क्षमा–भविष्य को सुन्दर बनाने का अचूक उपाय

क्षमा–भविष्य को सुन्दर बनाने का अचूक उपाय

                         क्षमा–भविष्य को सुन्दर बनाने का अचूक उपाय

 “तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता ।
                 भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥”
तेज, क्षमा, धैर्य, बाहर की शुद्धि एवं किसी में भी शत्रु भाव का न होना और
अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव ये सब तो दैवी सम्पदा को लेकर पुरुष
के लक्षण हैं.
             ‘क्षमा’ इस शब्द से भला कौन परिचित नहीं होगा. यह हम सबके भीतर
मौजूद प्रेम तत्व का ही अपर नाम है. जिसके भीतर प्रेम है उसके भीतर क्षमा है ही,
क्योंकि प्रेम सहन करना जानता है. प्रेम में स्वीकार भाव होता है. ‘प्रेम’
में धीरज गुण भी स्वाभाविक रूप से होता है. ‘प्रेम’ प्रतीक्षा कर सकता है. ‘प्रेम’ विनम्र
होता है, वह उद्धृत और अहंकारी नहीं होता. प्रेम व क्षमा एक ही बात है. ‘क्षमा’
शब्द का प्रयोग प्रायः हम फारगिभेनेन्स के अर्थ में करते हैं. किसी को मुआफ करने के
अर्थों में करते हैं, किन्तु आत्मज्ञानी श्री विराट गुरुजी कहते हैं कि “क्षमा माफ
करना नहीं है, वह सहन करना है.” क्षमा व माफी दो अलग-अलग अर्थबोधक शब्द है. हमारी
समझ में भूल न रहे. क्षमा सहन करने को कहते हैं क्षमा प्रतिक्रिया रहित समभाव से
सहन करना है. खमाघणी का अर्थ है मैं आपको बहुत बहुत सहन करूँ मुआफ
करना सामने वाले के दोष को भुलाने को कहते हैं, श्री विराट गुरुजी कहते हैं कि
“अपने भावों की शुद्धि के लिए क्षमा’ एक अद्भुत उपाय है. अतीत में किसी ने किसी
भी तरह का व्यवहार आपके साथ किया हो अथवा आपके द्वारा कोई भी भूल-चूक हो
गई हो, आप उन्हें क्षमा कर दें व उनसे क्षमा माँग लें. क्षमा करना क्षमा माँगने से भी
अधिक कठिन बात है. जब हम किसी को क्षमा कर देते हैं, तो उनके प्रति हमारे दिल-
दिमाग में बने अवरोध खुल जाते हैं. क्षमा करने का तात्पर्य उनको अपनी शिकायतों
मुक्त करना है. उन्हें अपराधी नहीं मानना और उनके व्यवहार की त्रुटियों को भी
प्रेमपूर्वक सहन कर लेना है, जबकि क्षमा नहीं करने पर हम प्रतिक्रियाशील हो जाते
हैं. हम या तो बोलकर अथवा मन ही मन अन्यों की आलोचना चुगली या विवेचना
करते रहते हैं. उनको अन्यथा होने को कहते हैं. उनके प्रति शिकायतपूर्ण
बने रहते हैं, जबकि क्षमा यानि शिकायतों का अभाव”.
      शिकायतरहित चित्रवृत्ति जहाँ स्वयं को आत्मिक शान्ति व प्रसन्नता का अनुभव
कराती है, वहीं अन्यों को भी बोझ व अपराध भाव से मुक्ति का अहसास कराती है.
        क्या आपको क्षमा पसंद है ? शायद आप कहेंगे हाँ ! पर कब हाँ ? जब कोई
अन्य क्षमा करे, तो पसंद है और जब हमें क्षमा करनी हो तब ? तब सम्भव है कठिन
लगे. मन आवेशित हो उठे मन विरोध करने लगे. वह कहने लगे कि मैं भला क्यों
क्षमा करूँ ? क्यों सहन करूँ ? क्या मेरा अपना स्वाभिमान नहीं है ? मैं भी तो
आखिरकार इंसान ही हूँ, गुस्सा तो मुझे भी आता है. आप इस तरह के व अन्य अनेक
तरीके के कई तर्क देकर अपने आवेश को जायज ठहरा सकते हैं, किन्तु अगर
धैर्यपूर्वक चिन्तन करें, तो समझ आएगा कि सम्पूर्ण अस्तित्व हमें सहन करता है, यहाँ
हम कोई अति विशिष्ट मानव नहीं हैं, जोकि हम ही सहन कर रहे हैं. समग्र अस्तित्व
‘क्षमा’ गुण के कारण ही टिका हुआ है. परस्पर विरोधी युगल तत्व एक-दूसरे की
विभिन्नता को विपरीतता को सहज भाव से स्वीकार करते हैं, तभी तो सम्पूर्ण जीवन
गतिमान रह पाता है जैसे आग व पानी वृक्ष व हवा, पृथ्वी व आकाश, स्वर्ग व नर्क, स्त्री
व पुरुष. यहाँ सभी एक-दूसरे से भिन्न हैं, भिन्न ही प्रवृत्ति वाले हैं, सोच-समझ व शैली
वाले हैं फिर भी सभी एक-दूसरे को सहन करते हैं व जीवन सहयोग भाव से जीते हैं.
अन्यथा तो हम सब कब के प्राणों से विमुक्त हो चुके होते. अतः ऐसा सोचना व
आक्षेप करना बंद करो कि हम क्यों सहें. बल्कि इस उदार व विराट जीवन को,
प्रकृति को, सामाजिक संरचना को समझो और स्वयं भी उदार बनकर जीओ. ‘क्षमा’
करना नहीं पड़ता, अगर भीतरी समझ विशुद्ध हो व प्रेम अखण्ड हो, तो क्षमा
सहज होती है, जैसे धरती हम सबको सहन करती है. क्षमा गुण विकसित करने के लिए
आत्मज्ञानी श्री विराट गुरुजी रचित इस प्रार्थना की चंद पंक्तियाँ आप जेहन में उतार
सकते हैं-
                 “प्रभु ! मैं करूँ सबको सहन,
                  सब जीव भी मुझको सहें।
                  ये लोक के सब भूत गण कण
                  वैर  ना  कोई  लहे।।”
       अर्थात् संसार के समस्त भूत समस्त प्राणी मुझे सहन करें व मैं भी सबको सहन
करूँ, किसी से कोई वैर-विरोध न रखूँ.
          ‘क्षमा’ गुण हमारे अन्तरमन को शुद्ध बनाता है, हमारे अतीत को निर्मल करता है.
जब-जब हम वर्तमान की प्रतिकूलताओं को बिना किसी प्रतिक्रिया के स्वीकारते व आगे
बढ़ते जाते हैं, त्यों-त्यों अतीत के पाप कर्मों की विशुद्धि होती जाती है, क्योंकि हमारी
वर्तमान परिस्थितियाँ हमारे अतीत की ही देन हैं.
       जब हम वर्तमान में क्षमाशील होते हैं  यानि सर्व स्वीकार भाव में जीते हैं, तो जहाँ
एक तरफ अतीत कर्मों की विशुद्धि होती है, वहीं दूसरी तरफ भविष्य भी उज्ज्वल होता
है. भविष्य को बनाने का अचूक उपाय है- क्षमा ध्यान रहे, हमारा भविष्य हमारे वर्तमान
की ही परिणति है. आज को हम जैसे जीते हैं, उसी से ‘कल’ बनता है और
हमें आज को आनन्द भावों से, मस्त होकर जीना आया, तो हमारा कल निश्चित ही
बेहतर होगा. समण भगवान महावीर ने क्षमा को दस यति धर्मों में प्रथम स्थान दिया है.
                          क्षमा धर्म पहलो खरो, इम भाख्यो जगदीश.
       ‘क्षमा’ बिना विवेक सम्भव नहीं है. जिसे अन्यों के व्यक्तित्व को समझना व
पढ़ना आता है, वहीं अनेक आयामों से सोच-समझकर उन्हें निर्दोष देख पाने में
सक्षम हो सकता है जब तक हम अपने भीतर किसी-न-किसी के दोष देखते रहेंगे,
आलोचना करते रहेंगे, कमियाँ ढूँढ़ते रहेंगे, हम क्षमावान नहीं हो सकते हैं. ‘क्षमा’ करते
ही आप और हम बोझमुक्त, निर्भारचित्त बन जाते हैं. जीवन को बिना किसी शर्त, चाह,
अपेक्षा व विवाद के जीने लगते हैं ‘क्षमा’ भाव इंसान को स्वयं को दिया हुआ एक
ऐसा उपहार है, जो उसके भूतकर्मों की शुद्धि वर्तन की विशुद्धि व भविष्य की
समुन्नति करता है. हमारा भविष्य हमारे वर्तमान भावों का ही साकार रूप होगा. अतः
क्षमा द्वारा अपने सारे बन्धनों को हटा कर सुन्दर भविष्य का सृजन करें स्वयं के
न सौभाग्य का सर्जक बनने में कदापि गफलत न करें.

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