क्रोध और कामुकता पर विजय प्राप्त करें

क्रोध और कामुकता पर विजय प्राप्त करें

                            क्रोध और कामुकता पर विजय प्राप्त करें

समस्त विघटन एवं विनाश के मूल में हमारी ये दो प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं-काम और
क्रोध. श्रीमदभगवद् गीता का कथन द्रष्टव्य है-
                    ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
                    संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।।
                    क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
                    स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।।
         अर्थ-विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है और
आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना (में विघ्न पड़ने) से क्रोध उत्पन्न
होता है.
        क्रोध से अविवेक अर्थात् मूढ़भाव उत्पन्न होता है और अविवेक से स्मरण शक्ति भ्रमित हो
जाती है (और) स्मृति के भ्रमित हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है
(और) बुद्धि का नाश होने से (यह पुरुष) अपने श्रेय साधन से गिर जाता है.
          इन्द्रिय के भोग की वासना को काम कहते हैं. जब काम दाम्पत्य सुख के संदर्भ में उत्पन्न
होता है, तब हम उसको कामुकता कहते हैं. कामुकता की पूर्ति के लिए लोग क्या-क्या नहीं
कर बैठते हैं. परिजन से विरोध, गृह-त्याग, हत्या, आत्महत्या आदि पाप और अपराध सब कुछ
कामुकता के वशीभूत किए जाते हैं. व्यक्ति काम और क्रोध के वशीभूत होकर विक्षिप्त की भाँति
व्यवहार करने लगता है. महाभारतकार ने स्पष्ट लिखा है कि-
         राजन! जिस प्रकार सूक्ष्म छेद वाले जाल में फँसी हुई दो बड़ी-बड़ी मछलियाँ जाल को
काट डालती हैं, उसी प्रकार ये काम और क्रोध दोनों विशिष्ट ज्ञान को लुप्त कर देते हैं.
        कामुकता को कामाग्नि कहा गया है. कामाग्नि में व्यक्ति का सर्वस्व स्वाहा हो जाता
है. वह सागर की भाँति अतृप्त रहती है. स्वामी विवेकानंद के शब्दों में “ज्यों-ज्यों हम उसकी
आवश्यकता की पूर्ति करने का प्रयत्न करते हैं, त्यों-त्यों उसका कोलाहल बढ़ता है.” भर्तृहरि ने
एक स्थान पर लिखा है कि “बड़प्पन, पांडित्य, कुलीनता और विवेक मनुष्य में उसी समय तक
रहते हैं, जब तक शरीर में कामाग्नि प्रज्वलित नहीं होती है.”
          हमारे जीवनानुभव बताते हैं कि कामुक व्यक्ति को सामाजिक, पारिवारिक अथवा नैतिक
मर्यादाओं का जरा भी ध्यान नहीं रहता है. 
समाचार पत्रों में प्रकाशित घटनाओं का विवेचन करके हम यही निष्कर्ष निकाल सकेंगे कि कामुक
व्यक्ति पशु को भी पीछे छोड़ जाता है. चलचित्र एवं दूरदर्शन के पदों पर प्रदर्शित दृश्यों को
देखकर तो ऐसा प्रतीत होने लगता है कि कामुकता के वशीभूत व्यक्ति मानव सभ्यता को
पूर्णत: नकारते हुए किसी प्रकार का संकोच नहीं करता है.
        कामुकता के वशीभूत व्यक्ति के तेज, बुद्धि, बल आदि सब कुछ नष्ट हो जाते हैं. वह
वस्तुत: एकदम कायर और पथ भ्रष्ट हो जाता है. जो कामी और लोलुप लोग हैं, वे संसार में
नीच कौवे की भाँति सबसे डरते हैं.
        किसी ने ठीक ही कहा है कि उल्लू को दिन में नहीं दिखता, कौवे को रात में नहीं दिखता,
किन्तु कामी ऐसा अंधा होता है जिसे न दिन में सूझता है और न रात में कामुक व्यक्ति को
लक्ष्य करके सिसरो ने लिखा है कि विषयी युवक क्षीण शरीर को बुढ़ापे के हवाले कर देता है.
उसका शरीर वस्तुतः मृतक आत्मा का कफन होता है. वह हीनता और दीनता की मूर्ति बन
जाता है.
      क्रोध कामुकता का वंशज है और उसी की तरह व्यक्ति को विवेकहीन बना देता है.
विचारक इंगरसोल ने एक स्थान पर लिखा है. कि क्रोध मस्तिष्क के दीपक को बुझा देता है.
बुद्धिविहीन होकर व्यक्ति पशुवत् व्यवहार करने लगता है और एक विक्षिप्त व्यक्ति की भाँति
व्यवहार करने लगता है. कहा भी जाता है कि आदमी क्रोध में अंधा और पागल हो जाता है.
क्रोध के वशीभूत व्यक्ति को न तो यह ध्यान रहता है कि वह क्या कह रहा है और वह न यह
सोच पाता है कि वह क्या कर रहा है. क्रोध के आवेश में व्यक्ति हत्या और आत्महत्या सदृश
जघन्य अपराध कर बैठता है. क्रोध का आवेश समाप्त होने पर वह सोचने लगता है कि अरे,
मैंने यह क्या कर डाला ! दार्शनिक-गणितज्ञ पाइथागोरस ने ठीक ही लिखा है कि क्रोध मूर्खता
से शुरू होता है और पश्चाताप पर खत्म होता है. महर्षि वाल्मीकि के शब्दों में, क्रोधी के सामने
अकार्य और अवाच्य जैसा कुछ नहीं रहता अर्थात् वह कुछ भी कर सकता है और कुछ भी बोल
सकता है. आचार्य चाणक्य के अनुसार, “क्रोधो वैवस्वतो राजा” अर्थात् क्रोध यमराज है.
        क्रोध के मूल में व्यक्ति का अहम् अथवा उसका मिथ्याहंकार होता है. छोटी-सी बात पर
व्यक्ति अपने अहम् को आहत अनुभव करता है और क्रोध के वशीभूत होकर अपना सन्तुलन
खो बैठता है. हम आए दिन इस प्रकार की घटनाएँ देखते रहते हैं कि बस में पहले चढ़ने,
नल पर पहले पानी भरने, टिकट पहले खरीदने आदि जैसी छोटी-छोटी बातों पर व्यक्ति विवाद
में उलझ जाते हैं. ये विवाद जातीय अथवा साम्प्रदायिक दंगों तक का रूप धारण कर लेते
हैं. क्रोध ने कई बार राष्ट्रीय स्तर तक के युद्धों को जन्म दिया है. पृथ्वीराज के व्यवहार पर क्रुद्ध
जयचन्द ने विदेशी लुटेरे मुहम्मद गोरी को आमंत्रित करके अपनी क्रोधाग्नि शांत करने की
सुखद कल्पना की थी. हम सब जानते हैं कि उसी परम्परा में भारत को एक हजार वर्ष तक
दासता की वेदना भोगनी पड़ी और आज तक भी वह अपनी अस्मिता को स्थापित नहीं कर पा
रहा है.
      क्रोध में प्रतिशोध की भावना रहती है. किसी कारणवश यदि प्रतिपक्षी को दण्डित न
किया जा सके तो वही क्रोध शत्रुता या वैर का रूप धारण कर लेता है. इसी मानसिक प्रक्रिया
को लक्ष्य करके पं. रामचन्द्र शुक्ल ने यह सूक्ति लिखी है कि वैर, क्रोध का अचार या मुरब्बा है.
महात्मा गांधी ने जीवन पर्यन्त अहिंसा धर्म की साधना की और क्रोध पर विजय प्राप्त
करने में वह प्रायः सफल हो गए थे. वह प्रायः कहा करते थे कि “क्रोध एक प्रचंड अग्नि है,
जो मनुष्य इस अग्नि को वश में कर सकता है, वह उसको बुझा देता है, जो मनुष्य इस अग्नि
को वश में नहीं कर सकता है, वह स्वयं अपने को जला देता है.” जीवन को संतुलित एवं सरस
बनाने के लिए क्रोध को दूर रखना परम आवश्यक है. महर्षि याज्ञवल्क्य के अनुसार,
हमको चाहिए कि क्रोध पर क्रोध करके क्रोध वृत्ति का उन्नयन करें-अपकारिणी कोपश्चेत्कोपे
कोपः कथं न ते अर्थात् यदि तू अपकार करने वाले पर क्रोध करता है, तो क्रोध ही पर क्रोध
क्यों नहीं करता, जो सबसे अधिक अपकार करने वाला है.
         क्रोध वस्तुतः अल्पकालीन पागलपन होता है. यथासम्भव उस पर नियंत्रण करना सदैव
हितकर होता है अन्यथा वह अपने धारणकर्त्ता पर अपना नियन्त्रण कर लेता है.
गोस्वामी तुलसीदास ने काम और क्रोध को मानसिक रोग बताया है. बात और पित्त की तरह वे
हमारे स्नायु तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं-
                       काम बात कफ लोभ अपारा।
                       क्रोध पित्त नित छाती जारा।।
      हम शारीरिक रोग की अपेक्षा मानसिक रोगों का इलाज अधिक आवश्यक समझते हैं,
क्योंकि इनका परिवेश अधिक व्यापक होता है.
           विवेक का हरण करने वाले काम और क्रोध नामक अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने
के लिए हम सदैव प्रयत्नशील बने रहें.

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