार, खोज के गुण-दोष को नहीं टटोलेंगे, तब तक आगे बढ़ना हमारे लिए पीछे हटने के बराबर है. पर्यावरण का ध्यान रखते हुए हम आगे बढ़ें, तभी वह हमारे लिए सही अर्थों में आगे बढ़ना है.
        विकास के पथ पर मानव जैसे-जैसे आगे बढ़ा है, सीख की बहुत-सी बातों को पीछे छोड़ता गया है. पर्यावरण के जितने भी प्रकार हैं, उनको कैसे बचाया जाए, यह समस्या आज ज्वलंत है. पृथ्वी का अस्तित्व बचाने के लिए जल-प्रदूषण को हर तरह से रोकना होगा, नहीं तो लोगों के सामने इसका भयावह परिणाम आ सकता है, पर्यावरण के लाभ और उसके महत्व को ध्यान में रखकर वनों के संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया गया है, यह राष्ट्रीय सम्पदा का मूल स्रोत है. साथ ही देश की अर्थव्यवस्था वनों से प्राप्त कच्चे माल पर निर्भर होती है, उनसे इमारती लकड़ी, आयुर्वेदिक औषधियाँ, पशुओं के लिए चारा, भूमि के कटाव पर रोक, शुद्ध व स्वच्छ हवा, प्राकृतिक सुन्दरता, वर्षा में सहायक एवं अतिवृष्टि के कारण नदियों में आई भयानक बाढ़ वनाच्छादित क्षेत्रों से होकर गुजरती है, उनका प्रलय वेग कम हो जाता है. हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि हम एकजुट होकर पर्यावरण का संरक्षण करें, पर्यावरण की समृद्धि में वृक्षारोपण करना होगा. इसके लिए नागरिकों को आर्थिक व तकनीकी सहायता दी जानी चाहिए.
        लेकिन आज पर्यावरण की वास्तविक महत्ता भौतिकवाद की बाढ़ में खत्म होती जा रही है. मनुष्य की निजी सुख-सुविधाओं के आगे पर्यावरण आज गौण हो गया है. पर्यावरण के संकट के साथ-साथ इस पृथ्वी पर हमारे हर जीवनोपयोगी कार्यकलाप का भविष्य संकट में पड़ गया है. विसंगति तो यह है कि विकास की अंधाधुंध दौड़ में पर्यावरण सुरक्षा महज एक नारा बनकर रह  गया है. हम हर मोर्चे पर बुरी तरह पिछड़ गए हैं और आगे भी क्रान्तिकारी परिवर्तन 
आने की कोई सम्भावना नहीं है.
          विकास की गति के साथ वातावरण पर पड़ते प्रतिकूल प्रभाव का आकलन करें, तो  हर मोर्चे पर हमें प्रभाव दृष्टिगत हो रहे हैं. पूरा ग्लोब इससे प्रभावित है. पर्यावरण  विशेषज्ञ डॉ. अविनाश वोरा के मुताबिक, “जापान में हिरोशिमा और नागासाकी  परमाणु दुर्घटना के बाद वहाँ के पर्यावरण से न केवल कीटों की, बल्कि पेड़-पौधों की सैकड़ों प्रजातियाँ लुप्त हो गई. परमाणु बम परीक्षण या विस्फोट से पृथ्वी के तापमान में हजारों डिग्री तापमान का अन्तर आ जाता है. जिस तरह इतने तापमान में मनुष्य और पशु-पक्षी अपना अस्तित्व नहीं बचा सकते, उसी तरह पेड़-पौधों पर भी इसका बहुत
बुरा असर पड़ता है. हालांकि इस ओर किसी का भी ध्यान नहीं जाता, लेकिन यह सच है कि जापान की त्रासदी के बाद वहाँ पेड़-पौधों की हजारों प्रजातियाँ लुप्त हो गई हैं.”
          जलवायु परिवर्तन पर आईपीसीसी ने 2007 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में पूर्वानुमान व्यक्त किया कि सन् 2100 तक विश्व का औसत तापमान 1980-99 के दौरान रहे औसत तापमान कि तुलना में 1-1°C-6-4°C तक बढ़ जाएगा. समुद्रतल 18 सेमी से 59 सेमी तक बढ़ जाएगा.
        फ्रांस में सीन नदी हाल में उफान पर थी, जिसके कारण पेरिस में सड़के दरिया बन गई.जनजीवन अस्तव्यस्त हो गया. लॉवर म्यूजियम को बन्द करना पड़ा. कहा जा रहा है कि भारी बारिश के कारण सीन नदी का जलस्तर काफी बढ़ गया. इससे पहले 1910 में पेरिस में बाढ़ आई थी.
           दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन में 2015 से भीषण सूखे के हालात है, लेकिन 2018 की शुरूआत के साथ ही हालात भयावह हो गए हैं. नहाने के लिए नल 90 सेकण्ड के लिए चला सकते हैं. सूखे का कारण जलवायु परिवर्तन और शहर की तेजी से बढ़ती आबादी को बताया जा रहा है.
         इटली का शहर वेनिस नहरों के लिए विश्व में मशहूर है, लेकिन आजकल वहाँ नहरें सूखी हुई हैं. नावे किनारे पर हैं. वैज्ञानिकों के अनुसार कम बारिश और सुपरब्लू ब्लड मून के कारण भाटा के हालात उत्पन्न हो गए हैं. पिछले तीन साल से वेनिस में सूखे के हालात हैं.
          इस तरह की परिस्थितियाँ कमोबेश भारत में भी दृष्टिगत हो रही है. तमिलनाडु में अजब हालात हैं. यहाँ के कई जिले पिछले कई वर्षों से लगातार सूखे के हालात झेल रहे हैं और चेन्नई में 2015 की बाढ़ के बाद हर मानसून में जलप्लावन की स्थिति पैदा हो जाती है. तमिलनाडु में सूखे से किसानों की आत्महत्या के मुद्दे पर दिल्ली में प्रदर्शन
चर्चित रहा.
           राजस्थान में अब जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं. राज्य के सूखा प्रभावित जिलों में अतिवृष्टि के कारण जल-प्लावन के हालात बन जाते हैं. वर्ष 2017 के मानसून के दौरान पश्चिमी राजस्थान में 84 प्रतिशत व पूर्वी राजस्थान में सामान्य से 23 प्रतिशत ज्यादा बारिश हुई.
           महाराष्ट्र के मराठवाड़ा में सबसे बड़ा विरोधाभास देखने को मिला. वर्ष 2015 में यहाँ चार साल के लगातार सूखे के बाद आई बारिश से खरीफ की फसल पूरी तरह से तबाह हो गई, लातूर, उस्मानाबाद और बीड में सूखे के बाद की त्रासदी से लोगों को आर्थिक हानि उठानी पड़ी. भारत में 56 प्रतिशत स्मार्ट सिटी बाढ़ के प्रति संवेदनशील हैं. भारत में 1-5 करोड़ लोग हर साल बाढ़ से प्रभावित होते हैं.
            शहर की गन्दगी गन्दे नाले का रूप धारण कर चुकी है और गऊ माता कूड़े के ढेर में मुँह मार रही है. कभी जहाँ उसे खाने की प्रकृति की देन यानी दोने-पत्तल या फल सब्जियों के छिलके मिल जाया करते थे, उन ढेरों से अब उसे पॉलीथिन में भरा सामान खाने को मिल रहा है, जो अन्तड़ियों में फँसकर उसे तड़प-तड़पकर मरने को मजबूर कर रहा है.
       फैक्ट्रियों से उठता धुआँ, रासायनिक दूषित जल का नदियों में बहाव विभिन्न बीमारियों का वाहक है. पेयजल संकट का भी कारण है. पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, सिमटते जंगलों की वजह से बाँझ होती भूमि और रेगिस्तान का बढ़ता प्रसार एक- दूसरे पर आधारित है. भूमि कटाव से बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है, निःसंदेह, यह एक भयावह परिस्थिति है, प्रतिवर्ष अनियमित वर्षा की वजह से बाढ़ व सूखे का खतरा पैर फैला रहा है. कृषि को गम्भीर खतरा पैदा होता जा रहा है. भूमि की उपजाऊ शक्ति समाप्त होती जा रही है.
            भारत में प्रतिवर्ष लगभग 600 करोड़ पेड़ कट जाते हैं. प्रतियाँध पर 25 लाख पेड़ डूब जाते हैं. विकास परियोजनाओं में प्रतिवर्ष 3 मिलियम हेक्टेयर वन नष्ट हो जाते हैं दरअसल इस काम में सबसे अधिक नियमों का उल्लंघन होता है. वन नियमों के अनुसार एक पेड़ के बदले दस पेड़ लगाए जाने चाहिए, लेकिन गत दो दशकों में मात्र एक प्रतिशत ही पेड़ लगाए गए हैं. अवैध कटाई से होने वाले नुकसान से अधिक नुकसान अनुपयोगी व अदूरदर्शी विकास योजनाओं में होता है.
        पिछले कुछ दशकों में जहाँ एक ओर जंगल बहुत अधिक कटे, वहीं शहरीकरण की गति बढ़ी साथ ही उद्योगों में भी तेजी से बढोत्तरी हुई. मोटर गाड़ियों की संख्या तेजी से बढ़ी, साथ ही पेट्रोल की खपत में कई गुना की बढ़ोत्तरी कुछ ही वर्षों में हुई थर्मल पॉवर स्टेशनों की संख्या में भारी बढ़ोत्तरी हुई. इन सबका प्रभाव यह हुआ कि प्राकृतिक ‘इकोसिस्टम’ गड़बड़ा गया और उसमें अनेक प्रकार के परिवर्तन आए. जहाँ हरियाली थी, उनकी जगह सड़कों, शहरों और फैक्ट्रियों ने ले ली जंगलों को काटकर खेत बनाए गए या फिर वहाँ शहर बसा दिए गए. वनों का स्थान ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं ने ले लिया. परिणामस्वरूप कई क्षेत्रों के पर्यावरण व जलवायु में अनियमित परिवर्तन होने लगे.
       देश में वाहन प्रदूषण के कारण हर दिन करीब 150 लोगों की जाने जा रही हैं और सैकड़ों लोग फेफड़े एवं हृदय की जानलेवा बीमारियों से ग्रस्त हो रहे हैं दिल्ली में प्रदूषण का स्तर इस खतरनाक हद तक पहुँच चुका है कि राजधानी की सड़कों पर दिन-रात दौड़ने वाली लाखों गाड़ियों से निकलने वाले जहरीले धुएँ मौत के गैस के चैम्बर में बदल जाते हैं. विज्ञान एवं पर्यावरण केन्द्र के अनुसार भारत में इस समय करीब 51 हजार लोग प्रदूषित हवा में साँस लेने के कारण प्रतिवर्ष असामायिक मौत के शिकार हो रहे हैं केवल दिल्ली में करीब 10 हजार लोग इस वायु प्रदूषण के कारण मौत के ग्रास बन जाते हैं, लेकिन इस भयावह प्रदूषण का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण एवं दुःखद पहलू यह है कि वायु प्रदूषण के खतरों के सर्वज्ञात होने के बावजूद वाहन प्रदूषण के खिलाफ कोई जन-चेतना नहीं बन पाई है.
         बढ़ते शहरीकरण का ही ये नतीजा है कि आज वायुमण्डल में कार्बन मोनोऑक्साइड व कार्बन डाइऑक्साइड का प्रतिशत अनियन्त्रित गति से बढ़ रहा है, जिसका मुख्य कारण है कोयला, पेट्रोल इत्यादि की बढ़ती खपत ऐसा अनुमान है कि जिस गति से हम ऊर्जा की खपत कर रहे हैं तथा जिस प्रकार हम पेट्रोल तथा कोयले पर आश्रित हैं. मुम्बई में वाहनों द्वारा उत्सर्जित जहरीली कार्बन मोनोऑक्साइड का स्तर अब खतरे के स्तर से 15 से 20 गुना ज्यादा हो गया है. यह खौफनाक तथ्य इण्डियन सोसाइटी ऑफ इनवायरनमेंटल साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी’ द्वारा करवाए गए वर्ष पर्यन्त अध्ययन से सामने आया है.
            आज वायुमण्डल के रासायनिक समीकरण में भारी परिवर्तन हो रहा है, जो सम्पूर्ण विश्व के लिए चिन्ता का कारण बन गया है. यह परिवर्तन ऐसा है, जिसका प्रभाव किसी क्षेत्र विशेष के लिए सीमित नहीं है.  इस प्रकार का परिवर्तन या तो पूरी पृथ्वी को प्रभावित कर सकता है या पृथ्वी के इतने बड़े भाग को कि इसे सीमित मानना सम्भव नहीं रह सकेगा. जैसा कि सर्वविदित है कि वायुमण्डल में मुख्य रूप से नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, जलवाष्प, कार्बन डाइऑक्साइड गैसें होती हैं. इसके अतिरिक्त कुछ अन्य गैसें जैसे ओजोन, कार्बन मोनो ऑक्साइड, मीथेन गैसें होती हैं, जो बहुत कम मात्रा में पाई जाती हैं, यों तो वायुमण्डल में इन गैसों की मात्रा थोड़ी बहुत घटती- बढ़ती रहती है, परन्तु औसतन यह मात्रा निश्चित ही रहती है, जो सम्भवतः रहनी भी चाहिए. इधर लगभग सौ सालों में यह पाया गया है कि कई ऐसी गैसें हैं, जिनकी मात्रा अर्थात् अनुपात में अन्तर उत्पन्न हो रहा है, इन गैसों में मुख्य है-कार्बन डाइऑक्साइड, इसके अतिरिक्त नाइट्रस ऑक्साइड के बढ़ने का कारण है. मिट्टी में होने वाली कुछ क्रियाएं मीथेन की बढ़ती मात्रा के लिए कई
क्रियाएं उत्तरदायी हैं, जिनमें एक है मिट्टी तथा समुद्र की तह में जमा कार्बनिक पदार्थ का विघटन, जिसके कारण मीथेन गैस बनती है.
          इस समय हम रासायनिक पदार्थों के एक वर्ग का बहुत अधिक उपयोग कर रहे जिन्हें ‘क्लोरो-फ्लोरो-कार्बन (CFC) कहते हैं. यही वह पदार्थ है, जिसने वर्तमान में ओजोन छिद्र जैसी भयंकर समस्या को जन्म दिया है, जिसका प्रभाव किसी क्षेत्र विशेष तक सीमित नहीं बल्कि विश्व व्यापक होगा.
          ओजोन छिद्र के बारे में विश्व को 1970 के आसपास पता चला. उस वक्त वैज्ञानिकों ने इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया, जोकि आज समस्त जीवधारियों के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए प्रश्नचिह्न बन गया है. ओजोन परत को प्रभावित करने वाले पदार्थों में जेट विमानों से निकला धुआँ, नाइट्रोजन के ऑक्साइड व मानव निर्मित क्लोरो- फ्लोरो-कार्बन (CFC) है. यह एक संयुक्त यौगिक है, जो औद्योगिक रूप से महत्वपूर्ण है. रेफ्रिजरेटर, एयर कन्डीशनर्स, स्प्रे आदि में काम आने वाला ये यौगिक ओजोन अणु को तोड़कर ऑक्सीजन अणु व ऑक्सीजन परमाणु में बदल देता है, जो सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों को अवशोषित करने में असमर्थ होता है. एक अणु क्लोरो-फ्लोरो- कार्बन (CFC) एक लाख अणु ओजोन को तोड़ देता है. अब तक वायुमण्डल की विभिन्न परतों में क्लोरो-फ्लोरो-कार्बन (CFC) की काफी मात्रा फैल चुकी है.
          विभिन्न आँकड़ों से देखा गया है कि ओजोन परत में 1 प्रतिशत कमी कैंसर रोगों में 4 प्रतिशत वृद्धि लाती है, जो इस बात को स्पष्ट करते हैं कि मानव का विनाश निश्चित हो जाएगा. कार्बन डाइऑक्सीजन के बढ़ने से सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव होगा ‘ग्रीन हाउस प्रभाव’ होता यह है कि सूर्य से जो प्रकाश किरणें पृथ्वी पर आती हैं, उनके साथ तापीय किरण भी होती है, यह पृथ्वी की सतह को गर्म करती है, बाद में यह ताप ऊर्जा पृथ्वी की सतह से निकलकर फिर वायुमण्डल में जाती है और वहाँ से होती हुई, फिर पृथ्वी से दूर निकल जाती है. यह सन्तुलन अर्थात् तापीय ऊर्जा का आना तथा जाना पृथ्वी के वायुमण्डल के औसत तापक्रम को बनाए रखता है. वायुमण्डल में उपस्थित कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, ओजोन, जलवाष्प इत्यादि तापीय किरणों को उसी प्रकार निकलने से रोकते हैं, जिस प्रकार ग्रीन हाउस में लगे शीशे या प्लास्टिक की चादर तापीय किरणों को बाहर जाने से रोकती है तथा ग्रीन हाउस को गर्म रखती है. यही कारण है कि ग्रीन हाउस गर्म होते हैं तथा जिन इलाकों में ठण्ड अधिक पड़ती है, वहाँ फल व सब्जियाँ इत्यादि उगाने के लिए ग्रीन हाउस का उपयोग किया जाता है. इसके अन्तर्गत पादपों पर यह प्रभाव होगा कि इनकी वाष्पोत्सर्जन क्रिया अत्यन्त तीव्र हो जाएगी. इसके लिए कार्यन डाइऑक्साइड व कार्बन मोनोऑक्साइड उत्तरदायी है, जो पेड़-पौधों के चारों ओर एक परिरक्षित वातावरण बना लेती है, जिससे पादपों की सम्पूर्ण जैव-क्रियाएं रुक जाएंगी. यही कारण है कि इन गैसों की मात्रा बढ़ने से पृथ्वी के आसपास का तापक्रम बढ़ जाएगा.
          तापक्रम बढ़ने का प्रभाव सम्पूर्ण विश्व की जलवायु पर पड़ेगा. एक ओर तो वर्षा की स्थिति में अन्तर आएगा, तो दूसरी ओर पहाड़ों तथा धुवों पर उपस्थित ग्लेशियर तेजी से पिघलेंगे. बहुत सारे ऐसे क्षेत्रों में जहाँ आज फसल होती है, फसल पैदा होनी बन्द हो जाएगी. हरेभरे क्षेत्र मरुस्थल में बदल जाएंगे, समुद्र के किनारे के सभी क्षेत्र डूब जाएंगे. इसी प्रकार बहुत सारे द्वीप जलमग्न हो जाएंगे. इस प्रकार इस पृथ्वी की जलवायु में बहुत बड़े पैमाने पर परिवर्तन आएंगे और यह परिवर्तन ऐसे होंगे, जिनके विषय में हमें पहले से कोई जानकारी नहीं है, क्योंकि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ है. साथ ही इन परिवर्तनों को फिर से उल्टी दिशा में ले जाना भी सम्भव नहीं होगा, क्योंकि यह बहुत बड़े पैमाने पर होगा.
          हमें औद्योगिकीकरण तो करना ही है, मोटर गाड़ियों भी समाप्त नहीं हो सकतीं, ऊर्जा की खपत होंगी ही. इसका उत्तर यह है कि हमें इनके प्रयोग के तरीके बदलने होंगे. एक तो ऊर्जा की बचत अधिक-से-अधिक करनी होगी, ताकि कार्यन डाइ- ऑक्साइड के वायुमण्डल में जाने की दर धीमी हो, दूसरी ओर हम ऊर्जा के उन स्रोतों का उपयोग करें, जिनसे ये समस्याएं  उत्पन्न नहीं होतीं. उदाहरण के लिए सौर ऊर्जा एवं पवन ऊर्जा है. यदि हम सौर ऊर्जा का उपयोग करें, तो न तो इससे कार्बन डाइऑक्साइड निकलेगी न ही मीथेन, न ही नाइट्रोजन के ऑक्साइड इत्यादि, इसी प्रकार यदि हम पवन ऊर्जा का उपयोग करें, तो ये ही सब लाभ होंगे.
        हमारे जीवन के अस्तित्व के लिए ओजोन परत में हुए छिद्र पर जल्द से जल्द नियन्त्रण पाना अनिवार्य है और यह कार्य केवल वैज्ञानिक क्रियाकलापों से ही पूर्ण नहीं होगा, बल्कि इसमें प्रत्येक मनुष्य का पूर्ण सहयोग होना चाहिए. पृथ्वी के अस्तित्व को समाप्त करने वाले कृत्यों के प्रति जनचेतना जाग्रत करनी होगी. पर्यावरण को सुरक्षित व संरक्षित करने हेतु कानून को क्रियान्वित किया जाए. क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (CFC) बनाने वाले कारखानों पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया जाए.
          प्रदूषण रोकथाम और जलवायु परिवर्तन पर नियन्त्रण हेतु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अनेक प्रयास हुए हैं. 5 नवम्बर, 2001 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने हर साल 6 नवम्बर को ‘इंटरनेशनल डे फॉर प्रिवेंटिंग द एक्स-प्लॉयटेशन ऑफ द एनवायरमेंट इन वार एवं एण्ड आर्ड कफ्लिक्ट’ के रूप में मनाने की घोषणा की थी. इसका आशय युद्ध और सशस्त्र संघर्ष के दौरान पर्यावरण को होने वाले नुकसान को रोकना था.
        पर्यावरण संरक्षण हेतु आयोजित स्टॉक-होम सम्मेलन (1972) में 5 जून को प्रति वर्ष पर्यावरण दिवस के रूप में मनाए जाने का निर्णय किया गया. हेलसिकी सम्मेलन (1989) में CFC पर प्रतिबन्ध लगाने का निर्णय किया गया. लंदन सम्मेलन (1990) में विकसित देशों द्वारा 2010 तक CFC उत्पादन पर रोक लगाने पर सहमति बनी. रियोडिजेनेरो सम्मेलन (1992) में पर्यावरण विकास का एजेण्डा-21 पारित किया गया. क्योटो सम्मेलन (1997) में निर्णय लिया गया कि 2008-12 तक 6 ग्रीन हाउस गैसों का स्तर 1990 के स्तर से 5-2 प्रतिशत तक कम किया जाएगा. जोहांसबर्ग सम्मेलन
(2002) में जल स्वच्छता, ऊर्जा, स्वास्थ्य, कृषि व जैव विविधता जैसे मुद्दे शामिल किए गए. स्टॉकहोम सम्मेलन (2004) में 12 खतरनाक जैव कीटनाशक एवं औद्योगिक प्रदूषण पर रोक लगाने का निर्णय लिया गया. मांट्रियल सम्मेलन (2006) में विकसित देशों द्वारा ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 2012 तक कम करने हेतु सहमति बनी  बाली सम्मेलन (2007) के द्वारा क्योटो प्रोटोकॉल की जगह नई सन्धि पर सहमति  बनाने का निर्णय लिया गया. उपर्युक्त सन्धियों से स्पष्ट होता है कि जलवायु परिवर्तन  अन्तर्राष्ट्रीय समस्या है, जिस पर अन्तर्राष्ट्रीय सहमति आवश्यक है.
      सरक्षण हरेक की जिम्मेदारी है. इसलिए प्राकृतिक स्रोतों को बर्बादी और तबाही से बचाने के लिए बनाए गए कड़े कानूनों को प्रभावी रूप से लागू करना जरूरी है. संरक्षण से समाज में प्राकृतिक सुन्दरता बनी रहती है जमीन के गलत इस्तेमाल से ग्रामीण इलाके अनाकर्षक बन जाते है. खाली जगहें सड़क के किनारे और नदियाँ वगैरह कूड़ाकचरा भर
जाने से भद्दे दिखते हैं. संरक्षण से मनोरंजन स्थलों का भी बचाव होता है, क्योंकि शहरों में आबादी बढ़ने से लोगों को खाली समय में मौज-मस्ती करने के लिए पार्क, जंगल, पेड़-पौधे, नदियों आदि की जरूरत पड़ती है.
          प्रदूषण और घटते जल-स्तर के कारण करीब सारी दुनिया में जलापूर्ति खतरे में है. वनस्पतियाँ कम होते जाने से विश्व भर के जल-स्तर क्षेत्रों में काफी कमी आई है. भूमि के बेहतर इस्तेमाल में ही इस समस्या का हल है. जल-संरक्षण इसके पुनः चक्रण के साथ भूगर्भीय जल और खतरे में पड़ी जलमग्न वनस्पतियों में सुधार और भूमि के बेहतर
संरक्षण से ही इस समस्या का हल हो सकता है.
            मानव समाज में विज्ञान और तकनीकी का महत्वपूर्ण स्थान है, तकनीकी से पर्यावरण प्रभावित हुआ है और पर्यावरण से तकनीकी में परिवर्तन आया है. तकनीकी ने स्वस्थ पर्यावरण को असन्तुलित किया है, यहीं से मनुष्य का नैतिक कर्तव्य प्रारम्भ हो जाता है कि वह पर्यावरण की सुरक्षा करे, जीवित प्राणियों में मनुष्य ही ऐसा बुद्धिमान प्राणी है,
जिसके ऊपर पर्यावरण की सुरक्षा और उसके साथ ही प्राकृतिक, आर्थिक, सांस्कृ- तिक और राजनीतिक विकास की देखभाल का दायित्व भी सौंपा जा सकता है,
          पर्यावरण का संकट आज सभी के लिए चिन्ता का विषय बना हुआ है, जून 1992 में रियो (ब्राजील) में आयोजित शिखर सम्मेलन में 150 से अधिक देशों के शासनाध्यक्षों ने भाग लेकर पृथ्वी को पर्यावरण प्रदूषण से मुक्त रखने की शपथ ली, लेकिन कुछ औपचारिकताएं निभाने के बाद बिना किसी ठोस कार्य योजना के यह सम्मेलन समाप्त हो गया और यह बात उभरकर सामने आई कि पर्यावरण-प्रदूषण की समस्या गम्भीर होने के साथ-साथ अमीर वं गरीब देशों के बीच संघर्ष का मुद्दा भी जा रही है. कुछ इसी प्रकार का सम्मेलन जोहान्सबर्ग में 26 अगस्त से 4 सितम्बर, 2002 तक हुआ. संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम में 1997 में 1981 से 1990 के दशक को पर्यावरण की पराजय का दशक माना गया है.
          पर्यावरण विनाश का एक और प्रमुख कारण विकासशील देशों में बढ़ती जनसंख्या है. प्राचीनकाल में जनसंख्या सीमित थी, इसलिए प्राकृतिक संसाधनों की कमी नहीं हो पाती थी, 20वीं शताब्दी तक आते-आते विज्ञान के आविष्कार से मृत्यु दर कम हो गई और जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि हो गई है. इसके साथ ही विकसित देशों की चमक और उनकी उपभोक्तावादी दृष्टिकोण को अपनाने की होड़ में, प्राकृतिक संसाधनों पर अपेक्षाकृत दबाव बढ़ने लगा, जिससे हमारा
प्राकृतिक वातावरण भी बदल रहा है, इससे समस्त पर्यावरण प्रभावित हुआ है, ग्लेशियर पिघले रहे हैं. धरती का तापमान बढ़ रहा है, वैज्ञानिकों तथा मौसम वैज्ञानिकों का अनुमान है कि नदियाँ सूखकर नाला बन जाएंगी. समुद्र के जल स्तर में वृद्धि के फलस्वरूप तटवर्ती शहर डूब जाएंगे तथा चारों ओर महामारी फैल जाएगी, वृक्षों की कटाई से वायु में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ रही है. अमरीका, चीन, रूस तथा जापान के बाद कार्बन डाइ-ऑक्साइड को उत्सर्जित करने वाला सबसे प्रमुख देश भारत है. इसके अलावा मीथेन ग्रीन हाउस गैसों की वृद्धि पर्यावरण तथा मौसम के बदलते मिजाज के पीछे पृथ्वी के इकोसिस्टम को प्रभावित करने में मुख्य कारक है.
            आज प्रगति और विकास की दौड में सभी आगे निकलना चाहते हैं. अधिकाधिक भौतिक सुविधाएं एवं धन जुटाकर वैभवशाली जिन्दगी बिताना और फिर अंधाधुंध अपव्यय करना एक आम बात हो गई है. ऐसे में सादा-जीवन उच्च विचार जैसे आदर्श बहुत पीछे छूट जाते हैं और प्रदूषण जैसी अनेक बुराइयों से जाने-अनजाने में पर्यावरण की समस्याएं खड़ी हो जाती हैं. हमने विरासत में मिली प्राकृतिक सम्पदा का बहुत कुछ खो दिया है. इस कारण आज हमें पर्यावरण सम्बन्धी सभी परेशानियों व विभीषिकाओं का सामना करना पड़ रहा है. हमने प्राकृतिक तत्वों के साथ खिलवाड़ और उनका विनाश किया है. हमें प्राकृतिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करना होगा. अतः सतत् विकास के लिए पर्यावरण
संरक्षण अपरिहार्य है.

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